Wednesday, 7 December 2016

*कुदरत बोलती है!"*


आसमां चकित हो सोच रहा,
धरती कैसे हरियाई !
धरती सोचे, आसमां में किसने चादर फैलाई !

पर्वत सोचे, समुन्द्र के बारे,
नजाने कितनी है 'गहराई' !
सागर कहता, पर्वत की,
इतनी सुंदर ऊंचाई !

चंदा बुझे, सूरज में किसने,
कैसे रौशनी पहनाई !
सूरज अचरज, पूर्ण चाँद की,
कैसे बिजुरी छाई !

जुगनू देख, सितारे सोचें,
धरती पे मेरे कितने हमभाई!
जुगनू सोचते सोच थक गये,
अपनों में किसने उडान लगाई!

वर्क्ष सोचें, हवा कैसे है लहराई!
हवा टहल टहल के चिन्तित,
वर्क्ष स्थिर रहकर, कितना सब्र है भाई!

भँवरा सोचे बार-बार,
कैसे गुलशन में रंग हज़ारे,
गुलशन पूछे भँवरे से,
तू कैसे मंडरा कर दिन गुज़ारे!

बंजर भूमि को जलन हो रही,
हरियाली की सुंदरता से !
कायल हो रही हरियाली,
बसंत की मंद मुक्ता से!

देख सरोवर, नदिया सोचें,
बहुत शांत है इसका पानी!
नदीया देख सरोवर की चिंता,
कैसे छलकती है महारानी!

कोयल सोचे,आखिर किसने,
मोर-पंख में रंग भरे!
मोर सोच रहा है बैठा,
कोयल में किसने मधुर कंठ भरे!

मर्ग अचंभित,हाथी की कितनी देह विशाल!
हाथी लिज्जित, देखता
जब मर्ग की चाल !

नाग सोचता,वन-राजा में,
कितना बल!
सिंह राजा को लगे,
कैसे लेता नागराज, जहर निग़ल!

पोक्ष सोचे, भीषण गर्मी,
जेष्ठ मास में क्यों है पड़ती!
जेष्ठ माह सोचता रहे हमेशा,
ठंड और बर्फ,मुझे क्यों न ढकती!

सावन-भादों सोच रहे हैं,
क्यों है बसंत मनमोहें !
फाल्गुन सोचता,
बादल कैसे पानी बरसावें !

सारी कुदरत एक-दूजे को,
देख-देख कर जल जातीं !
कुदरत के हर तत्व,
अपने को छोड़, दूसरे के गुण गातीं !

जिसने भी बनाई ये रचना,
उस कर्ता को नमस्कार,
कण-कण व्यापक,पूर्ण दक्ष,
उसकी कला की जै-जै कार!

*उसकी कला की जै-जै कार!*

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