Thursday, 8 July 2021

निन्यानबे_का_फेर

#निन्यानबे_का_फेर..

अभी पिछले दिनों ही एक लेख लिखा था कि ज्यों ज्यों व्यक्ति की आमदनी बढ़ती है, वो खर्च या दान-पुण्य के मामले में थोड़ा कंजूस हो जाता है। उसे वो बचत जमा करने या डबल करने की आदत-सी हो जाती है।

सच कहूं, तो मुझे यह धारणा को ख़ुद पर आजमाने का मौका मिला या समझ लें कि परीक्षा हुई तो ख़ुद भी न संभल पाया। 

कहानी कुछ यूँ है कि पिछले कुछ सालों से मैंने अपना  व्यापार काफी हद तक अपने बेटे को सपुर्द कर दिया था। कोई विशेष सलाह की जरूरत या कोई मुश्किल इत्यादि आने पर ही वह मुझसे विचार विमर्श कर लेता था।

हुआ यूं कि  बेटे ने कोरोना जैसी विपदा पर लगे लॉक डाउन को देखते अपनी पूंजी की  कुछ नकद रकम घर पर रखने का फैंसला किया कि भगवान न करे फिर कभी ऐसी  इमरजेंसी आई तो घर खर्च के काम आएगी। 

यह विचार था तो जोखिम पर मैंने बेटे का दिल न दुखे या बुरा न मान जाए, बात मान कर उस रक़म को संभालने का जिम्मा ख़ुद पर ले लिया।

तो रकम जो नकद में थी, राउंड फ़िगर में जाते जाते 99 के फेर में पँहुच गई। पहले क्या होता था कि तो अपने स्वभाव की  मजबुरी थी कि  थोड़ी बहुत बचत  दाये बायें किसी जरूरत मंद को अपने तरीके से दे  देता था, वो देनदारी न के बराबर होने लगी, वो इसलिये कि घर पर नकद रखने से उस 99  को 100 करने के चक्कर में व राउंड फिगर तक करने की लालसा जाग चुकी थी।

पर जब वो रकम 100 होने लगी तो जो स्वभाव पहले था वो लगभग खत्म हो चुका था। अब मेरा लक्ष्य 150 और फिर 200 तक करने का हो गया।

 मन में उलझन तो तब हुई कि मेरा पहले वाला धर्यवान मन जिसके पास  जेब में सौ दो सौ रुपये भी हों तो उसकी प्यासी आँखें दाये-बाएं किसी जरूरतमंद आदमी को ढूंढने को सर्च करती फिरती थी, वो अब अगल -बगल जरूरत मन्द दिख भी जाए तो उन्हें इग्नोर करने की कोशिश करती  कि मुझसे कोई कुछ मांग न ले क्योंकि इस 99 के फेर में तब तक मेरा लक्ष्य उस राउंड फ़िगर में बाद वाली दो जीरो और बढ़ा चुका था। 

इससे पहले कि मेरा मन एक जीरो और करने के फेर में डोलता, झट से मैंने उन नकद रकम की गड्डी को अपने बेटे के सपुर्द कर दी कि इसे बैंक में डाल या कहीं भी इन्वेस्ट कर दे, अब मेरे बस का नहीं ऐसे 99 के फेर में पड़ कर अपना धर्म और भृष्ट करने का।

#Seriously
Gurmeet Singh Gambhir II

No comments:

Post a Comment