देश की राजनीति मेआजकल के विषयों में किसी समस्या के बारे में चर्चा करते हुए एक विषय जो बार बार मन में खटक रहा है, वह है न्याय प्रणाली का बिगड़ता स्वरूप। इस समस्या को प्राथमिकता लाने वाली दो प्रमुख खबर है। न्यायाधीश के घर से मिले जले नोट और रिटायर्ड होने जा रहे एक प्रमुख जज के दोगले चेहरे।। दोनों केसेस का इशारा किस के पक्ष में जा रहा है उसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।देखा जाए तो ऐसा भ्रष्टाचार की आत्मग्लानि रिटायर्ड होने के बाद उस ऑफिसर के सच झूठ से होती है जब वो रिग्रेट करता है न कि सबूतों की बरामदी से या उसका भविष्य भी सेव हो की हो अच्छी पदवी पाकर । दूसरे case में मन और पक्ष ओर । उसका भी डर कोई तो होगा। पब्लिक उसके कई मामलों में रात उसकी ओपिनियन की तारीफ करती है न्याय देखते हुए उसकी निंदा। भी।इसे आप विश्वास घात कहने या महत्वकांशी
आपने देश की न्याय प्रणाली के बिगड़ते स्वरूप को लेकर जो चिंता जताई है, वह आजकल के हालात को देखते हुए बेहद प्रासंगिक है। आपके द्वारा उठाए गए दो प्रमुख मामले—न्यायाधीश के घर से जले नोटों की बरामदगी और एक रिटायर होने वाले जज के कथित दोहरे चरित्र—न्यायपालिका की विश्वसनीयता पर गहरे सवाल उठाते हैं। आइए इन दोनों को थोड़ा समझने की कोशिश करते हैं और इनके निहितार्थ पर विचार करते हैं।
पहला मामला, जहां एक हाई कोर्ट जज के घर से जले हुए नोट मिले, हाल की खबरों से जुड़ा है। यह घटना दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास से संबंधित है, जहां 14 मार्च 2025 को आग लगने के बाद अधजले नोटों की बोरियां मिलीं। इस मामले ने न केवल सनसनी फैलाई, बल्कि न्यायपालिका के भीतर पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी को उजागर किया। जस्टिस वर्मा ने इसे साजिश करार दिया और कहा कि यह नकदी उनकी नहीं थी, लेकिन सवाल यह है कि इतनी बड़ी राशि वहां से पहुंची और आग लगने के बाद सबूतों को संभालने में क्या लापरवाही हुई। सुप्रीम कोर्ट ने तीन जजों की समिति बनाकर जांच शुरू की है, लेकिन जनता के मन में संदेह बना हुआ है कि क्या यह भ्रष्टाचार का परिणाम है या किसी बड़े खेल का हिस्सा। यह मामला इस ओर इशारा करता है कि न्याय प्रणाली के शीर्ष स्तर पर भी सवाल उठ सकते हैं, जिससे आम आदमी का भरोसा डगमगाता है।
दूसरा मामला, जिसे आपने "रिटायर्ड होने जा रहे जज के दोगले चेहरे" के रूप में संदर्भित किया, स्पष्ट नहीं है कि यह किस विशिष्ट घटना की ओर इशारा करता है। लेकिन हाल के संदर्भ में, यह किसी ऐसे रिटायर जज से जुड़ा हो सकता है, जिसके फैसलों या व्यवहार पर सवाल उठे हों, खासकर रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली सुविधाओं या पदों के लालच में। भारत में यह कोई नई बात नहीं है कि रिटायरमेंट के बाद जजों को सरकारी पदों या आयोगों में नियुक्ति मिलती है, और कई बार यह संदेह पैदा करता है कि क्या उनके कार्यकाल के फैसले निष्पक्ष थे या भविष्य की महत्वाकांक्षा से प्रभावित। अगर यह आत्मग्लानि या पश्चाताप का मामला है, जैसा आपने कहा, तो यह तब सामने आता है जब जज अपने कार्यकाल को पीछे मुड़कर देखता है। लेकिन जनता के लिए, यह विश्वासघात जैसा लगता है, क्योंकि जिससे न्याय की उम्मीद की जाती है, वही अगर पक्षपात या भ्रष्टाचार में लिप्त हो, तो यह व्यवस्था की नींव को कमजोर करता है।
दोनों मामलों का इशारा एक ही दिशा में जाता है—न्याय प्रणाली में भ्रष्चर और पक्षपात की जड़ें गहरी हो सकती हैं। पहला मामला प्रत्यक्ष भ्रष्टाचार की ओर संकेत करता है, जहां धन का खेल चल रहा हो सकता है। दूसरा अप्रत्यक्ष रूप से महत्वाकांक्षा और नैतिकता के टकराव को दर्शाता है। इनसे यह साफ होता है कि समस्या सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि व्यवस्थागत है। जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता की कमी, संपत्ति की घोषणा का अनिवार्य न होना, और राजनीतिक प्रभाव जैसे मुद्दे इसे और जटिल बनाते हैं।
आपके सवाल का जवाब देते हुए, यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं कि ये मामले किसके पक्ष में जा रहे हैं। अगर भ्रष्टाचार सिद्ध होता है, तो यह उन ताकतों के पक्ष में होगा जो न्यायपालिका को कमजोर करना चाहते हैं—चाहे वह राजनीतिक शक्तियां हों या निहित स्वार्थ। लेकिन अगर यह साजिश है, तो यह जजों को बदनाम करने की कोशिश हो सकती है, जिसका फायदा विरोधियों को मिले। जनता के लिए दोनों ही स्थिति में नुकसान है, क्योंकि न्याय पर उसका भरोसा कम होता है। सुधार की जरूरत है—जजों की जवाबदेही बढ़ाने, जांच प्रक्रिया को मजबूत करने और तकनीक के इस्तेमाल से पारदर्शिता लाने में। क्या आप इनमें से किसी मामले पर और गहराई से चर्चा करना चाहेंगे?
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