Wednesday, 31 October 2012

तीरथु तपु दइआ दतु दानु......[21] जपु जी साहिब|

"तीरथु तपु दइआ दतु दानु || जे को पावै तिल का मानू ||

तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया करनी, दिये हुये दान-- इन कर्मों के बदले यदि किसी मनुष्य को कोई प्रशंसा मिलती भी जाए तो थोड़ी मात्र ही मिलती है |

सुणिया, मंनिआ, मनि कीता भाऊ || अंतरगति तीरथि, मलि नाऊ ||

जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम से ध्यान जोड़ा है, यानि मन 'नाम' में खर्च किया है तथा जिस ने अपने मन में परमात्मा का प्रेम उत्पन्न किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने आंतरिक तीर्थ में मल-मल कर स्नान कर किया है| अर्थात उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल पुरुख में जुड़ कर अच्छी तरह अपने मन कि मैल उतार ली है |

सभि गुण तेरे, मै नाही कोइ || विणु गुण कीते, भगति न कोइ ||
सुअसत आथि बाणी बरमाऊ || सटी सुहाणु सदा मनि चाऊ ||


हे परमात्मा ! यदि तू आप अपने गुण मुझ में पैदा न करे तो मुझ से तेरी भक्ति नहीं हो सकती / मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है की मैं तेरे गुण गा सकूँ, यह तेरा बड़प्पन है / 

हे निरंकार ! तेरी सदा जय हो ! तू आप ही माया, है, तू आप ही बाणी है, तू आप ही बरह्मा है / =अर्थात इस सृष्टि को बनाने वाला माया बाणी , या ब्रह्मा तुझ से भिन्न अस्तित्व वाले नहीं हैं जो लोगों ने मान रखे हैं / तू सदा स्थिरहै, सुंदर है, तेरे मन में प्रफुलता है तू ही जगत की रचना करने वाला है, तुझे ही पता है की तुने कब जगत बनाया /

कवणु सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवणु वारु ||
कवणि सि रुती, माहू कवणु, जितु होआ आकारु ||



कौन-सा वह समय तथा वक्त था, कौन-सी तिथि थी, कौन-सा दिन था, कौन-सी वह ऋतु थी तथा कौन-सा महीना था जब यह संसार बना ?
वेल  न पाईआ पंडती, जि होवै लेखु पुराणु ||
वखतु न पाइओ कादीया, जि लिखनि लेखु कुराणु || 


कब यह संसार बना ? 
उस समय का पंडितों को भी ज्ञान नहीं हुआ, नहीं तो इस विषय पर भी एक पुराण लिखा होता /
उस समय काजिओं को भी खबर नहीं लग सकी , नहीं तो वह वे लेख लिख देते, जैसे उन्होंने आयतें एकत्र करके कुरआन लिख था /-


"थिति वारु न जोगी जाणै, रुति माहु न कोई ||

जा करता सिरठी कउ साजैं, आपै जाणै सोई ||"


जब संसार बना था तब कौन-सी तिथि थी ? कौन-सा दिन था ?यह बात कोई योगी नहीं जानता /कोई 

मनुष्य नहीं बता सकता कि 

तब कौन-सी ऋतु थी, कौन-सा महीना था /


जो सर्जन कर्ता इस जगत को पैदा कर्ता है, वह आप ही जानता है कि जगत की रचना कब हुई 

किव करि आखा किव सालाही, किउ वरनी किव जाणा ||

नानक, आखणि सभु को आखै, इक दू इकु सिआणा ||


मैं किस तरह बताऊँ, परमात्मा क बड़प्पन ? कैसे करूँ परमात्मा की सिफत सालाह (गुण -कीर्तन) ?

किस तरह वर्णन करूँ ? कैसे समझ सकूँ ?



हे नानक ! प्रत्येक जीव अपने आप को दूसरों से अक्लमंद समझ कर परमात्मा का बड़प्पन बताने क यत्न करत है परन्तु बता नहीं सकता /-

वडा साहिबु वडी नाई, कीता जा क होवै ||
नानक, जे को आपौ जाणै, अगै गइआ न  सोहै ||२१|
|

परमात्मा सबसे बड़ा है,उस क बड़प्पन ऊँचा है /जो कुछ जगत में हो रहा है, सब उसी क किया हो रहा है /
हे नानक ! यदि कोइ मनुष्य अपनी बुद्दि के बल पर प्रभु के बड़प्पन का अंत पाने क यत्न करे , वह परमात्मा के दर पर जाकर आदर प्राप्त नहीं करता /२१/




..Cont....
जपु जी साहिब |२१|


जिस मनुष्य ने 'नाम' से चित्त जोड़ा है, जिसको सिमरन की लग्न लग गईं है, जिस के मन में प्रभू का

प्यार पैदा हुआ है, उसकी आत्मा शुद्ध तथा पवित्र हो जाती है / पर यह भक्ति उस परमात्मा की कर्पा से 

मिलाती है /
बंदगी का यह परिणाम नहीं हो सकता कि मनुष्य यह बता सके कि संसार कब बना | न पंडित , न काजी, न योगी कोई भी यह भेद नहीं पा सका | परमात्मा बेअंत बड़ा है | उसका बडप्पन भी अनन्त है, उसकी रचना भी अनन्त है |

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