#निन्यानबे_का_फेर..
मैंने अभी पिछले दिनों ही एक लेख लिखा था कि ज्यों ज्यों व्यक्ति की आमदनी बढ़ती है, वो खर्च या दान-पुण्य के मामले में थोड़ा संकोची हो जाता है, उसे वो आमदन जमा करने या डबल करने की लत लग जाती है।
आज सच कहूं, तो मुझे यह विचार इस आदत को ख़ुद पर लगी हुई महसूस होते देख याद आया।
पिछले कुछ सालों से मैंने अपना कमीशन बेसिस का व्यापार काफी हद तक बच्चे पर छोड़ दिया है। कोई विशेष सलाह या समस्या आने पर ही दखल देता हूँ।
हुआ यूं कि मेरे बेटे ने अपने आइडिया से कुछ रकम बिना इन्वेस्ट वाली घर पर रखने का फैंसला किया कि इमरजेंसी में काम आएगी। यह विचार था तो रिस्की पर मैंने बच्चों का दिल न दुखे या बुरा न मान जाए,सो बात मान कर यह जिम्मा ख़ुद पर ले लिया।
तो रकम जो नकद में थी, दस बीस करते करते 95 पर पहुंच गई तो अपनी जो आदत थी थोड़ी बहुत बचत दाये बायें किसी जरूरी मंद को दे देता था, वो छू मंत्र होती दिखी। वो इसलिये कि मुझे उस 95 को 100 करने की उतावली जाग गई थी।
पर जब वो 120 हुए तो एक तस्सली जो होती है, वो नहीं आई। अब मेरा टारगेट 150 और फिर 200 तक आ गया। मन में झनझनाहट तो तब हुई कि मेरा सन्तोषी मन जिसकी जेब में सौ दो सौ रुपये भी हों तो मेरी आँखें अगल बगल किसी मज़बूर आदमी को ढूंढने को झांकती फिरती थी, आज बगलें झांकने लगी कि मुझसे कोई कुछ मांग न ले क्योंकि अब मेरा लक्ष्य 500 था।
इससे पहले कि मेरा मन डोलता रहे मैं उस रकम को अपने बेटे को रूटीन में डालने को कहने जा रहा हूँ।
#Seriously
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