सड़क किनारे खड़े पेड़ को
रस्ता चलते दिन प्रतिदिन
नियम से उसको देखा है ।
आते जाते राहगीर ठहरते,
घोंसलों से पंछी चहकते।
गृंजता सुबह उनके गीतों संग।
किसी राही की थकान मिटाए,
बारिश में भीगने को बचाए।
लगता, बूढा हो रहा है,
इसके फ़ल-फूल सूख गए हैं
पत्ते झड़ कर गिर रहे है l
नहीं, यह बूढा नहीं हुआ है,
आती बहार फिर,
इसकी टहनियां तनी होगीं
पत्तियों से भरी होंगी,
फिर छाँव से घिरी होंगी ।
बूढा तो है ये मनुष्य,
और उसका समाज, जो,
इस की महानता को नकारता है,
और अपनी हस्ती का ढंका,
दिन रात बजा रहा है
चीख रहा है,किसी बंजर धरती जैसे ।
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