Tuesday, 22 January 2013

आत्मिक आनंद (Enjoy Spiritual )


माया के प्रभाव के कारण ज्ञान-इन्द्रियाँ मनुष्य को मायक पदार्थो की ओर दोड़ाती रहती हैं | यह रास्ता अच्छा है या बुरा, यह विचार करने वाली सोच-शक्ति दबी ही रहती है | जिस मनुष्य को परमात्मा गुरू के दर पर पहुंचाता है, उसकी विचार-शक्ति जाग जाती है | वह मनुष्य परमात्मा के नाम से जुड़ता है तथा 'आत्मिक आनंद' का अनुभव करता है |३८|


जिस मनुष्य के कानों को अभी निंदा-चुगली सुनने का चस्का है, उसके ह्र्दय में 'आत्मिक आनंद' पैदा नहीं हुआ | 'आत्मिक आनंद' की प्राप्ति उसी मनुष्य को है जिस के कान, जिस की जीभ, जिस की सारी ज्ञान-इन्द्रियाँ परमात्मा के गुण-कीर्तन में मग्न रहती हैं | वही ज्ञान-इन्द्रियाँ पवित्र हैं |३७|

जब तक मनुष्य जगत में किसी को वैर भाव से देखता है, किसी को मित्रता के भाव से, तब तक उसके अन्दर मेरे-तेरे कि भावना है | जहाँ यह भावना है वहाँ 'आत्मिक आनंद' नहीं हो सकता | गुरू को मिल कर मनुष्य कि आखें खुलती हैं, फिर इसको हर स्थान पर परमात्मा ही परमात्मा दिखाई देता है | यही दीदार ही आनंद का मूल है |३६|

पूर्व किये कर्मों के संस्कारों से प्रेरित हुआ मनुष्य बार बार वैसे ही कर्म करता रहता है | परमात्मा के नाम-सिमरन वाली तरफ अपने आप नहीं लग सकता | फिर 'आत्मिक आनंद' कहाँ से मिले ? अच्छे भाग्य से जब मनुष्य गुरू कि शरण में आता है तब उसकी जिंदगी कामयाब होती है |३५|

मनुष्य के अन्दर 'आत्मिक आनंद' तब ही पैदा होता है, जब उसके ह्र्दय में परमात्मा का प्रकाश होता है | तब मनुष्य का ह्र्दय विकारों से पवित्र हो जाता है |कोई चिंता, कोई दुःख उस पर अपना जोर नहीं डाल सकता, पर यह प्रकाश गुरू द्वारा ही होता है |३४|

हे मेरे शरीर ! तू दुनिया के पदार्थों में आनंद ढुंढता है ,पर आनंद का स्रोत्र तो परमात्मा है जो तेरे अन्दर बसता है | तू जगत में आया ही तब है जब हरि ने अपनी ज्योति तेरे अन्दर रख दी है | यह विशवास रख कि जब परमात्मा ने तेरे अन्दर अपनी ज्योति रखी , तभी तू जगत में पैदा हुआ |३३|


कई तरह के व्यंजन खाने से भी मनुष्य की जीभ का चस्का समाप्त नहीं होता | बड़ा परेशान होता है, मनुष्य इस लालसा में | पर जब मनुष्य को हरि-नाम सिमरन का आनंद आने लग जाता है, जीव की स्वाद-लिप्सा समाप्त हो जाती है | परमात्मा की कर्पा से जिस को गुरू मिल जाए, उस को हरि-नाम का 'आनंद' प्राप्त होता है |३२|

गुरू द्वारा ही यह समझ आती है कि 'आत्मिक आनंद' कि कमाई करने के लिये परमात्मा का नाम ही मनुष्य कि पूँजी बननी चाहिये | यह धन (सरमाया) उनको ही मिलता है, जिन पर प्रभु आप कर्पा करे |३१|

किसी सांसारिक पदार्थ के बदले परमात्मा का मिलाप नहीं हो सकता | तथा जिस ह्र्दय में प्रभु का प्यार नहीं, वहाँ 'आत्मिक आनंद' कहाँ ? हाँ ! जिस मनुष्य को परमात्मा गुरू तक पहुंचा देता है उसके भाग्य जाग्रत हो जाते हैं |३०|

गुरू की कर्पा से जिन मनुश्यों का ध्यान दुनिया के कार्य-व्यापार करते हुये भी प्रभु के चरणों में जुड़ा रहता है, उनके अन्दर 'आत्मिक आनंद' बना रहता है | जगत की दशा तो यह है कि जीव को पैदा होते ही माँ-बाप आदि के प्यार द्वारा माया प्रभु-चरणों से अलग कर देती है |२९|
परमात्मा जिस मनुष्य को अपने चरणों का प्रेम देता है, उस मनुष्य पर कोई भी विकार अपना जोर नहीं डाल सकता | गुरू की शरण में आकर, गुरू के बताए मार्ग पर चलकर सदा परमात्मा की याद ह्र्दय में टिका के रखनी चाहिये | 'आत्मिक आनंद' की प्राप्ति का यही साधन है |२८|

कर्म-कांड के अनुसार कौन-सा पाप-कर्म है, तथा कौन-सा पुण्य-कर्म है-- केवल यह विचार मनुष्य के अन्दर आत्मिक आनंद पैदा नहीं कर सकता | गुरू कि कर्पा से जो मनुष्य सदा हरि-नाम का सिमरन करता है, गुण-कीर्तन की बाणी का उच्चारण करता है, वह विकारों की तरफ़ से सुचेत रहता है, तथा 'आत्मिक आनंद' प्राप्त करता है |२७|

परमात्मा की रज़ा के अनुसार जीव माया के हाथों में नाच रहे हैं | जिस किसी को गुरू के बताये हुये मार्ग पर चलने योग्य बनाता है, वह मनुष्य माया के बंधनों से स्वतन्त्र हो जाता है | उसका ध्यान परमात्मा के चरणों में लगा रहता है | उनके अन्दर 'आत्मिक आनंद' बना रहता है |२६|
सतिगुरु की बाणी परमात्मा की ओर से एक अमूल्य देन है, इसमें परमात्मा का गुण कीर्तन भरा पड़ा है |जो मनुष्य इस बाणी से अपना मन जोड़ता है, उसके अन्दर परमात्मा का प्रेम बन जाता है , तथा जहाँ प्रभु-प्रेम है, वहाँ ही 'आत्मिक आनंद' है |२५|

गुरू आशय के विपरीत जाने वाली बाणी, परमात्मा के गुण- कीर्तन से रहित बाणी मन को कमजोर करती है, माया की झलक के सामने डगमगा देती है | ऐसी बाणी को नित्य पढने-सुनने वालों के मन माया के मुकाबले में कमजोर हो जाते हैं | ऐसे कमजोर हो चुके मन में 'आत्मिक आनंद' का स्वाद नहीं बन सकता |वह मन तो माया के मोह में फंसा होता है |२४| .

जिन मनुष्यों पर परमात्मा की कर्पा दृष्टि होती है, वे परमात्मा का गुण-कीर्तन करने वाली गुरबाणी अपने ह्र्दय में बसाये रखते हैं | गुरबाणी द्वारा वे आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल सदा पीते रहते हैं |२३|
माया का मोह तथा आत्मिक आनंद--यह दोनों एक ही ह्र्दय में एक साथ नहीं टिक सकते | तथा माया के मोह से मुक्ति तभी मिलती है, जब मनुष्य गुरू के शरण में आता है | गुरू मनुष्य को जीवन का सही रास्ता बताता है |२२|
वह मनुष्य प्रसन्नचित रह सकता है, वही मनुष्य सदा आत्मिक आनंद अनुभव कर सकता है, जो आप-भाव ('मैं' की भावना) छोडकर गुरू को ही अपना आसरा बनाए रखता है |२१|

मनुष्य जगत में आत्मिक आनंद का व्यापार करने आता है |जो मनुष्य गुरू के बताए मार्ग पर चलता है, माया का मोह उसके समीप नहीं आता |उसका मन विकारों से बचा रहता है, बाहर दुनिया के साथ भी उसका व्यवहार अच्छा होता है | उसकी जिंदगी कामयाब समझो |२०|
केवल बाहर से धार्मिक दिखाई देने वाले कर्म करने से मन में विकारों की मैल टिकी रहती है |मन को माया के मोह का रोग लगा रहता है | जहाँ रोग है वहाँ आनंद कहाँ ? इसलिये सदा हरि-नाम का सिमरन करते रहो | यही है मन की निरोगता का साधन तथा आत्मिक आनंद देने वाला |१९|

माया के मोह में फंसे रहने से मन में चिंता, बनी रहती है | इस चिंता का इलाज़ है आत्मिक आनंद, तथा आत्मिक आनंद प्राप्त होता है गुरू की कर्पा से | इसलिये गुरू के शब्द में ध्यान लगाकर रखो, तथा परमात्मा की याद से सदा जुड़े रहो |१८|

गुरू के शरण में आकर मनुष्य परमात्मा के नाम का सिमरन करते हैं, उनके अन्दर आत्मिक आनंद पैदा होता है | इसकी कर्पा से माया वाले ओछे रस, उनको आकर्षित नहीं कर सकते | उनका जीवन ऊँचा हो जाता है | उनकी संगति से दूसरों का आचरण भी पवित्र हो जाता है | १७|

सतगुरु की बाणी आत्मिक आनंद प्राप्त करने का साधन है, पर उसे गुरबानी उनके ह्र्दय में बस्ती है, जिनके भाग्य में ऊपर से ही यह लेख लिख होता है | १६|


आत्मिक आनन्द की दाति सिर्फ परमात्मा के अपने हाथ में हैं | जिस मनुष्य को कर्पा करके परमात्मा अपने 'नाम-सिमरन' की और प्रेरित करता है, वह मनुष्य गुरु के दर पर पहुँच कर सिमरन की बरकत से आत्मिक आनन्द प्राप्त कर लेता है|१५|
आत्मिक आनंद लेने वालों का जीवन-युक्ति दुनिया के लोगों से अलग होती है | वे विकारों से बचे रहते हैं | वे अपनी प्रशंसा नहीं चाहते, पर इस मार्ग पर चलना है कठिन | गुरू की कर्पा हो तो आपा-भाव समाप्त किया जा सकता है |१४|

जिस मनुष्य पर परमात्मा कर्पा करता है, उसे गुरू मिलता है | गुरू से उसको आत्मिक आनंद देने वाला 'नाम-जल' मिलता है | वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा को अपने ह्र्दय में बसाये रखता है | उसके अन्दर से लोभ, अहंकार आदि सारे विकार दूर हो जाते हैं |१३|

आत्मिक आनंद की प्राप्ति के लिये सदा प्रभु के दर पर ऐसे विनती करते रहना चाहिये--हे प्रभु ! तू अनन्त है, प्रत्येक जीव के अन्दर तू ही बोल रहा है, प्रत्येक जीव की तू संभाल कर रहा है |१२|

स्थाई आत्मिक शान्ति तथा आनंद की प्राप्ति का एक ही तरीका है कि मनुष्य सांसारिक मोह में फंसे रहने के स्थान पर अपने मन में परमात्मा की याद बसाये रखे | बस, यही है गुरू की शिक्षा, जिसे कभी भुलाना नहीं चाहिए |११|


यदि मनुष्य अन्दर से मोह-माया में फंसा रहे, तथा बाहर सिर्फ चतुराई की बातों से आत्मिक आनंद की प्राप्ति चाहे, यह नहीं हो सकता |१०|

अपने उद्दम से कोई प्राणी आत्मिक आनंद नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि माया के सम्मुख किसी का वश 

नहीं चलता | जिन पर परमात्मा कर्पा करता है, उसको गुरू से मिलाता है | गुरू के बताए मार्ग पर चलकर वे विकारों से बचते हैं, तथा हरि-नाम में जुड़ते हैं | उनके अन्दर सदा शान्ति तथा शीतलता बनी रहती है |९|

अपने उद्दम से कोई प्राणी आत्मिक आनंद नहीं प्राप्त कर सकता, क्योंकि माया के सम्मुख किसी का वश नहीं चलता | जिन पर परमात्मा कर्पा करता है, उसको गुरू से मिलाता है | गुरू के बताए मार्ग पर चलकर वे विकारों से बचते हैं, तथा हरि-नाम में जुड़ते हैं | उनके अन्दर सदा शान्ति तथा शीतलता बनी रहती है |८|


जिस मनुष्य को असल आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, उसका जीवन इतना प्यारा हो जाता है कि वह सदा मधुर भाषी रहता है | यह आत्मिक आनंद गुरू से मिलता है | गुरू उस मनुष्य के अन्दर के सारे विकार दूर कर देता है, तथा उसको आत्मिक जीवन की समझ देता है |७|


यदि मनुष्य के मन में परमात्मा के चरणों का प्यार न बने, तो यह सदा माया के प्रभाव में दुखी-सा रहता है | मनुष्य की सारी ज्ञान इन्द्रियाँ माया की दोड़-भाग में ही लगी रहती है | परमात्मा स्वयं कर्पा करे, तो गुरू के शब्द में लग कर यह सुधर जाता है |६|

परमात्मा ऊपर से ही (दरगाह से ) जिन मनुष्यों के भाग्य में 'नाम' सिमरन का लेख लिख देता है, वे मनुष्य 'नाम' से जुड़ते हैं | 'नाम' की बरकत से कामादिक पांच शत्रु उन पर अपना दबाव नहीं डाल सकते | इस प्रकार उनके अन्दर आत्मिक आनंद बना रहता है |५|

गुरू की कर्पा से परमात्मा का 'नाम' मिलता है | जिस मनुष्य को 'नाम' प्राप्त हो जाता है, उसके अंदर से माया के लालच दूर हो जाते हैं, तथा उसके अंदर शान्ति पैदा हो जाती है, आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है |४|

जिस मनुष्य पर परमात्मा कर्पा की दृष्टि रखता है, वह् मनुष्य परमात्मा की प्रशंसा , परमात्मा का नाम अपने मन में बसाता है | नाम की बरकत से मनुष्य के अंदर आत्मिक आनंद बना रहता है |३|

जो मनुष्य परमात्मा कि याद से जुड़ा रहता है, परमात्मा उस के सारे दुःख दूर कर देता है, उस के सारे कार्य संवारता है |वह स्वामी सारे कार्य करने में समर्थ है |२|


गुरू से परमात्मा के गुण-कीर्तन कि दाति मिलती है तथा सिफति-सालाह कि बरकत से मनुष्य के मन में पूर्ण आनंद पैदा हो जाता है |१|


गुरू अमरदास जी |अनंदु साहिब|Cont.

Friday, 18 January 2013

जपु जी साहिब का सम्पूर्ण भाव (१-१५)

सवाल :- मनुष्य और परमात्मा के बीच जो दूरी बढ़ रही है, वह कैसे हट सकती है ?

जवाब :- परमात्मा का हुक्म मानना, उसके स्वभाव के साथ अपना स्वभाव मिलाना (जैसे, यदि बेटा, बाप का कहना मानता रहे तो बाप-बेटे में कोई फर्क नहीं रह जाता ) दान करना, तीर्थ स्नान करना, या प्रणायाम करके अपनी उम्र बढ़ाने से यह अंतर दूर नहीं हो सकता (१-७)


सवाल :- परमात्मा के हुक्म मानने का तरीका क्या है ?

जवाब :- जैसे जैसे मनुष्य गुरू के बताए रास्ते पर चलकर परमात्मा का भजन करता है, तैसे तैसे उसको परमात्मा की मिट्ठी लग्न लगती है | सो रजा में, हुक्म में चलने के लिये जीव को परमात्मा की सिफत-सालाह में अपना ध्यान जोड़ना है | ध्यान भी इतना जोड़ना है कि मन परमात्मा में पतीज जाये | सिफत सालाह में से निकलने कि चिंता न करें |(८-१५)



गुरू नानक, जपु जी साहिब |

Friday, 4 January 2013

पवणु गुरू, पाणी पिता...(श्लो़क ) जपु जी साहिब |


सलोकु ||

पवणु गुरू, पाणी पिता, माता धरति महतु ||
दिवसु राति दुइ दाई दाइआ, खेलै सगल जगतु ||

'प्राण ' शरीर के लिये ऐसे हैं जैसे 'गुरू' जीवों की आत्मा के लिये है, 'पानी' सब जीवों का 'पिता' है तथा 'धरती' सब की 'बड़ी माँ' है | दिन तथा रात खिलाने वाले हैं, सारा संसार खेल रहा है, भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने तथा दिन में कार्य- व्यवहार में लगे हुये हैं |

चंगिआईआ बुरिआईआ, वाचै धरमु हदूरि ||
करमी आपो आपणी, के नेड़े के दूरि ||

धर्मराज परमात्मा की हजूरी में जीवों के किये हुये अच्छे-बुरे कर्मों के बारे में विचार करता है | अपने अपने इन किये हुये कर्मों के अनुसार कई जीव परमात्मा के नजदीक हो जाते हैं तथा कई परमात्मा से दूर हो जाते हैं |

जिनी नामु धिआइआ, गए मसकति घालि ||
नानक ते मुख उजले, केती छुटी नालि ||१||

हे नानक ! जिन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम का चिंतन किया है, उन्होंने अपनी मेहनत सफल कर ली है, परमात्मा के दर पर वे उज्जल मुख वाले हैं तथा अन्य भी कई जीव उनकी संगति में रहकर असत्य की दीवार तोडकर माया के बंधनों  से आजाद हो गये हैं |१|

भाव: यह जगत एक रंगभूमि है, जिस में जीव खिलाड़ी अपना अपना खेल खेल रहे हैं | प्रत्येक जीव के खेल की पड़ताल (जांच ) बड़े ध्यान से हो रही है | जो केवल माया का खेल ही खेलते रहे, वे प्रभु से दूर होते गये | परन्तु जिन्होनें सिमरन किया, वे अपनी मेहनत सफल कर गये तथा कई जीवों को इस सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुये स्वयं भी प्रभु की हजूरी में सुशोभित हुये |

Wednesday, 2 January 2013

जतु पाहारा, धीरजु सुनिआरु...(३८) जपु जी साहिब |

जतु पाहारा, धीरजु सुनिआरु || अहरणि मति, वेदु हथीआरु ||

यदि 'जत' (अपनी शारीरक इन्द्रियों  को विकारों की ओर से नियंत्रित रखना ) रूप दूकान हो, 'धीरज' सुनार बनें , मनुष्य की अपनी मति अहरण हो, उस मति-अहरण पर 'ज्ञान' रूपी हथोड़ा पड़े | 

भउ खला, अगनि तपताऊ || 
भांडा भाउ, अंम्रितु तितु ढालि ||
घड़ीऐ सबदु, सची टकसाल ||

यदि अकाल पुरुख (परमात्मा) का डर धौंकनी ( जिससे सुनार फूंक मार मार कर आग लगाते हैं ) हो, घाल कमाई आग हो, प्रेम कुठाली हो, तो हे भाई ! उस कुठाली में परमात्मा का अमृत-नाम गलाओ क्योंकि इस जैसी ही सच्ची टकसाल में गुरू का शब्द घड़ा जा सकता है |

जिन कउ नदरि करमु तिन कार ||
नानक, नदरी नदरि निहाल ||३८||

यह कार (भाव, वही मनुष्य यह उपर बताई गई टकसाल तैयार करके शब्द की घाड़त घड़ते है ) उन मनुष्यों की है, जिन पर कर्पा-दृष्टि होती है, जिन पर कर्पा (बख्शीश) होती है | हे नानक ! वे मनुष्य परमात्मा की कर्पा-दृष्टि से निहाल हो जाते है |३८|

भाव:- परन्तु यह ऊँची आत्मिक अवस्था तब ही बन सकती है, जब आचरण पवित्र हो, दूसरों की ज्यादती सहने का होंसला हो, ऊँची तथा विशाल समझ हो. प्रभु का डर ह्र्दय में टीका रहे, सेवा की  मेहनत की जाये, रचयता तथा रचना का प्यार दिल से हो | यह जत, धीरज, मति ज्ञान, भय , घाल (मेहनत) तथा प्रेम के गुण एक सच्ची टकसाल है, जिस में गुर-शब्द की मोहर घड़ी जाती है, भाव जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में किसी शब्द का सतगुरु जी ने उच्चारण किया है, उपर बताए गए जीवन वाले सिक्ख को भी वह शब्द उसी आत्मिक अवस्था में पहुंचा देता है |     


नोट : वाणी 'जपु' की कूल ३८ पौड़ीयाँ  हैं, जो यहाँ समाप्त हुयी हैं | पहले श्लोक में मंगलाचरण के रूप  में गुरू नानक देव जी ने अपने इष्ट प्रभु का सवरूप बयां किया था | अगले अंतिम श्लोक में सारी बाणी 'जपु' का सिद्धांत बताया गया है |

Tuesday, 1 January 2013

करम खंड की बाणी जोरू...(३७) जपु जी साहिब |

करम खंड की बाणी जोरू || तिथै, होरु न कोई होरु ||
तिथै, जोध महाबल सूर || तिन महि रामु रहिआ भरपूर ||

परमात्मा  की कर्पा वाली उस  अवस्था की बनावट 'बल' है, भाव, जब मनुष्य  पर परमात्मा की कर्पा-दृष्टि होती है तथा उसके अंदर ऐसा बल पैदा होता है कि विष्य-विकार उसे प्रबावित नहीं कर सकते क्योंकि उस अवस्था में मनुष्य के अंदर परमात्मा के बिना कोई दूसरा बिल्कुल ही नहीं रहता | उस अवस्था में जो मनुष्य हैं वे योद्धा, महाबली तथा शूरवीर हैं, उनके रोम-रोम में परमात्मा बस रहा है |

तिथै, सीतो  सीता, महिमा माहि || ता के रूप, न कथने जाहि ||
ना ओहि मरहि न ठागे जाहि || जिन कै, रामु वसै, मन माहि ||

परमात्मा की कर्पा कि उस अवस्था में पहुंचे हुये मनुष्यों की प्रशंसा (गुण-कीर्तन ) में लगा रहता है | उनकी काया ऐसी कंचन जैसी हो जाती है कि उनके सुंदर रूप का वर्णन नहीं किया जा सकता | उनके मुख पर नूर ही नूर चमकता है | इस अवस्था में जिन के मन में परमात्मा बसता है, वे आत्मिक मौत नहीं मरते तथा माया उनको ठग नहीं सकती |

तिथै भगत वसहि, के लोअ || करहि अनंदु, सचा मनि सोइ ||

इस  अवस्था में कई भवनों के भक्त जन बस्ते हैं. जो सदा प्रफुल्लत रहते हैं, क्योंकि वह सच्चा परमात्मा उनके मन में मौजूद है |

सचि खंडि वसै  निरंकारु || करि करि वेखै, नदरि निहाल ||

सच्च खंड में भाव, परमात्मा के साथ एक रूप होने वाली अवस्था में मनुष्य के अंदर वह परमात्मा आप ही बसता है, जो सृष्टि को रचकर कर्पा कि दृष्टि से उसकी संभाल करता है |

तिथै, खंड मंडल वरभंड || जे को कथै, त अंत न अंत ||
तिथै लोअ लोअ  आकार || जिव जिव हुकमु तिवै तिव कार ||
वेखै विगसै, करि वीचारु || नानक, कथना करड़ा सारु ||३७||

इस अवस्था में, भाव, परमात्मा के साथ एक रूप हो जाने वाली अवस्था में मनुष्य को अनन्त खण्ड, अनन्त मंडल तथा असीम ब्रहमंड दीखते हैं | इतने अनन्त कि यदि कोई मनुष्य उनका कथन करने लगे तो उनका अन्त नहीं होता | उस अवस्था में अनन्त भवन तथा आकार दीखते हैं, जिन सब में उसी तरह व्यवहार चल रहा है जैसे परमात्मा का हुक्म होता है, भाव, इस अवस्था में पहुँच कर मनुष्य को प्रत्येक स्थान  पर   
परमात्मा कि रज़ा काम कर रही दिखाई देती है | उसको प्रत्यक्ष दिखाई देता है कि परमात्मा विचार करके सब जीवों की संभाल करता है तथा खुश होता है |
हे नानक ! इस अवस्था का वर्णन करना बहुत कठिन है | भाव, यह अवस्था ब्यान नहीं हो सकती , अनुभव ही की जा सकती है |३७||

भाव:- परमात्मा के साथ एक रूप हो चुकी आत्मिक अवस्था में पहुंचे हुये जीव पर परमात्मा कि कर्पा का दरवाज़ा खुलता है, उसको सब अपने ही अपने दिखाई पड़ते हैं , हर तरफ प्रभु  ही दिखाई देता है | ऐसे मनुष्य का ध्यान सदा प्रभु कि सिफत-सालाह (गुण-कीर्तन) में जुड़ा रहता है | अब माया उसे ठग नहीं सकती, आत्मा बलवान हो जाती है, प्रभु  से दूरी नहीं हो सकती | अब उसको प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि अनन्त कुदरत की रचना कर के प्रभु सबको अपनी रज़ा में चला रहा है तथा सब पर कर्पा-दृष्टि कर रहा है |