Wednesday, 2 January 2013

जतु पाहारा, धीरजु सुनिआरु...(३८) जपु जी साहिब |

जतु पाहारा, धीरजु सुनिआरु || अहरणि मति, वेदु हथीआरु ||

यदि 'जत' (अपनी शारीरक इन्द्रियों  को विकारों की ओर से नियंत्रित रखना ) रूप दूकान हो, 'धीरज' सुनार बनें , मनुष्य की अपनी मति अहरण हो, उस मति-अहरण पर 'ज्ञान' रूपी हथोड़ा पड़े | 

भउ खला, अगनि तपताऊ || 
भांडा भाउ, अंम्रितु तितु ढालि ||
घड़ीऐ सबदु, सची टकसाल ||

यदि अकाल पुरुख (परमात्मा) का डर धौंकनी ( जिससे सुनार फूंक मार मार कर आग लगाते हैं ) हो, घाल कमाई आग हो, प्रेम कुठाली हो, तो हे भाई ! उस कुठाली में परमात्मा का अमृत-नाम गलाओ क्योंकि इस जैसी ही सच्ची टकसाल में गुरू का शब्द घड़ा जा सकता है |

जिन कउ नदरि करमु तिन कार ||
नानक, नदरी नदरि निहाल ||३८||

यह कार (भाव, वही मनुष्य यह उपर बताई गई टकसाल तैयार करके शब्द की घाड़त घड़ते है ) उन मनुष्यों की है, जिन पर कर्पा-दृष्टि होती है, जिन पर कर्पा (बख्शीश) होती है | हे नानक ! वे मनुष्य परमात्मा की कर्पा-दृष्टि से निहाल हो जाते है |३८|

भाव:- परन्तु यह ऊँची आत्मिक अवस्था तब ही बन सकती है, जब आचरण पवित्र हो, दूसरों की ज्यादती सहने का होंसला हो, ऊँची तथा विशाल समझ हो. प्रभु का डर ह्र्दय में टीका रहे, सेवा की  मेहनत की जाये, रचयता तथा रचना का प्यार दिल से हो | यह जत, धीरज, मति ज्ञान, भय , घाल (मेहनत) तथा प्रेम के गुण एक सच्ची टकसाल है, जिस में गुर-शब्द की मोहर घड़ी जाती है, भाव जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में किसी शब्द का सतगुरु जी ने उच्चारण किया है, उपर बताए गए जीवन वाले सिक्ख को भी वह शब्द उसी आत्मिक अवस्था में पहुंचा देता है |     


नोट : वाणी 'जपु' की कूल ३८ पौड़ीयाँ  हैं, जो यहाँ समाप्त हुयी हैं | पहले श्लोक में मंगलाचरण के रूप  में गुरू नानक देव जी ने अपने इष्ट प्रभु का सवरूप बयां किया था | अगले अंतिम श्लोक में सारी बाणी 'जपु' का सिद्धांत बताया गया है |

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