वह परमात्मा माया रहित है, बेदाग़ है, पहुँच से बाहर तथा बेअंत है /
हे प्रभु सच्चे करतार जी ! तुम्हें सभी सिमरते हैं /
सारे जीव-जंतु तुम्हारे ही हैं, तथा तुम्हीं उनके ऊपर बक्शीश करने वाले हो /
प्रभु, आप ही मालिक हो, आप ही सेवक हो /
हे नानक ! जीव बेचारा क्या है ? //१//
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प्रभु जी ! तुम एक ही सर्व व्यापक ,सब जीवों के ह्रदय अन्दर हो /
एक दाते हैं, एक भिखारी हैं, यह सब तेरे आश्चर्यजनक कौतक हैं /
आप स्वयं ही दाता व भोगने वाले हो जी / मैं तुम्हारे बिना किसी को नहीं जानता /
हे जगत से पूर्ण निर्गुण रूप जी ! आप बेअंत और बे रूकावट हो, मैं तुम्हारे किस-किस गुण को ब्यान करूँ //२//
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जो प्रभु जी, आप को सिमरते हैं वो प्राणी जगत में सुखी रहते हैं /
वो मुक्त हो गये, जी हाँ वो बन्धनों से आजाद हो गये जिन्होंने प्रभु को याद किया , उनकी यमों की फांसी कट गयी /
जिन्होंने डर से मुक्त हरि जी का सिमरन किया है, वो, उनका सब डर दूर कर देगा /
जिन्हों ने मेरे प्रभु का नाम सिमरन किया है, वो हरि-प्रभु में समां जायेंगे /
वो धन्य हैं, उन्हें मुबारक है, जिन्होंने प्रभु का 'नाम' सिमरन किया है; दास नानक उन पर बलिहार जाता है /३/
SGGS रचना: श्री गुरु राम दास जी, राग: आसा , बाणी रहरासि साहिब (सो पुरुख...)
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हे बेअंत प्रभु ! तेरी भक्ति , जी हां तेरी भक्ति के भण्डार भरे पढ़े हैं /
हे बेअंत वाहेगुरु ! तेरे भक्त ,तेरे अनेकों भक्त, तुझे अनेकों तरीकों से सलाहते हैं /
हे प्रभु जी ! अनेक ही, तेरे अनेक अनेक प्रकार की पूजा, तप व जप करते हैं /
अनेक ही तेरे भक्त, अनेकों ही कई तरह की सिमिरत व शास्त्र पढ़ते है, व छः तरह के धर्म-कर्म करते हैं /
हे नानक ! वो भक्त, वो भक्त बहुत अच्छे हैं, जो मेरे हरि करतार को अच्छे लगते हैं /
SGGS , रचना: श्री गुरु राम दास जी, राग:आसा, बाणी: रहरासि साहिब (सो पुरुख.... भाग: ४)
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हे दुनिया को सर्जना करने वाले ! आप आदि समय की पूर्व हस्ती, सर्व श्रेष्ट हो , तुम्हारे जितना कोई नहीं /
तुम जुगों जुगों से एक ही हो; तुम हमेशा-हमेशा से उसी तरह हो, जैसे तुम सदैव स्थिर सर्जन हार हो /
तुम्हें जो कुछ अच्छा लगता है वो हो जाता है, तुम जो आप करते हो , वही होता है /
तुमने स्वयं ही सारे जगत की रचना की है, तथा आप ही इस जगत को नाश कर सकते हो /
दास नानक सर्जन हार के गुण गाता है , जो सब को जानने वाला है /
SGGS , रचना: श्री गुरु राम दास जी, राग:आसा, बाणी: रहरासि साहिब (सो पुरुख.... भाग: ५ )
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(तित॒ सरवरड़ै...)
हे मुर्ख मन ! तुम "एक" को नहीं सिमरते / हरि को भुलने से तुम्हारे गुण नाश हो जाते हैं //केद्रीय भाव//
मनुष्य का उस संसार-समुन्द्र में निवास है जहाँ जल और अग्नि उसी प्रभू ने बनाए है /जहां मोह का रूप धारण किए किचड़ में फ़स कर मेरे पैर आगे नहीं बढ़ पा रहे, मैं उनको उस के अंदर डूबते हुए देखता हूँ //१//
ना मैं जती-सती हूँ तथा ना ही इस बारे में पढ़ा है, मुर्ख व अज्ञानता वाला जन्म हुआ है / नानक उनकी शरण में रहने का ईच्छुक है, जिन्होंने तुम्हें भुलाया नहीं है //२//३//
SGGS, रचना: क्षी गुरु नानक देव जी, राग: आसा, वाणी: रहरासि साहिब (तित॒ सरवरड़ै...)
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(भई परापत .....)
हे जीव ! इस समय तुम संसार-समुन्द्र को पार करने के प्रबंध में लग जा,/ माया के स्वाद में तेरा जीवन व्यर्थ जा रहा है // केन्द्रीय भाव // १//
हे जीव ! तुझे मनुष्य देह (शरीर) मिली है / यह अब तेरी परमात्मा को मिलने की बारी (समय) है / और कार्य तेरे किसी भी काम के नहीं / सत- संगत में में मिल बैठ,तथा प्रभु का 'नाम' सिमर //१//
मैंने सिमरन,जप- तप , (सख्त कर्म )संजम, (स्वयं पर काबू ) तथा धर्म की कमाई नहीं की / सच्चे साधुओं की सेवा नहीं की / हरि प्रभु को नहीं जान पाए /
हे नानक ! ऐसे कह लो कि ये मेरे नीच कर्म हैं / मैं आप कि शरण में हूँ , मेरी लाज रखो //२// ४//
SGGS , रचना: पांचवीं पातशाही श्री गुरु अर्जन देव जी, राग आसा, वाणी: रहरासि साहिब (भई परापत .....)
####################################################33
(तूँ करता...)
तूँ सच्चा सर्जनहार मेरा मालिक है / वही होता है, जो तुझे अच्छा लगता है ; मैं वही प्राप्त करता हूँ जो तूँ देता है //केन्द्रीय भाव //
सारी रचना तेरी है, सब ने तेरा सिमरन किया है/ जिन पर तू कर्पा करता है , उन्हें 'नाम रत्न' प्राप्त होता है / गुरमुखों (गुरु का कहना मानने वाले ) ने तुझे प्राप्त कर लिया है व मनमुखों ( अपनी मन मर्जी से चलने वाले ) ने तुझे खो दिया है / तूँ आप ही किसी को अपने से ब...िछोड (दूरी) देता है व आप ही अपने से मिला लेता है //१//
तूँ दरिया जैसे विशाल है, सभी तेरे में ही हैं / तेरे बगैर कोई दूसरा नहीं है / जीव-जंतु सब तेरे ही खेल हैं / जिन के भाग्य में बिछोड़ा (दूरी) है , वो मिल के भी बिछड़ जाते हैं तथा ज जिनके कर्मों में मिलना है, उनका तेरे साथ मिलना होता है //२//
जिसको तूँ अपनी हकीकत बताता है, सिर्फ वही मनुष्य जानता है / वह सदा ही प्रभु के गुण वर्णन करता है / जिस ने हरि का सिमरन किया है, उसको सुख मिला है / वह सहज ही हरि नाम में समां जाता है //३//
तूँ आप ही रचना कर्ता है तथा तेरे करने से ही सब कुछ होता है / तेरे बिना और कोई दूसरा नहीं है / तूँ रचना रच-रच कर देखता व उसकी जानकारी रखता है / हे दास नानक ! उस प्रभु का भेद गुरु द्वारा ही प्रकट होता है //४//२//
SGGS रचना: चोथी पातशाही श्री गुरु राम दास जी, राग: आसा. बाणी: रहरासि साहिब (तूँ करता...)
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हे प्रभु सच्चे करतार जी ! तुम्हें सभी सिमरते हैं /
सारे जीव-जंतु तुम्हारे ही हैं, तथा तुम्हीं उनके ऊपर बक्शीश करने वाले हो /
प्रभु, आप ही मालिक हो, आप ही सेवक हो /
हे नानक ! जीव बेचारा क्या है ? //१//
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प्रभु जी ! तुम एक ही सर्व व्यापक ,सब जीवों के ह्रदय अन्दर हो /
एक दाते हैं, एक भिखारी हैं, यह सब तेरे आश्चर्यजनक कौतक हैं /
आप स्वयं ही दाता व भोगने वाले हो जी / मैं तुम्हारे बिना किसी को नहीं जानता /
हे जगत से पूर्ण निर्गुण रूप जी ! आप बेअंत और बे रूकावट हो, मैं तुम्हारे किस-किस गुण को ब्यान करूँ //२//
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जो प्रभु जी, आप को सिमरते हैं वो प्राणी जगत में सुखी रहते हैं /
वो मुक्त हो गये, जी हाँ वो बन्धनों से आजाद हो गये जिन्होंने प्रभु को याद किया , उनकी यमों की फांसी कट गयी /
जिन्होंने डर से मुक्त हरि जी का सिमरन किया है, वो, उनका सब डर दूर कर देगा /
जिन्हों ने मेरे प्रभु का नाम सिमरन किया है, वो हरि-प्रभु में समां जायेंगे /
वो धन्य हैं, उन्हें मुबारक है, जिन्होंने प्रभु का 'नाम' सिमरन किया है; दास नानक उन पर बलिहार जाता है /३/
SGGS रचना: श्री गुरु राम दास जी, राग: आसा , बाणी रहरासि साहिब (सो पुरुख...)
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हे बेअंत प्रभु ! तेरी भक्ति , जी हां तेरी भक्ति के भण्डार भरे पढ़े हैं /
हे बेअंत वाहेगुरु ! तेरे भक्त ,तेरे अनेकों भक्त, तुझे अनेकों तरीकों से सलाहते हैं /
हे प्रभु जी ! अनेक ही, तेरे अनेक अनेक प्रकार की पूजा, तप व जप करते हैं /
अनेक ही तेरे भक्त, अनेकों ही कई तरह की सिमिरत व शास्त्र पढ़ते है, व छः तरह के धर्म-कर्म करते हैं /
हे नानक ! वो भक्त, वो भक्त बहुत अच्छे हैं, जो मेरे हरि करतार को अच्छे लगते हैं /
SGGS , रचना: श्री गुरु राम दास जी, राग:आसा, बाणी: रहरासि साहिब (सो पुरुख.... भाग: ४)
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हे दुनिया को सर्जना करने वाले ! आप आदि समय की पूर्व हस्ती, सर्व श्रेष्ट हो , तुम्हारे जितना कोई नहीं /
तुम जुगों जुगों से एक ही हो; तुम हमेशा-हमेशा से उसी तरह हो, जैसे तुम सदैव स्थिर सर्जन हार हो /
तुम्हें जो कुछ अच्छा लगता है वो हो जाता है, तुम जो आप करते हो , वही होता है /
तुमने स्वयं ही सारे जगत की रचना की है, तथा आप ही इस जगत को नाश कर सकते हो /
दास नानक सर्जन हार के गुण गाता है , जो सब को जानने वाला है /
SGGS , रचना: श्री गुरु राम दास जी, राग:आसा, बाणी: रहरासि साहिब (सो पुरुख.... भाग: ५ )
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(तित॒ सरवरड़ै...)
हे मुर्ख मन ! तुम "एक" को नहीं सिमरते / हरि को भुलने से तुम्हारे गुण नाश हो जाते हैं //केद्रीय भाव//
मनुष्य का उस संसार-समुन्द्र में निवास है जहाँ जल और अग्नि उसी प्रभू ने बनाए है /जहां मोह का रूप धारण किए किचड़ में फ़स कर मेरे पैर आगे नहीं बढ़ पा रहे, मैं उनको उस के अंदर डूबते हुए देखता हूँ //१//
ना मैं जती-सती हूँ तथा ना ही इस बारे में पढ़ा है, मुर्ख व अज्ञानता वाला जन्म हुआ है / नानक उनकी शरण में रहने का ईच्छुक है, जिन्होंने तुम्हें भुलाया नहीं है //२//३//
SGGS, रचना: क्षी गुरु नानक देव जी, राग: आसा, वाणी: रहरासि साहिब (तित॒ सरवरड़ै...)
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(भई परापत .....)
हे जीव ! इस समय तुम संसार-समुन्द्र को पार करने के प्रबंध में लग जा,/ माया के स्वाद में तेरा जीवन व्यर्थ जा रहा है // केन्द्रीय भाव // १//
हे जीव ! तुझे मनुष्य देह (शरीर) मिली है / यह अब तेरी परमात्मा को मिलने की बारी (समय) है / और कार्य तेरे किसी भी काम के नहीं / सत- संगत में में मिल बैठ,तथा प्रभु का 'नाम' सिमर //१//
मैंने सिमरन,जप- तप , (सख्त कर्म )संजम, (स्वयं पर काबू ) तथा धर्म की कमाई नहीं की / सच्चे साधुओं की सेवा नहीं की / हरि प्रभु को नहीं जान पाए /
हे नानक ! ऐसे कह लो कि ये मेरे नीच कर्म हैं / मैं आप कि शरण में हूँ , मेरी लाज रखो //२// ४//
SGGS , रचना: पांचवीं पातशाही श्री गुरु अर्जन देव जी, राग आसा, वाणी: रहरासि साहिब (भई परापत .....)
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(तूँ करता...)
तूँ सच्चा सर्जनहार मेरा मालिक है / वही होता है, जो तुझे अच्छा लगता है ; मैं वही प्राप्त करता हूँ जो तूँ देता है //केन्द्रीय भाव //
सारी रचना तेरी है, सब ने तेरा सिमरन किया है/ जिन पर तू कर्पा करता है , उन्हें 'नाम रत्न' प्राप्त होता है / गुरमुखों (गुरु का कहना मानने वाले ) ने तुझे प्राप्त कर लिया है व मनमुखों ( अपनी मन मर्जी से चलने वाले ) ने तुझे खो दिया है / तूँ आप ही किसी को अपने से ब...िछोड (दूरी) देता है व आप ही अपने से मिला लेता है //१//
तूँ दरिया जैसे विशाल है, सभी तेरे में ही हैं / तेरे बगैर कोई दूसरा नहीं है / जीव-जंतु सब तेरे ही खेल हैं / जिन के भाग्य में बिछोड़ा (दूरी) है , वो मिल के भी बिछड़ जाते हैं तथा ज जिनके कर्मों में मिलना है, उनका तेरे साथ मिलना होता है //२//
जिसको तूँ अपनी हकीकत बताता है, सिर्फ वही मनुष्य जानता है / वह सदा ही प्रभु के गुण वर्णन करता है / जिस ने हरि का सिमरन किया है, उसको सुख मिला है / वह सहज ही हरि नाम में समां जाता है //३//
तूँ आप ही रचना कर्ता है तथा तेरे करने से ही सब कुछ होता है / तेरे बिना और कोई दूसरा नहीं है / तूँ रचना रच-रच कर देखता व उसकी जानकारी रखता है / हे दास नानक ! उस प्रभु का भेद गुरु द्वारा ही प्रकट होता है //४//२//
SGGS रचना: चोथी पातशाही श्री गुरु राम दास जी, राग: आसा. बाणी: रहरासि साहिब (तूँ करता...)
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