पुराने समय से यह बात चली आ रही है कि किसी का मकान अचानक आग से जल जाता था अथवा कुछ अधिक नुकसान हो जात था, तो आसपड़ोस से दो तरह की सहानुभति भरे शब्द सुनने को मिलते थे।
एक तो नकारत्मक यह कि "आगे भविष्य में इस बेचारे का अपना और बीवी- बच्चों का क्या होगा ?" इसकी तो जिंदगी भर की पूंजी समाप्त हो गई"।
दूसरा सकारात्मक वाक्य यह कि "कोई बात नहीं जान बच गई, शुक्र है , मकान-दुकान का क्या है फिर से बन जाएगा।"
'एक की सहानुभूति निराशा वादी है, दूसरे की होंसला अफ़जाई आशावादी।'
एक तो यह कि अब यदि मकान मालिक की वो धन संपति उसके बड़े बूढ़े व पुश्तों की कमाई हुई थी तो वो तो हो जाएगगी समाप्त।
दूसरा यह कि, यदि उसने अपनी धन संपदा अपने हुनर व ज्ञान से बनाई होगी, तो वो फिर से सब कुछ बना लेगा। क्योंकि उसका ज्ञान व प्रशिक्षण ही उसकी असल पूंजी है, जो वो कभी भी किसी भी नुकसान, विपदा, या पलायन के बाद कहीं से कर्ज़ लेकर बिना किसी रिस्क के अपने ज्ञान के बलबूते फिर से बना सकता है, जिसका न कोई घाटा हैं न कोई लूटपाट।
किसी का भारी नुकसान की वजय से 'सब कुछ' खत्म हो जाता है, नहीं खत्म होता तो वो है उसका ज्ञान। इस ज्ञान के बलबूते वो अपना 'सब कुछ' फिर से बना लेगा।
#Seriously
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