Wednesday, 7 November 2012

पाताला पाताल लख...(੨੨) जपु जी साहिब|


पाताला पाताल लख, आगासा आगास ||
ओड़क ओड़क भालि थके, वेद कहनि इक वाट ||

सारे वेद एक जुबान होकर कहते हैं ---"पातालों के नीचे और लाखों पाताल हैं |आकाश के उपर और लाखों आकाश हैं|अनन्त ऋषि मुनि इन कि अंतिम सीमाओं को ढूँढ-ढूंढ कर थक गये हैं ,पर ढूँढ नहीं सके |

सहस अठारह कहनि कतेबा, असुलू इकु धातु ||
लेखा होइ त लिखीऐ, लेखै होइ विणासु ||


"कुल अठारह हजार आलम हैं जिन का मूल एक परमात्मा है" 
"कतेब" (मुसलमान तथा ईसाई धर्म आदि कि चार धर्म पुस्तकें) कहती हैं |
पर सत्य तो यह है कि शब्द 'हजारों' तथा 'लाखों' भी कुदरत की गिनती में प्रयुक्त नहीं किये जा सकते, परमात्मा की कुदरत का लेखा तभी लिखा जा सकता है जब लेखा हो ही सके | यह लेखा तो हो ही नही सकता | लेखा करते करते तो लेखे का ही अन्त हो जाता है | गिनती तथा अक्षर ही समाप्त हो जाते हैं |


"नानक,  वडा आखीऐ, आप जाणै आपु ||२२||


हे नानक ! जिस परमात्मा को सारे जगत में बड़ा कहा जा रहा है, वह आप ही अपने आप को जानता है |
भाव : प्रभु कि कुदरत का ब्यान करते हुए "हजारों" या "लाखों" कि संख्या का प्रयोग नहीं किया जा सकता / इतनी अनन्त कुदरत है कि इस का लेख करते हुए गिनती कि संख्या भी समाप्त हो जाती है /



गुरु नानक, जपुजी साहिब |Cont...

No comments:

Post a Comment