Thursday, 29 September 2016

मेरे पापा....

मेरे पापा ।
एक फरिश्ता, बेशक 11 साल की उम्र में मेरा साथ छोड़ गए। छठी क्लास में पढ़ते बच्चे को क्या मालूम कि इस उम्र में छूटा बाप का प्यार, उसे जिंदगी की कितनी ठोकरें खाने को मजबूर कर सकता है ।

जितना मुझे याद है जैसे मुझे बताया गया कि पाकिस्तान बनते समय जो देश का विभाजन हुआ, उसमे उसपार से इसपार आने में जो परेशानियां मेरे पिता ने झेलीं, माता का नाम इसलिए नहीं लिया क्योंकि उन्हें उनके माँ बाप यानि मेरे नाना नानी, दंगे फसाद होने से पहले ही किसी आभास के होते दिल्ली ले आए थे । जैसे मैंने सुना पिताजी उन दिनों अपना सब कारोबार मकान छोड़ कर अपनी पगड़ी में एक सोने की अंगूठी छुपा कर किसी अनजान आदमी के ट्रक पर बैठ कर दिल्ली आए थे।
        अपनी मां के कहे मुताबिक़ कि वो शुरू से ही एक शरीफ खानदान, मंडी भावलदीन में कपास का व्यपार करने वाले तीन भाइयों में से बड़े और हिन्दू परिवार के बड़े पुत्र को सिख बनाने की परंपरा से बने अमृतधारी सिख, ईमानदार और मेहनती इंसान होने के नाते कोई भी मेहनत वाले काम से गुरेज ना करने वाले मेरे पिता ने रोशनारा रोड़ दिल्ली की गलियों में फल फ्रूट और उनका जूस , हाथ की चलती मशीन से लगातार 25 साल, एक पैर खड़े बेचा है ।
और जब हमारे जब तक बड़े भाई बड़े हुए , सन 1975 की एमर्जेंइसी के दिनों मजबूरी वश वो रेहड़ी जिस की बदौलत उन्हें बाद में तहबाजारी का लाइसेंस मिला था, छोड़नी पड़ी।
खाली बैठते ही वो बीमार हो गए। शुगर की बिमारी ने उन्हें जकड़ लिया । और काम छूटने और बीमार रहने के डेढ़ साल में ही उनकी मृतयु हो गई ।

जब तक पिताजी के बड़े बेटे और मेरे बड़े भाई की शादी हो चुकी थी । और मेरे पिताजी की मेहनत से बचे पैसों से हमने अपना मकान भी खरीद लिया था और उस रेहड़ी के तहबाजारी के लाइसेंस की बदौलत मिली सदर बाजार की दूकान के सुख, वो खुद नहीं देख पाए ।

बस आज इतना ही।

#मेरीडायरी

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