Wednesday, 28 November 2012

नानक कहते हैं......"

मनुष्य जन्म कीमती जन्म है , जिसने दुबारा (दूसरी बार) नहीं आना | इस जीवन को बसंत ऋतू वाही लोग समझते है जिन को प्रभु नाम की सूझ-बुझ है |

-गुरु नानक | ११६८|


मनुष्य के लिए वही ऋतू सुंदर है जब यह 'नाम' सिमरता है | नाम-सिमरन के बिना कुदरत की बदलती हुई ऋतू भी इसको आत्मक सुख नहीं दे सकती | आदमी के चाल-चलन के मुताबिक़ ही उसको सुख-दुःख मिलते हैं | सिमरण करने वाले मनुष्य सुखों के भागीदार होते हैं |

-गुरु नानक | १२५४|


जिस तरह मछली तथा बबीहा पानी से सुख लेते हैं | इसी तरह मनुष्य की आत्मक खुराक प्रभु का सच्चा नाम है | प्रभु के नाम में ही मनुष्यों की और प्राप्तियों की जीत होती है |


-गुरु नानक | १२७४|


मनुष्य जीवन का कोई भरोसा नहीं , कब दुनिया से रुक्सत हो जाएँ | श्री गुरु नानक देव जी ने बहुत बढ़िया तरीके से समझाया है की मनुष्य जीवन कागजी किला है | इस की सजावट, शोभा, पल-छीन में चली जाती है | यदि छोटी-सी बूंद भी इस पर पड जाए , अर्थात मनुष्य के उपर लगा दाग उस की शक्सियत ख़त्म




 कर देता है | प्रभु का नाम ही उसे पाक पवित्र रखता है |१२७४|


मनुष के लिए सन्देश बनता है की मनुष्य विषय- विकारों से दूर रहे | जो मनुष्य विकारों से पार हो जाते हैं, उन पर परमात्मा की मेहर रहती है |

-गुरु नानक |१४१०|


मनुष के लिए सन्देश बनता है की मनुष्य विषय- विकारों से दूर रहे | जो मनुष्य विकारों से पार हो जाते हैं, उन पर परमात्मा की मेहर रहती है |





-गुरु नानक |१४१०|

प्रभु का नाम ही सच्चा तीर्थ है | मन को शुद्ध करने के लिए प्रभु का नाम जरूरी है | प्रभु के नाम के साथ मनुष्य सच्चा सुच्चा बनता है | जिस के साथ उसका जीवन सफल चलता है |



-गुरु नानक | १४१० |











हे मनुष्य ! यह खुबसुरत ऋतू, महीने आते-जाते रहते हैं | मनुष्य अहंकार को त्यागे | प्रभु के नाम वाली खुशहाल ऋतू सदा ही रहती है |


-गुरु नानक | ११६८|SGGS |




वाहिगुरू के सच्चे शब्द के साथ ही भवसागर पार किया जा सकता है | नाम-सिमरन के बिना मंजिल को नहीं पाया जा सकता है |


-गुरु नानक | १११३| SGGS|


सारी सृष्टि , धरती, आकाश, पाताल को उस प्रभु का ही आसरा है | उसके बेअंत गुणों कर के सब को कुछ न कुछ मिल रहा है | जीव- प्राणी जो पैदा किये हैं, उनका वो ही पालन हार है | मनुष्य को अपने किये कर्म उपर घमंड नहीं होना चाहिए क्योंकि सब कुछ प्रभु आप कर रहा है |


-गुरु नानक| १११२|sggs |


गुरु शब्द द्वारा ही मनुष्य उस प्रभु की प्राप्ति तक पहुँच सकता है |


-गुरु नानक| ११११|SGGS |


गुरु द्वारा ही मनुष्य को सही रास्ता मिलता है, जो व्यक्ति, साधक अंतर-आत्मा के साथ भीगा है, वो ही सच्चे नाम का मालिक है |


-गुरु नानक| ११११|SGGS|




बाहरी सुखों की तलाश से हरि नाम का सुख ही उत्तम है | श्री गुरु नानक देव जी ने कमाल के प्रतीक लेकर समझाया है | जिस तरह एक नारी पति प्रेम के लिए व्याकुल हो जाती है , उसी तरह हरि-प्रभु का भगत, उस की शरण, उस की प्राप्ति चाहता है | उस को प्रभु के सिमरन का आनन्द मिलता है |११०७|
-SGGS |



श्री गुरु नानक देव जी ऋतू, महीने के प्रतीक ले कर मनुष्य को कहा है कि झूठे मोह संसार से उपर है, उस प्रभु का नाम | उसकी मेहर से ही सब कुछ होता है | जिस मनुष्य में धीरज, होंसला, शक्ति नहीं है, उसको ही प्रभु मिलन की बक्शीश होती है |SGGS| 1109|



कण-कण में उस प्रभु का वास है |हर जीव-प्राणी के साथ मोह-प्यार के साथ रहा जाए |


-गुरु नानक| ११०९|sggs|





मनमोहक कुदरत के प्रतीक के साथ श्री गुरु नानक देव जी समझाते हैं | मनुष्य को प्रभु के साथ जोड़ने की विधि बताते हैं | प्रभु के मिलन से ह्रदय के जंगल हरे-भरे हो जाते हैं| उस के मिलने से तृष्णा पूरी हो जाती हैं | प्र्र्भु के नाम में अथाह शक्ति है | ११चारों तरफ बादल छाहे हुए हैं | बारिश हो रही है, मन संत व प्रसन्न चित है | उस प्रभु का मन में वास है |जिस तरह सुंदर बारिश का माहोल है, वैसे ही प्रभु मन में में बरसता है | उस के नाम से ठण्ड बरस रही है | मन में सकुन् उत्पन्न हो जाता है |


-गुरु नानक |११०७|




मनुष्य की जिन्दगी की सारी कारगुजारी हवा, पानी, चाँद, सूरज के साथ है | धरती के बहुत उपकार हैं | जिससे जीवन-मृत्यु जुडी हुई है | मनुष्य को पानी, हवा, धरती को नमस्कार करना चाहिए | जिसकी बदोलत हम हैं | उस प्रभु की बदोलत जीवन है, जिस को शुभ अमल, अच्छे कर्मों से गुजारा जाए |


-गुरु नानक |८७७|


दुनिया के सुंदर और प्रतीक नजारे बताते हैं की यदि मनुष्य प्रभु से जुदा रहे तो उसकी जिन्दगी संवर जाती है | मनुष्य की जिन्दगी तो सागर किनारा, कद-पेड़ , अँधेरी, तूफ़ान, (दुःख-तकलीफ) से गिर जाये| इस के लिए प्रभु को याद रखो | मानवता के काम आओ |


-गुरु नानक |८४०|



श्री गुरु नानक देव जी ने बहुत ही सुंदर कुदरती प्रतीक ले कर मनुष्य को समझाया है की जिस तरह सुहावनी बूंद ठण्ड दाल देती है, प्र्र्भु का 'नाम' भी जैसे ह्रदय में ठंडक लाता है | साजन के मिलने से सच्ची प्रीत होती है, वैसे प्रभु के दर्शन से मनुष्य को अधिआत्म्क तृप्ति होती है | मनुष्य को उस प्रभु से सच्चा लगाव होना चाहिए |११०७|



हरि-प्रभु का नाम लेने वाले महापुरुषों को स्वाद का कोई शोंक  नहीं होता | वो तो हरि के नाम में सदा रंगे रहते हैं हैं | स्वाद से ऊपर सर्वोतम स्वाद है हरि-सिमरन | मनुष्य को प्रभु के नाम में सदा रंगे रहना चाहिए | स्वादों से ऊपर उठ कर मनुष्य अच्छे कर्म करे | ८४०|


-गुरु नानक |

कद-काठी के ऊँचे व्यक्ति के पास जो गुण नहीं, वो किसी के काम नहीं आता तो वो बेकार है |समाज में उसकी कोई कदर नहीं | जिसका कोई सुख नहीं, वो व्यक्ति भी क्या है ? निचली चीज़ मीठी है तो उस में अच्छाई के गुण होते हैं | निम्रता तथा गुणों वाले इंसान में अच्छाई के सारे तत्व हैं |


-गुरु नानक | ४७०|







सिंबल का पेड़ सुर्ख लाल रंगों से भरपूर होते हुए भी खुशबु रहित होता है | जिस का कोई सुख नहीं होता | आदमी अपनर हरी के नाम को लोगों तक पहुंचाए, भलाई के काम आदि तभी मनुष्य का सच्चा जीवन है |७२८|


-गुरु नानक |




तीर्थों आदि पर जाने से अच्छा है कि गुरु के चरणों को ही सब कुछ समझ | गुरु की भक्ति से, परमात्मा की अराधना से जुड़ने वाले मनुष्य ही सच्चा मार्ग पाते हैं | भटकना मनुष्य के लिए गिरावट है | गुरु साहिब ने गुरु को पेड़ की तरह कुदरत की कर्पा की तरह बताया है | मनुष्य वहम-भ्रम में न पड़े |


गुरु नानक | १४७|


मनुष्य को भी कुदरत की प्रशंसा करनी चाहिए, उस की मर्यादा में रहे, उसका नाम जपे, जिस ने सारी सृष्टि बनायी है



-गुरु नानक | ११|




मनुष्य के अच्छे-बुरे कर्मों के हिसाब से ही सब कुछ मिलता है | आदमी जिस तरह के कर्म करता है, उसको फल भी उसी तरह का मिलता है | मनुष्य नेक कर्म करे |



-गुरु नानक |


वो परमात्मा, कण-कण में विराजमान है तथा कुदरत की सारी हस्ती उसकी कर्पा कारण है | मनुष्य को कुदरत के नियमों तथा अनुशासन से सबक लेना चाहिए | कुदरत दान करती है, दान लेती नहीं | आकाश, धरती, पानी, हवा, अग्नि आदि मनुष्य को दान करते हैं | मनुष्य भी दूसरों की मदद करे |



-गुरु नानक|


जिस परमात्मा ने सारी सृष्टि की रचना की है | सब का पालन हार है, उसको मनुष्य सदा याद रखे तथा उसके नाम में साधना लीन रहे तो ही मनुष्य का जन्म सफल हो सकता है |



-गुरु नानक |४१८|


मनुष्य को खुबसुरत प्रतीकों से समझाया गया है कि धरती जैसा धर्म हो, धर्म दानी हो, निस्वार्थ हो, बस दे ही दे, ले कुछ भी ना , सच्च जैसा धर्म हो, धरती जैसे इसकी पूजा हो, धरती जैसी सहनशक्ति हो, |
सच्चाई को बीज की तरह समझ, जिस तरह बीज धरती से पैदा क्र हरियाली देता है, मनुष्य ! तु भी ऐसा बन | इस तरह की कर्म रुपी खेती कर जो तेरा कर्म शुद्ध- सुखदायक हो |



- गुरु नानक |४२१|



जो साधक, जो मनुष्य उस प्रभु से मिलजुल जाते हैं वो धन्य पुरुष हैं | उनको किसी में कोई फर्क नजर नहीं आता | सब बराबर नजर आते हैं | मनुष्य को सच्चे रास्ते चल कर मानवता को प्यार करना चाइये |



-गुरु नानक |४७१|


बहुता करमु, लिखिआ........" (25)

बहुता करमु, लिखिआ न जाइ || वडा दाता, तिलु न तमाइ ||"


परमात्मा बहुत पदार्थ देने वाला है, उसको जरा भी लालच नहीं है |

उसकी कर्पा इतनी बड़ी है कि लिखी नहीं जा सकती |



केते मंगहि जोध अपार ||

केतिआ गणत नही वीचारु ||
केते, खपि तुटहि वेकार ||"


अनन्त शूरवीर तथा कई अन्य ऐसे, जिनकी गिनती तथा विचार नहीं हो सकता |
कई परमात्मा के दर पर मांग रहे हैं | कई जीव उस द्वारा दिये पदार्थों का उपयोग कर के विकारों में ही खप खप कर नष्ट होते हैं |



केते लै लै मुकरु पाहि || केते मूर्ख, खाही खाहि ||

अनन्त जीव परमात्मा के दर से पदार्थ प्राप्त करके जुबान से फिर जाते हैं, अर्थात कभी आभार में यह भी नहीं कहते कि सब पदार्थ प्रभु आप दे रहा है | अनेक मुर्ख पदार्थ लेकर खाये ही जाते हैं, परन्तु दातार प्रभु को याद नहीं रखते |

केतिआ, दूख भूख सद मार || एहि भि दाति तेरी, दातार ||


अनेक जीवों के भाग्य में सदा मार, क्लेश तथा भूख ही लिखी है | पर हे दातार ! प्रभु ! यह भी तेरी कर्पा ही है क्योंकि इन दुखों कष्टों के कारण ही मनुष्य को रजा में चलने कि समझ आती है |

बंदि खलासी, भाणै होइ || होरु आखि न सकै कोइ ||


माया के मोह रूप बंधन से छुटकारा परमात्मा की रज़ा में चलने से ही होता है | रज़ा के बिना कोई अन्य तरीका कोई मनुष्य नहीं बता सकता | अर्थात कोई मनुष्य नहीं बता सकता कि रज़ा में चले बिना मोह से छुटकारे का कोई अन्य साधन भी हो सकता है |



"जे को खाइकु आखणि पाइ|| ओहु जाणै, जेतीआ मुहि खाइ||" 

यदि कोई मूर्ख माया के मोह से छुटकारे का अन्य कोई साधन बताने का यत्न करे, तो वही जानता है जितनी चोटें वह इस मूर्खता के कारण अपने मुँह की खाता है अर्थात 'कुड़' (असत्य) से बचने के लिये एक ही तरीका है कि मनुष्य रज़ा में चले | पर यदि कोई मूर्ख कोई अन्य तरीका ढूँढता है तो इस 'कुड़' से बचने की बजाये अधिक दुखी होता है |

आपै जाणै, आपे देइ || आखाहि सि भि कई केइ ||


अनेक मनुष्य कहते हैं कि परमात्मा स्वयं ही जीवों कि आवश्यकताओं बखूबी जानता है तथा स्वयं ही देह-पदार्थों को देता है |


जिस नो बखसे सिफति सालाह || नानक, पातिसाही पातासाहु ||२५|| 

हे नानक ! जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी सिफत-सालाह प्रदान करता है (देता है) वह बादशाह का बादशाह बन जाता है | यह गुण-कीर्तन ही सबसे बड़ी देन है |२५|

प्रभु कितना बड़ा है--यह बात बतानी तो दूर रही, उसकी कर्पा ही इतनी बड़ी हैं कि लिखी नहीं जा सकती | संसार में जो बड़े बड़े दीखते हैं, ये सब उस प्रभु के दर से ही मांगते हैं | वह तो इतना बड़ा है कि जीवों के मांगे बिना इनकी आवश्यकताएं जानकर अपने आप ही दातें दिये जाता है |
परन्तु जीव कि मूर्खता देखो ! देह पदार्थों का उपयोग करते हुए भी दातार प्रभु को भूल कर विकारों में पड़ जाता है तथा कई दूखों , कलेशों को सहेज लेता है | यह दूख कलेश भि प्रभु की देन है क्योंकि इन दुखों कलशों के कारण मनुष्य को रजा में चलने की समझ आती है तथा यह प्रभु का गुण-कीर्तन करने लग जाता है | यह सिफत-सालाह (गुण-कीर्तन ) सब से ऊँची देन है |

-गुरू नानक, जपु जी साहिब|२५|








Wednesday, 14 November 2012

अंतु न सिफती......(24) जपु जी साहिब |


अंतु न सिफती, कहणि न अंतु ||अंतु न करणै, देणि न अंतु ||
अंतु न वेखणि, सुणणि न अंतु ||अंतु न जापै, किआ मनि मंतु ||

परमात्मा के गुणों कि कोई सीमा नहीं है, गिनने से भी गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता / 
परमात्मा कि रचना तथा देन का अंत नहीं पाया जा सकता /
देखने तथा सुनने से भी उसके गुणों का पार नहीं पाया जा सकता /
उस परमात्मा के मन में कौन-सा विचार है --इस बात का भी अंत नहीं पाया जा सकता /

"अंतु न जापे कीता आकारु || अंतु न जापे पारावारु ||"


परमात्मा ने यह जगत जो दिखाई दे रहा है, बनाया है परन्तु इस का अंत, इसका पारावार कोई दिखाई नहीं देता |


अंत कारणि केते बिललाहि || ता के अंत न पाए जाहि ||



कई मनुष्य परमात्मा का अन्त (सीमा) ढूँढने के लिए व्याकुल रहते हैं, पर उसका अन्त ढूँढा नहीं जा सकता |

एहु अंतु न जाणै कोइ ||बहुता कहीऐ बहुता होइ ||

परमात्मा के गुणों की सीमा का अंत जिसकी खोज अनंत जीव करते हैं, कोई मनुष्य नहीं पा सकता | जैसे-जैसे यह बात कहते जाएँ कि वह बड़ा है, वैसे-वैसे वह और बड़ा, और बड़ा प्रतीत होने लगता है |



"वडा साहिबु, ऊचा थाउ || ऊचे उपरि ऊचा नाउ ||
एवडु ऊचा होवै कोइ || तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ ||"

परमात्मा बड़ा है . उसका टिकाना ऊँचा है | उसका नाम भी ऊँचा है| यदि कोई और उस जितना बड़ा हो, वह ही उस ऊँचे परमात्मा को समझ सकता है कि वह कितना बड़ा है |


" जेवडु आपि जाणै आपि आपि ||
नानक, नदरी करमी दाति ||२४||"

परमात्मा आप ही जानता है कि वह स्वयं कितना बड़ा है |
हे नानक ! प्रत्येक देन कर्पा-दृष्टि रखने वाले परमात्मा की कर्पा से मिलती है |२४|


गुरू नानक, जपु जी साहिब|


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गुरू नानक, जपु जी साहिब |२४| Cont..

Sunday, 11 November 2012

"सालाही सालाहि,.....(23) जपु जी साहिब|

"सालाही सालाहि, एती सुरति न पाइआ ||


नदीया अतै वाह, पवहि समुंदि, न जाणीअहि ||


सराहने-योग्य परमात्मा के बड़प्पन के बारे में कह कह कर किसी मनुष्य में इतनी समझ प्राप्त नहीं की कि परमात्मा कितना बड़ा है, गुण-कीर्तन कने वाले मनुष्य उस परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं |

नदियाँ तथा नाले समुन्द्र में गिरते हैं, पर फिर अलग से वह पहचाने नहीं जा सकते, बीच में ही लीन हो जाते हैं तथा समुन्द्र की थाह नहीं प्राप्त कर सकते |


" समुंद साह सुलतान, गिरहा सेती मालू धनु ||
कीड़ी तुलि न होवनी, जे तिसु मानहु न वीसरहि ||"


समुन्द्रों के बादशाह तथा सुलतान, जिन के खजानों में पहाड़ों जितने धन पदार्थों के ढेर हों, प्रभु का गुण- कीर्तन करने वालों की नज़रों में एक चींटी के बराबर भी नहीं होते, यदि हे परमात्मा ! उस चींटी के मन में से तू न निकल जाए |२३|

भाव : बंदगी करने वाले का अंत नहीं पाया जा सकता, परन्तु इस का मतलब यह नहीं की परमात्मा की सिफत-सालाह करने का कोई फायदा नहीं | प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों, बादशाहों की भी परवाह नहीं करता | प्रभु का नाम के सामने अनन्त धन भी तुच्छ लगता है |



गुरु नानक, जपु जी साहिब |२३|Cont..