हम चाहें किसी भी धर्म की विचारधारा रखते हों पर अपनी धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ाने समझाने के लिए जहां व्याख्याकार (लैक्चरार) चाहिए थे वहां पुजारियों पर डिपेंडस रहने लगे।
जो इन ग्रन्थों को आपनी रोज़ी-रोटी का ज़रिया बना रूप-रंग, आकार, देवी देवता, मूर्ति के जैसे दर्शन कराने लगे।
जो देह अर्थात शरीर मानकर मौसम व दिन-रात के हिसाब से ठंडी-गर्मी, भूख-प्यास, आराम व श्रंगार की व्यवस्था का अहसास कराने लगे,
और सफल भी रहे।
जिसका एक कारण तो वो भक्त लोग हैं जिन्होंने अपनी भारी भरकम पढ़ाई की डिग्रीयों के साथ साथ अपनी इस मातृ भाषा को सीखना जरूरी नहीं समझा जिसमें ये लिखे हुए हैं कि इस ग्रन्थ की भाषा का स्वंय पढ़-समझ सकते ।
धार्मिक पुस्तक या पवित्र माने जाने वाला ग्रन्थ, या कोई भी अध्यात्मक ज्ञान देने वाली पुस्तक केवल दर्शन सिर झुकाने, उन्हें सुनाने वाली काया नहीं है।
यह तो आचरण में उतारने की श्रेष्ठ कुंजी (Key) है, जिसे खोलने, पढ़ने, समझने, अध्यन करने व इस मुताबिक मार्ग पर चलने में इसकी उपयोगिता है, जो यह हमारे आचरण में उतरे ।
#Seriously
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