बहुता करमु, लिखिआ न जाइ || वडा दाता, तिलु न तमाइ ||"
परमात्मा बहुत पदार्थ देने वाला है, उसको जरा भी लालच नहीं है |
उसकी कर्पा इतनी बड़ी है कि लिखी नहीं जा सकती |
केते मंगहि जोध अपार ||
केतिआ गणत नही वीचारु ||
केते, खपि तुटहि वेकार ||"
अनन्त शूरवीर तथा कई अन्य ऐसे, जिनकी गिनती तथा विचार नहीं हो सकता |
कई परमात्मा के दर पर मांग रहे हैं | कई जीव उस द्वारा दिये पदार्थों का उपयोग कर के विकारों में ही खप खप कर नष्ट होते हैं |
केते लै लै मुकरु पाहि || केते मूर्ख, खाही खाहि ||
अनन्त जीव परमात्मा के दर से पदार्थ प्राप्त करके जुबान से फिर जाते हैं, अर्थात कभी आभार में यह भी नहीं कहते कि सब पदार्थ प्रभु आप दे रहा है | अनेक मुर्ख पदार्थ लेकर खाये ही जाते हैं, परन्तु दातार प्रभु को याद नहीं रखते |
केतिआ, दूख भूख सद मार || एहि भि दाति तेरी, दातार ||
अनेक जीवों के भाग्य में सदा मार, क्लेश तथा भूख ही लिखी है | पर हे दातार ! प्रभु ! यह भी तेरी कर्पा ही है क्योंकि इन दुखों कष्टों के कारण ही मनुष्य को रजा में चलने कि समझ आती है |
बंदि खलासी, भाणै होइ || होरु आखि न सकै कोइ ||
माया के मोह रूप बंधन से छुटकारा परमात्मा की रज़ा में चलने से ही होता है | रज़ा के बिना कोई अन्य तरीका कोई मनुष्य नहीं बता सकता | अर्थात कोई मनुष्य नहीं बता सकता कि रज़ा में चले बिना मोह से छुटकारे का कोई अन्य साधन भी हो सकता है |
यदि कोई मूर्ख माया के मोह से छुटकारे का अन्य कोई साधन बताने का यत्न करे, तो वही जानता है जितनी चोटें वह इस मूर्खता के कारण अपने मुँह की खाता है अर्थात 'कुड़' (असत्य) से बचने के लिये एक ही तरीका है कि मनुष्य रज़ा में चले | पर यदि कोई मूर्ख कोई अन्य तरीका ढूँढता है तो इस 'कुड़' से बचने की बजाये अधिक दुखी होता है |
आपै जाणै, आपे देइ || आखाहि सि भि कई केइ ||
अनेक मनुष्य कहते हैं कि परमात्मा स्वयं ही जीवों कि आवश्यकताओं बखूबी जानता है तथा स्वयं ही देह-पदार्थों को देता है |
आपै जाणै, आपे देइ || आखाहि सि भि कई केइ ||
अनेक मनुष्य कहते हैं कि परमात्मा स्वयं ही जीवों कि आवश्यकताओं बखूबी जानता है तथा स्वयं ही देह-पदार्थों को देता है |
प्रभु कितना बड़ा है--यह बात बतानी तो दूर रही, उसकी कर्पा ही इतनी बड़ी हैं कि लिखी नहीं जा सकती | संसार में जो बड़े बड़े दीखते हैं, ये सब उस प्रभु के दर से ही मांगते हैं | वह तो इतना बड़ा है कि जीवों के मांगे बिना इनकी आवश्यकताएं जानकर अपने आप ही दातें दिये जाता है |
परन्तु जीव कि मूर्खता देखो ! देह पदार्थों का उपयोग करते हुए भी दातार प्रभु को भूल कर विकारों में पड़ जाता है तथा कई दूखों , कलेशों को सहेज लेता है | यह दूख कलेश भि प्रभु की देन है क्योंकि इन दुखों कलशों के कारण मनुष्य को रजा में चलने की समझ आती है तथा यह प्रभु का गुण-कीर्तन करने लग जाता है | यह सिफत-सालाह (गुण-कीर्तन ) सब से ऊँची देन है |
-गुरू नानक, जपु जी साहिब|२५|
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