सलोकु ||
पवणु गुरू, पाणी पिता, माता धरति महतु ||
दिवसु राति दुइ दाई दाइआ, खेलै सगल जगतु ||
'प्राण ' शरीर के लिये ऐसे हैं जैसे 'गुरू' जीवों की आत्मा के लिये है, 'पानी' सब जीवों का 'पिता' है तथा 'धरती' सब की 'बड़ी माँ' है | दिन तथा रात खिलाने वाले हैं, सारा संसार खेल रहा है, भाव, संसार के सारे जीव रात को सोने तथा दिन में कार्य- व्यवहार में लगे हुये हैं |
चंगिआईआ बुरिआईआ, वाचै धरमु हदूरि ||
करमी आपो आपणी, के नेड़े के दूरि ||
धर्मराज परमात्मा की हजूरी में जीवों के किये हुये अच्छे-बुरे कर्मों के बारे में विचार करता है | अपने अपने इन किये हुये कर्मों के अनुसार कई जीव परमात्मा के नजदीक हो जाते हैं तथा कई परमात्मा से दूर हो जाते हैं |
जिनी नामु धिआइआ, गए मसकति घालि ||
नानक ते मुख उजले, केती छुटी नालि ||१||
हे नानक ! जिन मनुष्यों ने परमात्मा के नाम का चिंतन किया है, उन्होंने अपनी मेहनत सफल कर ली है, परमात्मा के दर पर वे उज्जल मुख वाले हैं तथा अन्य भी कई जीव उनकी संगति में रहकर असत्य की दीवार तोडकर माया के बंधनों से आजाद हो गये हैं |१|
भाव: यह जगत एक रंगभूमि है, जिस में जीव खिलाड़ी अपना अपना खेल खेल रहे हैं | प्रत्येक जीव के खेल की पड़ताल (जांच ) बड़े ध्यान से हो रही है | जो केवल माया का खेल ही खेलते रहे, वे प्रभु से दूर होते गये | परन्तु जिन्होनें सिमरन किया, वे अपनी मेहनत सफल कर गये तथा कई जीवों को इस सुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुये स्वयं भी प्रभु की हजूरी में सुशोभित हुये |
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