Wednesday, 29 November 2017

मीडिया की यारी

ੳਹ ਪੂਰਵਲੇ ਜਨਮ ਦੀ ਰੂਹੌ,
ਮੇਰੇ ਮਿਤਰੋ,ਮੇਰੇ ਪਿਆਰੇੳ,
ਨਾ ਅਸੀ ਪ੍ਰਤੱਖ ਮਿਲੇ,
ਨਾ ਨੈਨੌ-ਨੈਨ ਹੋਏ,
ਨਾ ਆਵਾਜ ਸੂਣੀ,
ਨਾ ਛੁਹ ਦਾ ਅਹਿਸਾਸ,
ਫਿਰ ਭੀ,
ਅਸੀਂ ਦਿਲੋ ਜਾਨ ਤੌਂ ਇਕ ਹਾਂ ।
ਇਹ ਕਿੰਝ ਹੋਇਆ ? ਕਿਉਂ ਹੋਇਆ ?
ਇਹ ਰੂਹਾਂ ਹਨ,
ਕਿਤਨੇ ਜਨਮ ਦੀ ਵਿਛੜੀ ।
ਰਿਸ਼ਤੇ ਨਾਤੇ ਨਾਲੌਂ ਉਪਰ ।
ਸੱਗੇ-ਸੰਬਦੀਂਆਂ ਨਾਲੋ ਪਰੇ ।
ਧਰਮ-ਅਧਰਮ ਤੌਂ ਛੂੱਟ ।
ਅੜੋਸ-ਪੜੌਸ ਤੌਂ ਨਜਦੀਕੀ ।

ਸਿਰਫ ਪਿਆਰ ਤੇ ਪਿਆਰ ਦੀਆਂ ਭੂੱਖੀਆਂ ।
ਨਮਸਤਕ ਹਾਂ,
ਸ਼ਕਰਗੂਜਾਰ ਹਾਂ ।
ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਛੜੀ ਹੋਈ ਰੂਆਂ ਦਾ ।

(ਮੇਰਾ ਤੇ ਸਿਰਫ ਮੇਰਾ ਤਜੂੱਰਬਾ ਹੈ ਕਿ ਫੇਸਬੂਕ ਤੇ ਡੂੰਗੀ ਮਿੱਤਰਤਾ ਦੇ ਹਾਮੀ ਆਖਿਰ ਜੱਦ ਆਪਣੀ  ਮਿਲਨ ਦੀ ਤੜਫ ਸਦਕਾ ਵੈਬ ਕੈਮ ,ਮੋਬਾਇਲ ਜਾਂ ਪਰਤੱਖ ਰੂਬਰੂ ਹੂੰਦੇ ਹਨ ਤਾਂ ਥੋੜੇ ਸੱਮੇ ਬਾਦ ਹੀ ਉਨ੍ਹਾਂ ਦੀ ਤੜਫ ਲੱਗਭੱਗ ਸਮਾਪਤ ਜਹੀ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਹੈ ਕਿਊਂ ਕਿ.... ਪਿਆਸ,ਭੂੱਖ,ਊਡੀਕ,ਐਕਸਾਇਟਮੇੰਟ,ਸ੍ਰਪ੍ਰਾਇਜ ਵਿੱਚ ਜੋ ਮਜਾ ਹੈ, ੳਹ ਤ੍ਰਿਪਤੀ ਵਿੱਚ ਨਹੀ, ਸੌ ਸਾਨੂੰ ਆਪਣੀ ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਨੂੰ ਕਾਇਮ ਰਖਣਾ ਚਾਹਿਦਾ ਹੈ, ਜੱਦ ਤੀਕਣ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ੳਹ ਮੇਲ ਆਪ ਨ ਮਿਲਾਵੇ, ਸਹਿਜ ਸੁਭਾਵ !)

#ਗੰਭੀਰ" (30/11/2011)

Monday, 27 November 2017

अपने बच्चों में जीवित रहते हैं हम

सभी पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों को अपने बच्चे प्यारे लगते हैं। मानव समाज में भी मां, बाप, बहन, भाई, पति, पत्नी, यार, दोस्त, प्रेमी, प्रेमिका, गुरु, चेला, देश, धर्म आदि कई रिश्ते हैं, लेकिन इन सबमें अपने बच्चों से हमारा संबंध सबसे घनिष्ठ और प्यारा है। इसकी बराबरी कोई नहीं कर सकता। अपने बच्चे के साथ एक थाली में खाते हुए किसी मां को देखिए। मां चाहती है कि जो कौर सब से स्वादिष्ट, पौष्टिक और भरपूर है वह उसके बच्चे के मुंह में पहुंच जाए। जब तक बच्चे का पेट नहीं भर जाता या उसका मन नहीं भर जाता, तब तक मां के अपने गले से कोई निवाला नहीं उतरता।

किसी पक्षी को देखिए, उसकी मादा खुद चाहे भूखी-प्यासी हो, मीलों दूर से भोजन का एक कौर अपनी चोंच में दबा कर लाती है लेकिन उसे अपने बच्चे के गले में उड़ेल कर परम संतुष्ट हो जाती है। एक भूखी बिल्ली के सामने आप मछली का एक टुकड़ा डालिए। वह लपक कर आएगी। लेकिन अगर आसपास उस बिल्ली का 3-4 महीने का एक बच्चा हो तो वह भी भाग कर आएगा और मछली के उस टुकड़े पर झपटेगा। बिल्ली पीछे हट जाएगी। त्यागमूर्ति बनकर बैठ जाएगी और बच्चे को निश्चिंत होकर मछली खाने देगी। थोड़ी देर रुक कर आप एक और टुकड़ा फेंकिए। फिर वही होगा। आप रुक-रुक कर 10 बार वही करिए। हर बार बच्चा बिल्ली के मुंह से भोजन छीनकर खा जाएगा। बच्चे को न शर्म आएगी न अपनी मां पर तरस।

भले ही आपका बच्चा नालायक हो, वह आपको अपने भाई या बहन के बच्चे से कई गुना प्यारा होगा। क्यों न हो, आखिर आपकी संतान आपके अपने शरीर से उपजी है। वह आपके शरीर का ही टुकड़ा है, वह आपका सच्चा उत्तराधिकारी है। आप किसी स्त्री से कहकर तो देखिए कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा कुछ नहीं लगता, कि उससे तुम्हारा रिश्ता झूठा है, केवल शरीर का रिश्ता है और शरीर तो नश्वर है, क्षणभंगुर है, केवल वस्त्र मात्र है, असल चीज तो आत्मा है और तुम्हारा बच्चा अपनी आत्मा को कहीं पीछे से लाया हुआ है, उसकी आत्मा के संस्कार भी पीछे से आए हुए हैं, उसके कर्मों का लेखा-जोखा भी कहीं पीछे से आया हुआ है, उसका स्वभाव और भाग्य भी कहीं पीछे से आया हुआ है और कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा कुछ नहीं लगता, फिर उस बच्चे से मोह क्यों? उसके प्रति अनुराग क्यों? शायद यह केवल मोह-माया का जाल है। पर आपकी दलीलें ममता के आगे धरी रह जाएंगी।

चलो मान लिया कि हम मनुष्यों और अन्य पशु-पक्षियों की आंखों पर मोह-माया की पट्टी बंधी है, पर एक नेत्रहीन जामुन के पेड़ को क्या कहेंगे। कल्पना करें कि एक पक्षी जामुन का एक पका हुआ फल तोड़ लेता है। वह उस फल को चूसते हुए उड़ जाता है और दूर ले-जाकर एक उर्वर घाटी में गुठली को गिरा देता है। मिट्टी में मिलकर जामुन का वह अंडा फूट जाता है। उसमें से निकलकर पेड़ का नन्हा-सा बच्चा कोंपलें निकाल लेता है और चारों ओर हाथ-पैर मारने लगता है और धीरे-धीरे पनपने लगता है। जैसी ठोस-पिलपिली धरती उसे मिलती है, जैसी गरम-सर्द हवाएं उसे छूती हैं, जितनी तेज धूप-छांव होती है और जिस तरह की आंधियां चलती हैं, उसी हिसाब से और अपने स्वभाव के अनुसार, वह नन्हा पौधा अपनी जड़ें फैलाता है, टहनियां निकालता है, पत्ते धारण करता है, अपने तने को मजबूत बनाता है, अपनी खाल को कड़ा करता है और बड़ा होता है। करते-करते वह जवान हो जाता है और स्वभाव से चाहने लगता है कि उसकी भी संतान हो।

लेकिन अपनी पिछली पीढ़ियों के अनुभवों के आधार पर पेड़ ‘जानता’ है कि उसका बीज यदि उसकी अपनी जड़ों के पास ही गिरेगा तो पनप नहीं पाएगा। उसे मालूम है कि वह बेचारा खुद कहीं दूर जाकर अपने बीज को रोप नहीं सकता। इसलिए उसे इंतजार रहता है कि कोई पक्षी या बंदर उसके बीज को कहीं दूर ले जाकर बो दे। लेकिन यह एक दुर्लभ संयोग है। इसलिए वह एक नहीं, दो नहीं, हजारों बीज अपने शरीर से उगाता है। हरे-हरे उन बीजों को वह बड़े यत्न से अपनी टहनियों पर, हरे-हरे पत्तों में छुपा-छुपाकर पालता है। बीजों के पक जाने पर, उन्हें सुंदर और आकर्षक रूप देता है। उनके चारों ओर स्वादिष्ट हलवे की एक परत लेप देता है। जब उसके ये बीज सज-धज कर तैयार हो जाते हैं तो वह उनके डंठलों को कमजोर कर देता है ताकि पक्षी, बंदर या मनुष्य उन्हें आसानी से तोड़ सकें। जब-जब कोई प्राणी जामुन के उस पेड़ की एक जमुनिया तोड़कर ले-जाने लगता है तब-तब पेड़ के मन में जरूर कुछ-कुछ वैसे ही लड्डू फूटते होंगे जैसे एक मां के मन में अपनी जवान बेटी को ससुराल भेजते समय फूटते हैं।वास्तव में हमारे बच्चे हम ही हैं। इस दुनिया में उनसे अधिक कोई दूसरा ‘हम’ नहीं हो सकता। हमारे बच्चे हमारा ही नया स्वरूप हैं। युगों से चली आ रही हमारे जीवन की श्रृंखला की वे अगली कड़ी हैं। सभी प्राणी इस परम सत्य को परम धर्म मानकर, स्वभाव से उसके अनुसार ही आचरण करते हैं। हम मानव सभ्यता के इतिहास में यही देखते हैं। संतान मोह की वजह से न जाने कितनी बड़ी-बड़ी घटनाएं घटीं। पुत्र की चाह में लोगों ने क्या-क्या नहीं किए और फिर संतान को बेहतर भविष्य देने के लिए भी लोगों ने न जाने कितने उपक्रम किए। हमारे महाकाव्य ऐसे प्रसंगों से भरे पड़े हैं। यह दिलचस्प है कि हम संतान मोह में पड़े व्यक्ति को कोसते हैं, उसे खलनायक की तरह देखते हैं। इसका कोई मतलब नहीं है। यह एक प्राकृतिक सत्य है।

बलदेव राज दाव

202

Suggestions to the new government of India
Suggestion No.202.
                            We did a mistake in 1955-56

                      We had appointed Sharda Committee to enact laws on marriage, adoption, succession, guardianship and maintenance and they gave us four Acts.  We had added word ' Hindu' when in fact there is nothing concerning ' Hindus' in those Acts.  As far as ceremonies of marriage are concerned, those could be having some traditions amongst Hindus and this portion of those enactments could have been open for other religions in India.  As far concepts of one marriage, concept of divorce, concept of judicial separation, concept of maintained, concept of succession etc. etc. are common to all  and had this been done then there could have been no objections from other quarters.  Even the Muslims are having one wife system and only some rich have more than one wives and there are traditions amongst Hindus too that they had been having more than one wives, but when this act came into being, they accepted this system and had got no objections.  Even the divorce system had been accepted by Hindus.  And there, even today we can change the names of all those four Acts and the word 'India or Hindustan' could be prefixed and these Acts shall work as Common Civil Code.
                                       Dalip Singh Wasan, Advocate,
                    101-C Vikas Colony, Patiala-Punjab-India-147001

Saturday, 25 November 2017

भीड़ और हमारी भूमिका

भीड़, और हमारी भूमिका;

                जब हम कहते हैं कि हमारी आबादी ऊंचे ग्राफ पर है, तो हमें यह मानना होगा कि उस समय का संजय इंदिरा का फैमिली प्लानिंग का अभियान ठीक था। जब आबादी बढ़ती है, हमें यह भी मान लेना चाहिए कि अधिकतर लोग स्वास्थ्य में कमजोर रहेंगे, उचित शिक्षा नहीं प्राप्त  कर पाएंगे।  उचित प्रशिक्षण, उचित रोजगार नहीं मिल पायेगा तो गरीब और अधिक पिछड़े वर्ग में रहेंगे।

हम यह सब समझते हैं, लेकिन आज तक किए गए सभी प्रयासों के बावजूद, हम अभी भी ऊंचा स्तर व प्रगति हासिल नहीं कर पा रहे हैं और हम अभी भी गरीब और पिछड़े देशों में गिने जाते हैं। और इसका भी तथ्य है कि राजनीतिक और धर्मों के लीडर लोग अपने स्वयं के हित की प्राप्ति के लिए इस भीड़ का उपयोग कर रहे हैं।

यथा कथित हमारा ध्यान  इस बात पर जाता हैं कि राजनीति में और धर्म के लोग इस भीड़ के उपयोग के असल मकसद को चूक गए हैं। यदि हम ध्यान दें कि लोग राजनीतिज्ञों और धर्मों के लोगों को सुनने के लिए भीड़ की तरह इकट्ठा होते हैं और जब इस भीड़ की भूमिका वाले लोग वापिस लौटते हैं, तो वे नहीं जानते कि उन्होंने क्या सुना है और वे क्या स्वीकार करेंगे, वे क्या अस्वीकार करेंगे । अधिकतर मामलों में, इस भीड़ में गड़बड़ी भी होती है। कुछ लोग भी मारे भी जाते हैं। कभी-कभी ये भीड़ हिंसक हो जाती हैं और सरकारी संपत्ति को बुरी तरह से भी नष्ट कर देती हैं। 

लोगों को पता भी है कि वे समय बर्बाद कर रहे है। लेकिन फिर भी आज भी भीड़ का इकट्ठा होना जारी है। राजनीति और धर्मों में लोगों को कोई लाभ नहीं मिल रहे हैं। लोगों को कुछ भी हासिल नहीं हो पा रहा  है।

इसलिए, अब समय आ गया है जब लोगों को इस भीड़ में शामिल नहीं होना चाहिए। उन्हें पता होना चाहिए कि धार्मिक पाठ-पूजा, समागम, अनुष्ठान घर पर भी किए जा सकते हैं और वह भी सब अकेले ही क्योंकि धार्मिक अनुष्ठान एकाग्रता की मांग करते हैं और भीड़ इन साधनाओं को परेशान करती हैं।  हमें कुछ प्राप्त नहीं होता है ।

इन राजनेताओं को भी हमें कुछ नहीं कहना है, लेकिन केवल वे ही हमारे वोट पाने के लिए अपनी लोकप्रियता स्थापित कर रहे हैं और हमारे पास उनके लिए कोई प्यार और स्नेह नहीं है। हमें राजनेताओं और धार्मिक लोगों के आसपास इकट्ठा होना बंद कर देना चाहिए क्योंकि उनके पास अपने व्यक्तिगत उद्देश्य हैं। वे हमें एक बेकार भीड़ समझते हैं और अपने फायदे के लिए हमें इस्तेमाल करते हैं।

सभी जुलूस, रैली आंदोलन, हमला और जैसे ही प्रयोजित होते हैं वे हमें पुचकार कर बुलाते है। तब हमें महसूस होना चाहिये कि हम एक भीड़ हैं । क्योंकि हमारे लिए इन एकत्र्ताओं कोई लाभ नहीं होता है। और जब हमारे परिवार के एक मेम्बर भी इस भीड़ में शामिल होने बाहर को जाता है  तब तक हम परेशान रहते हैं जब तक वह सुरक्षित रूप से घर नहीं लौटता।
                

ਰੂਹਾਨੀਅਤ ਧਾਰਮਿਕ ਭਾਵਨਾ

ਰੂਹਾਨਿਅਤ ਤੋ ਸਖਣੀ ਪਦਾਰਥਵਾਦੀ ਤੇ ਤਰਕਵਾਦੀ ਸਿੱਖ ਧਾਰਮਿਕ ਭਾਵਨਾ।   
     ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੇ ਆਗਮਨ ਸਮੇ ਹਿੰਦੋਸਤਾਨ ਵਿੱਚ ਮੁੱਖ ਰੂਪ ਵਿਚ ਹਿੰਦੂ ਅਤੇ ਇਸਲਾਮ ਧਰਮ ਹੀ ਪ੍ਰਚਲਤ ਸਨ ਪਰ ਧਰਮ ਸਿਰਫ ਕਰਮਕਾਂਡ ਅਤੇ ਰੀਤੀ ਰਿਵਾਜਾ ਦਾ ਨਾਮ ਹੀ ਸੀ। ਧਰਮ ਵਿਚੋਂ ਰੂਹਾਨੀਅਤ ਵਾਲਾ ਪੱਖ ਜਾ ਤਾ ਨਾ ਦੇ ਬਰਾਬਰ ਸੀ ਜਾ ਬਿਲਕੁਲ ਹੀ ਗਾਇਬ ਸੀ। ਗੁਰੂ ਨਾਨਕ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਨੇ ਇਕ ਅਜਿਹਾ ਨਿਆਰਾ ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਪ੍ਰਗਟ ਕੀਤਾ ਜਿਸ ਵਿਚ ਇਨਸਾਨ ਦਾ ਜੀਵਨ ਗੁਣਾ ਭਰਭੂਰ ਬਣ ਕੇ ਤੇ ਅਵਗੁਣ ਰਹਿਤ ਹੋ ਕੇ ਇਕ ਆਦਰਸ਼ਕ ਜੀਵਨ ਬਣ ਸਕੇ ਅਤੇ ਉਸ ਦੀ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਨਾਲ ਮਿਲਾਪ ਦੀ ਤੀਬਰ ਤਾਂਘ ਦੀ ਰੂਹਾਨੀ ਅਵਸਥਾ ਪੈਦਾ ਕਰਨ ਦੀ ਗੱਲ ਪਰਪੱਕ ਕੀਤੀ।
ਜਦ ਤੱਕ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਸ਼ਰੀਰਕ ਜਾਮੇ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਸਨ ਉਦੋ ਤਕ ਆਮ ਸਿੱਖ ਦਇਆ, ਧੀਰਜ, ਖਿਮਾਂ, ਸੰਤੋਖ, ਨਿਮਰਤਾ, ਨਿਰਵੈਰਤਾ ਵਾਲੇ ਰਬੀ ਗੁਣਾ ਭਰਭੂਰ ਅਤੇ ਕਰਮਕਾਂਡ ਤੋ ਰਹਿਤ ਰੂਹਾਨੀ ਜੀਵਨ ਬਤੀਤ ਕਰਦੇ ਰਹੇ ਸਨ, ਸਿੱਖੀ ਕਿਰਦਾਰ ਦਾ ਆਲਮ ਇਹ ਸੀ ਕਿ ਜੇ ਕਿਸੇ ਸਿੱਖ ਦੀ ਗਵਾਹੀ ਕਚਿਹਰੀ ਵਿਚ ਹੋ ਜਾਂਦੀ ਸੀ ਤਾਂ ਉਸ ਨੂੰ ਸੱਚ ਮਨ ਕੇ ਫੈਸਲਾ ਸੁਣਾ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਸੀ। ਪਰ ਅਠਾਰਵੀ ਸਦੀ ਦੇ ਮੱਧ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਸਿੱਖ ਵਾਸਤੇ ਸਮਾਂ ਬਦਲਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਿਆ ਤੇ ਉਸ ਦੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚੋਂ ਸਿਧਾਂਤ ਦੀ ਪਕੜ ਢਿੱਲੀ ਪੈਣੀ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਈ ਜਿਸ ਕਾਰਨ ਉਹ ਵੀ ਪਦਾਰਥਵਾਦ ਦੀ ਜਕੜ ਵਿਚ ਫਸਨਾ ਸ਼ੁਰੂ ਹੋ ਗਿਆ।

ਇਸ ਦੌਰਾਨ ਸਿੱਖ ਨੇ ਪਦਾਰਥਵਾਦੀ ਦੁਨਿਆਵੀ ਤਰੱਕੀ ਤਾਂ ਕਰ ਲਈ ਪਰ ਰੂਹਾਨੀਅਤ ਵਾਲਾ ਪੱਖ ਕਮਜੋਰ ਹੁੰਦਾ ਗਿਆ ਅਤੇ ਪਹਿਲਾਂ ਜੋ ਸਿੱਖ ਦੀ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾਂ ਅੱਗੇ ਅਰਦਾਸ ਚੰਗੇ ਗੁਣਾ ਦੇ ਧਾਰਨੀ ਹੋਣ ਦੀ, ਕੌਮ ਦੀ ਚੜਦੀ ਕਲਾ ਹੋਣ ਦੀ, ਭਾਣਾ ਮੰਨਣ ਦੀ, ਸਰਬਤ ਦੇ ਭਲੇ ਹੋਣ ਦੀ ਹੁੰਦੀ ਸੀ ਉਹ ਅਰਦਾਸ ਹੁਣ ਸੁੰਗੜ ਕੇ ਮਾਇਕ ਪਦਾਰਥਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਦੀ, ਕਾਰੋਬਾਰ ਵਿਚ ਵਾਧੇ ਦੀ, ਸੁੱਖਾਂ ਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤੀ ਦੀ, ਧੀਆਂ ਦੀ ਬਜਾਏ ਮੁੰਡੇ ਪੈਦਾ ਹੋਣ ਦੀ, ਵਿਰੋਧੀ ਸਜਨ ਦੇ ਨੁਕਸਾਨ ਹੋਣ ਦੀ ਆਦਿ ਵਿਚ ਤਬਦੀਲ ਹੋ ਕੇ ਰਹਿ ਗਈ।
     ਸਮਾਂ ਬੀਤਨ ਦੇ ਨਾਲ ਪੱਛਮ ਦੇ ਗਿਆਨ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦੀ ਆਮਦ, ਤੇ ਉਸ ਦਾ ਪ੍ਰਭਾਵ ਕਬੂਲਨ ਕਾਰਨ ਸਿੱਖ ਭਾਵਨਾ ਤਰਕਵਾਦੀ ਬਣਦੀ ਗਈ ਅਤੇ ਉਸ ਨੇ ਆਪਣੇ ਧਰਮ, ਭਾਵ ਆਪਣੇ ਇਤਿਹਾਸ, ਆਪਣੀ ਪਰੰਪਰਾ, ਆਪਣੇ ਗੁਰੂ ਅਸਥਾਨ ਇਥੋਂ ਤੱਕ ਕਿ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨ ਦਵਾਰਾ ਬਖਸ਼ੀ ਸਭ ਤੋਂ ਕੀਮਤੀ ਵਸਤੂ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਜੀ ਦੀ ਗੁਰਬਾਣੀ ਉਪਰ ਵੀ ਤਰਕ ਕਰ ਕੇ ਉਸ ਵਿਚ ਊਣਤਾਈਆ ਲਭਣੀਆਂ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤੀਆਂ।  ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਵਾਸਤੇ ਇਤਿਹਾਸ, ਪਰੰਪਰਾ ਆਦਿ ਦੇ ਬਹੁਤੇ ਮਾਇਨੇ ਨਹੀ ਹੁੰਦੇ ਅਤੇ ਹਰ ਉਹ ਗੱਲ ਜੋ ਉਸ ਦੇ ਤਰਕ ਦੇ ਅਧਾਰ ਤੇ ਠੀਕ ਨਹੀ ਬੈਠਦੀ ਉਸ ਨੂੰ ਰੱਦ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਪਰ ਤਰਕ ਤਾਂ ਸਿਰਫ ਉਸ ਵਕਤ ਤੱਕ ਹੀ ਠੀਕ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਜੱਦ ਤਕ ਉਸ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਕੋਈ ਹੋਰ ਤਰਕ ਸਾਹਮਣੇ ਨਹੀ ਆਇਆ ਹੁੰਦਾ। ਪਰ ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸ੍ਰੇਸ਼ਟ ਸਮਝਣ ਦੇ ਭਰਮ ਵਿਚ ਹੋਣ ਕਾਰਨ ਇਸ ਗੱਲ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਵਿੱਚ ਅਸਮਰੱਥ ਹੁੰਦੀ ਹੈ।
      ਰੂਹਾਨੀਅਤ ਤੋਂ ਸਖਣੀ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਇਹ ਤਰਕ ਕਰਨ ਲਗ ਪਈ ਕਿ ਪੰਜ ਸਾਲ ਦੇ ਬੱਚੇ ਵਿਚ ਕਿਨੀ ਕੁ ਕਾਬਲੀਅਤ ਹੋਵੇਗੀ ਜੋ ਉਸ ਨੂੰ ਗੁਰਤਾਗਦੀ ਪ੍ਰਾਪਤ ਹੋ ਗਈ ? ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਆਪਣੇ ਪੰਜੇ ਨਾਲ ਪਹਾੜ ਕਿਵੇਂ ਰੋਕ ਸਕਦੇ ਹਨ?  "ਅਕਾਲ" ਤਾਂ ਸਿਰਫ ਪ੍ਰਮਾਤਮਾ ਹੈ ਫੇਰ ਕੋਈ ਤੱਖਤ "ਅਕਾਲ ਤੱਖਤ" ਕਿਵੇਂ ਹੋ ਸਕਦਾ ਹੈ ? ਭੱਟ ਸਾਹਿਬਾਨਾ ਦੀ ਬਾਣੀ ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬ ਗੁਰੂ ਗ੍ਰੰਥ ਸਾਹਿਬ ਵਿਚ ਕਿਵੇਂ ਦਰਜ ਕਰ ਸਕਦੇ ਹਨ ? ਇਸ ਤਰ੍ਹਾ ਦੇ ਬੇਅੰਤ ਤਰਕ ਕੀਤੇ ਜਾਣ ਲਗ ਪਏ। ਦੁਨਿਆਵੀ ਪਧਰ ਉਪਰ ਵਿਚਰਨ ਕਰਕੇ ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਨੇ ਗੁਰੂ ਕੌਤਕਾਂ ਉਪਰ ਦੁਨਿਆਵੀ ਹਿਸਾਬ ਕਿਤਾਬ ਲਗਾ ਕੇ ਉਨ੍ਹਾ ਨੂੰ ਦੁਨਿਆਵੀ ਸਮਝ ਅਨੁਸਾਰ ਦੇਖਣਾ ਪਰਖਣਾ ਸ਼ੁਰੂ ਕਰ ਦਿੱਤਾ ਪਰ ਗੁਰੂ ਤਾਂ ਅਗੰਮ ਅਗੋਚਰ ਹੈ, ਮਨੁੱਖੀ ਇੰਦਰੀਆਂ ਦੀ ਪਹੁੰਚ ਤੋਂ ਪਰ੍ਹੇ, ਫੇਰ ਗੁਰੂ ਕੌਤਕ ਸਾਡੀ ਆਮ ਜਹੀ ਤਰਕਵਾਦੀ ਸਮਝ ਵਿਚ ਕਿਵੇਂ ਆ ਸਕਦੇ ਹਨ ?
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨਾਂ ਦਵਾਰਾ ਸਿੱਖ ਸਿਧਾਂਤਾਂ ਨੂੰ ਆਪਣੇ ਪੂਰੇ ਜੀਵਨ ਵਿਚ ਅਮਲ ਵਿਚ ਲਿਆ ਕੇ ਇਤਿਹਾਸ ਦੇ ਰੂਪ ਵਿਚ ਦਰਜ ਕਰਨ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਤਰਕ ਦੀ ਗੁੰਜਾਇਸ਼ ਤਾਂ ਬਚਦੀ ਹੀ ਨਹੀ ਪਰ ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਦਾ ਗੁਰੂ ਪ੍ਰਤੀ ਅਧੂਰਾ ਪਿਆਰ ਅਤੇ ਅਧੂਰਾ ਸਮਰਪਣ ਹੋਣ ਕਰਕੇ ਹੀ ਇਸ ਤਰ੍ਹਾ ਦੇ ਸ਼ੰਕੇ ਉਤਪਨ ਹੁੰਦੇ ਹਨ। ਇਸ ਦਾ ਦੂਜਾ ਪੱਖ ਵਿਚਾਰਦੇ ਹੋਏ ਇਹ ਵੀ ਸਮਝਣਾ ਜਰੂਰੀ ਹੈ ਕਿ ਪਰੰਪਰਾਵਾਦੀ ਡੇਰਿਆਂ ਅਤੇ ਟਕਸਾਲਾਂ ਵਿਚ ਬਹੁਤ ਸਾਰੇ ਅਜਿਹੇ ਰੀਤੀ ਰਿਵਾਜ ਅਤੇ ਕਰਮਕਾਂਡ ਵੱਸ ਗਏ ਜੋ ਸਿੱਖ ਸਿਧਾਂਤ ਨਾਲ ਮੇਲ ਨਹੀ ਖਾਂਦੇ, ਬਹੁਤਾ ਸੋਚ ਵਿਚਾਰ ਕੀਤੇ ਬਿਨਾ ਹੀ ਪੁਰਾਤਨ ਮਰਿਆਦਾ ਦੇ ਨਾਮ ਥੱਲੇ ਇਨ੍ਹਾ ਕਰਮਕਾਂਡਾਂ ਅਤੇ ਰੀਤੀ ਰਿਵਾਜਾ ਨੂੰ ਕੀਤਾ ਜਾਣ ਲੱਗ ਪਿਆ। ਇਨ੍ਹਾ ਰਿਵਾਜਾਂ ਬਾਰੇ ਪੁਛਣ ਤੇ ਕੋਈ ਤਸੱਲੀਬਖਸ਼ ਜਵਾਬ ਦੇਣ ਦੀ ਬਜਾਏ ਪੁਰਾਤਨ ਮਰਿਆਦਾ ਦਾ ਹਵਾਲਾ ਦਿਤਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ। ਸਿੱਖ ਧਰਮ ਹੋਰ ਅਨਮੱਤ ਦੇ ਧਰਮਾਂ ਤੋਂ ਬਹੁਤ ਹੀ ਨਿਆਰਾ ਹੈ, ਇਥੇ ਨਾ ਤਾਂ ਕਰਮਕਾਂਡਾਂ ਅਤੇ ਫੋਕਟ ਰੀਤੀ ਰਿਵਾਜਾ ਦੀ ਜਗ੍ਹਾ ਹੈ ਅਤੇ ਨਾ ਹੀ ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਦੀ, ਇਨ੍ਹਾ ਦੋਨਾ ਵਿਚ ਸੰਤੁਲਨ ਦੀ ਅਵਸਥਾ ਹੀ ਸਹੀ ਸਿੱਖ ਭਾਵਨਾ ਦੀ ਤਰਜਮਾਨੀ ਕਰਦੀ ਹੈ। ਇਸ ਅਵਸਥਾ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਅਤੇ ਅਮਲ ਵਿਚ ਲਿਆਉਣ ਲਈ ਬਹੁਤੀ ਮਸ਼ਕੱਤ ਨਹੀ ਕਰਨੀ ਪੈਂਦੀ ਗੁਰੂ ਕਾਲ ਦਾ ਇਤਿਹਾਸਕ ਸਮਾਂ ਇਸ ਨੂੰ ਸਮਝਣ ਵਿਚ ਸਹਾਈ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਆਮ ਤੌਰ ਤੇ ਸਿੱਖਾਂ ਦਾ ਪੜਿਆ ਲਿਖਿਆ ਸ਼ਹਿਰੀ ਤਬਕਾ ਤਰਕਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਦੀ ਅਤੇ ਘੱਟ ਪੜਿਆ ਲਿਖਿਆ ਪੇਂਡੂ ਤਬਕਾ ਰੂੜੀਵਾਦੀ ਭਾਵਨਾ ਦੀ ਤਰਜਮਾਨੀ ਕਰਦਾ ਹੈ। ਬਹੁਤੇ ਪੜ੍ਹੇ ਲਿਖੇ ਸਿੱਖ, ਪੱਛਮ ਦੇ ਗਿਆਨ ਪ੍ਰਬੰਧ ਦੇ ਅਸਰ ਹੇਠ ਅਤੇ ਘੱਟ ਪੜ੍ਹੇ ਲਿਖੇ ਸਿੱਖ, ਰੂੜੀਵਾਦੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਦੇ ਅਸਰ ਹੇਠ ਆ ਗਏ, ਪਰ ਸਿੱਖੀ ਦੀ ਮੂਲ ਭਾਵਨਾ ਵਾਲੇ ਰੂਹਾਨੀ ਜੀਵਨ ਬਤੀਤ ਕਰਨ ਵਾਲੇ ਸਿੱਖ ਬਹੁਤ ਹੀ ਘੱਟ ਰਹਿ ਗਏ। ਇਸ ਨਿਘਾਰ ਦਾ ਸੱਭ ਤੋਂ ਵੱਡਾ ਕਾਰਨ ਸਹੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਦੀ ਘਾਟ ਹੈ ਅਤੇ ਸਹੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਦੀ ਘਾਟ ਇਕਸਾਰਤਾ ਦੀ ਅਣਹੋਂਦ ਕਾਰਨ ਹੈ। ਰੂੜੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਚਾਰਕ ਆਪਣੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਨੂੰ ਸਹੀ ਮਣਦੇ ਹੋਏ ਆਪਣਾ ਰੂੜੀਵਾਦੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਅਤੇ ਤਰਕਵਾਦੀ ਪ੍ਰਚਾਰਕ ਆਪਣੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਨੂੰ ਸਹੀ ਮਣਦੇ ਹੋਏ ਆਪਣਾ ਤਰਕਵਾਦੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਕਰਦੇ ਹਨ। ਜਿਹੜੇ ਸਿੱਖ ਜਿਸ ਵੀ ਪ੍ਰਚਾਰ ਦਾ ਅਸਰ ਕਬੂਲਦੇ ਹਨ ਉਸੇ ਹੀ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ ਦੇ ਬਣ ਜਾਂਦੇ ਹਨ ਅਤੇ ਰੂਹਾਨੀ ਪੱਖ ਦੋਨਾ ਵਿਚੋਂ ਹੀ ਮਨਫੀ ਹੁੰਦਾ ਹੈ।
ਗੁਰੂ ਸਾਹਿਬਾਨਾਂ ਦਵਾਰਾ ਪਰਪੱਕ ਕਰਾਈ ਗਈ ਸਿੱਖ ਵਿਚਾਰਧਾਰਾ  ਬਹੁਤ ਹੀ ਸਰਲ ਅਤੇ ਨਿਰਮਲ ਹੈ। ਸਿੱਖ ਨੂੰ ਬਿਨਾ ਕਿਸੇ ਕਰਮਕਾਂਡ ਅਤੇ ਰੀਤੀ ਰਿਵਾਜ ਨਿਭਾਇਆਂ ਸਿਰਫ ਆਪਣੇ ਅੰਦਰ ਦੇ ਕੂੜ ( ਮਾੜੀ ਸੋਚ, ਅਵਗੁਣ ) ਨੂੰ ਕੱਡ ਕੇ, ਮਾਇਆ/ਤ੍ਰਿਸ਼ਨਾ ਤੋਂ ਨਿਰਲੇਪ ਰਹਿ ਕੇ ਰੱਬੀ ਗੁਣਾ ਦਾ ਧਾਰਨੀ ਹੁੰਦਿਆਂ ਰੋਜਾਨਾ ਦਾ ਜੀਵਨ ਸੱਚ ਦੇ ਅਧਾਰ ਤੇ ਬਤੀਤ ਕਰਦੇ ਹੋਇਆਂ, ਮਾਨਵਤਾ ਦੀ ਭਲਾਈ ਵਾਸਤੇ ਉਦਮੀ ਹੋਣਾ ਹੈ। ਕਿਨਾ ਸਰਲ ਹੈ, ਬੱਸ ਆਪਣੇ ਆਪ ਨੂੰ ਸੁਧਾਰਨਾ ਹੈ। ਜੇ ਅਜਿਹਾ ਆਦਰਸ਼ਕ ਅਤੇ ਰੂਹਾਨੀਅਤ ਭਰਭੂਰ ਜੀਵਨ ਸਾਰੇ ਹੀ ਇਨਸਾਨ ਬਤੀਤ ਕਰਨ ਲਗ ਪੈਣ ਤਾਂ ਦੁਨੀਆ ਵਿੱਚੋ ਝਗੜੇ/ਕਲੇਸ਼ ਹਮੇਸ਼ਾ ਵਾਸਤੇ ਖਤਮ ਹੋ ਜਾਣ।
ਆਸ ਹੈ ਕਿ ਐਨੀ ਸਰਲ ਜਹੀ ਗੱਲ ਸਾਡੀ ਸਮਝ ਆ ਜਾਵੇ ਅਤੇ ਇਸ ਅਨੁਸਾਰ ਅਸੀ ਆਪਣਾ ਜੀਵਨ ਬਤੀਤ ਕਰ ਕੇ ਪੂਰੀ ਦੁਨੀਆ ਵਿਚ ਇਕ ਮਿਸਾਲ ਕਾਇਮ ਕਰ ਸਕੀਏ।
ਹਰਮੀਤ ਸਿੰਘ ਖਾਲਸਾ
ਡਬਰਾ  ( ਗਵਾਲੀਅਰ )

Tuesday, 21 November 2017

धार्मिक लोग

यह जीवन क्या है?
  भारत के लोग धार्मिक लोगों के रूप में जाना जाता है

                   हम, भारत के लोग धार्मिक लोगों के रूप में जाना जाता है जब हम धार्मिक स्थानों पर भरोसा करते हैं, जब हम धार्मिक पुस्तकों की गणना करते हैं, जब हम पौराणिक कथाओं की गणना करते हैं, जब हम धार्मिक किताबों के पढ़ने और पढ़ने की गिनती करते हैं, जब हम धार्मिक दिनों की गिनती करते हैं, जब हम धार्मिक समारोहों की गणना करते हैं, जब हम धार्मिक समारोहों को देखते हैं, जब हम धार्मिक उत्सव , जब हम धार्मिक समारोहों के लिए संस्कार, रीति-रिवाज़ और लोगों का संग्रह करते हैं, तो हम श्रेष्ठ होते हैं और कोई देश हमारे साथ बराबर नहीं होता है हमें इस तथ्य पर भी गर्व है कि हमने दुनिया की ईश्वर की अवधारणा और अच्छे आचरण का आविष्कार किया और स्थापित किया है और हम दुनिया में भगवान, नरक, स्वर्ग और प्रार्थना व्यवस्था की व्यवस्था के मुहैया करा रहे हैं। लेकिन हमारे साथ इन सभी नींवों के बावजूद, हम अपने लोगों को सही रास्ते पर नहीं ला सके और हम में से अधिकांश पाप, अपराध और दुराचार कर रहे हैं और जब हम पुलिस स्टेशनों, न्यायालयों और जेलों में लोगों की गिनती करते हैं, तो हमारा अभिमान नीचे और हमें यह स्वीकार करना होगा कि इन सभी धार्मिक धर्मों के बावजूद, हम भी लोगों को सही रास्ते पर नहीं ला सकते थे। और यहां पर धार्मिक व्यवसाय, व्यवसाय, कॉलिंग और रोजगार बन गए हैं और बड़ी संख्या में लोग इस रेखा से जुड़ गए हैं और अच्छी कमाई कर रहे हैं और कोई भी यह पुष्टि नहीं कर सकता कि इस रेखा में ये लोग वास्तव में धर्मों की सेवा कर रहे हैं या हमारे धर्मों की मूल बातें नष्ट कर रहे हैं। राज्य धर्मनिरपेक्षता के कारण अलग रह रहा है, लेकिन समय आ गया है जब राज्य में आना होगा और लोगों को सही रास्ते पर रखना होगा, क्योंकि वे स्थापित किए गए विभिन्न धर्म हमारे राष्ट्रवाद के लिए खतरा हैं।
                  दलीप सिंह वासन, एडवोकेट,
                   101-सी विकास कॉलोनी, पटियाला-पंजाब-भारत -147001

Saturday, 18 November 2017

हमारे 15 लाख


       मोदी सरकार का चुनाव से पहले का एक चर्चित वादा था। जो बाद में एक जुमला करार दिया गया। कि सरकार को, सफेद पोश लोगों से जो भी ब्लैक मनी बरामद होगी, उसे जनता के एकाउंट में 15-15 लाख के हिसाब से जमा करवा दिया जाएगा।

इस झूठे चुनावी वादे का असर भी हुआ। जनता ने बीजेपी की नई पीढ़ी, मोदी एंड को. को लगभग तीन तिहाई मतो से जीता कर एक मजबूत सरकार बनाने का मौका दिया। इसके इलावा ख़ुद मोदी जी के कहने से ही जन धन योजना के तहत लाखों की संख्या मेंअपने मिनिमम बैलेंस वाले एकाउंट भी खुलवा लिये।

कुल मिलाकर हम सभी ने वर्तमान सरकार के पक्ष में मतदान किया क्योंकि उन्होंने हमें एक वादा किया था कि वे पूरे 'ब्लैक मनी' का संग्रह करेंगे और गरीबों में उसी को वितरित करेंगे ताकि उन्हें अपना गरीब परिवार प्रशासन को चलाने के साथ उनके पास अलग से उचित धन हो। अन्यथा, इस पार्टी के पास  उनके साथ कोई लोकप्रिय इतिहास नहीं है।

वर्तमान मोदी सरकार, जैसा लगता है, धन के वितरण के इस वादे को पूरा नहीं कर सके। आज तक उनके इस सरकार को बनाये तीन साल से ऊपर हो गये है ।

मेरा सुझाव है कि उन्हें चाइये, तुरंत ही, अपने वादे मुताबिक चार लोगों के प्रत्येक परिवार की मासिक आय का आकलन करने के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की स्थापना करनी चाहिए। उन्हें इस प्रस्ताव को संसद में आने वाले पहले ही सत्र में  रखना चाहिए। राज्य सभा और लोक सभा के संयुक्त व संसद के विशेष सत्र को इस मामले पर चर्चा करें। उन तरीकों का पता लगाने की कोशिश करें। जिसके फल स्वरूप मिले  संसद के निर्णय को लागू किया जा सकता है।

आम लोगों, सोशल, टीवी , प्रिंट मीडिया व पत्रकारों और संपादकों को भी अपने विचार  देने का अधिकार देना चाहिए। यहां तक ​​कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र के भी विशेषज्ञ आगे आयें और सरकसर इस समस्या का उचित समाधान खोजने में मदद करें।

मेरा सुझाव है कि मोदी सरकार के एक नए शगूफे या जुमले कि भारत की गरीबी 2022 तक हटा दी जाएगी, के वादे  की भी असलियत में सहमती बन सकती है। जिसके तहत , यदि जिस किसी एक घर में उचित आय आती है, उसका अब तक किसी  के उचित खर्च का भी आकलन करने के लिए कुछ नहीं किया गया है । यही कारण है कि गरीब लोगों की संख्या बढ़ रही है और हम गरीबों को कम करने की बात करते है।

गरीबी दूर के लिए अभी एक विशेष चर्चा और संसद का एक विशेष सत्र बुलाना और मिल बैठ कोई ठोस निर्णय लेना एकमात्र तरीका है।
                

झिझक

#मेरी_डायरी_का_एक_पन्ना;

मुझे याद है, बचपन से ही मैं पढ़ाई में फिसड्डी था। मेरी मैथमैटिक्स सब्जेक्ट की गिणती इतनी कमज़ोर थी कि दो से दस तक के पहाड़े भी, कक्षा पाँच तक  ही याद हो पाये। मीडियम इनकम क्लास के होने के कारण या हो सकता हो, उन दिनों में इंग्लिश मीडियम के सरकारी स्कूल बहुत कम होना एक वजय हो। छठी कक्षा से ही एबीसीडी का ज्ञान शुरू हुआ। कुल मिलाकर मान लेता हूँ कि मैं शुरू से ही पढ़ाई में वीक था।

टीचर/मैडम नाम की छवि से बहुत डर लगता था। कोशिश यही रहती कि क्लास में बैठे,उनकी नज़र मुझ पर न ही पड़े। जिसका मुख्य डर व कारण यह था कि वो मुझसे कोई सवाल न पूछ लें। पर एक बात पर मुझे ख़ुद पर हैरानगी अब होती है कि उन दिनों मेरा स्कूल का होम वर्क सदा कंपलीट होता था। जिसका कारण था, मेरे अंदर बैठा 'याद व परीक्षाका डर' जो आज भी है।

उन स्कूल के दिनों से अब तक, मेरा होमवर्क से लेकर पूजा-पाठ व लेखन के अभ्यास तक, अकेले में होता आया है । पूरा कॉन्फिडेंस होने के बावजूद आज भी किसी और या पब्लिक के सामने यानि फ्रण्ट पर मेरा विश्वास न जाने क्यों डगमगा जाता है।

पहली बात, क्योंकि ऊपर लिखे मेरे अवगुण  मेरे लिए कोई समस्या नहीं है। आपसे इस दुविधा के हल करने के लिये भी नहीं बोल रहा हूँ। वो तो अब इस फिफ्टी प्लस की उम्र के आते-आते अपने हैबिट में आ गये हैं।
दूसरी बात, न तो अब मैंने न कोई भविष्य में समाज सुधार के लिए लीडर बनने की इच्छा रह गई है। न ही कोई धर्म प्रचार के लिए लैक्चरार होने का जज्बा। जो कहूं कि स्टेज पर चढ़ माइक पकड़ कर बोलने का नशा ही कुछ और होता है, जो लिखने-पढ़ने में नहीं। हां, अपने उस जवानी के समय थी।बोलने वाली यह इच्छा बाइ मिस्टेक, जोश में आकर जरूर पाल ली थी।

उन दिनों के समाज और धर्म के ठेकेदारों ने मेरी बेबाक़ी को समझ लिया था। पंजाबी ज़ुबान में में कहूँ कि 'ताड़ लिया था।', मैं उनके पर्दे पहले जो  वैसे ही खोल देता था। उन्होंने माइक पकड़ने वाला मौका ही नहीं दिया।

अब जो सोशल मीडिया का 'अवतार', मुझ जैसे कई छुपे टेलेंट को उभारने की कोशिश कर ही रहा है। तो मेरी भी जैसे छह साल पहले लॉटरी निकली कि जो कुछ जो मन में था या कागज़ के पन्नों पर उड़ेल रखा था, को पब्लिकली लिख पाया।
अब मैं अपने असल मुद्दे पर आता हूँ। ठीक है, कि मैंने वैसे तो शुरू में  अपनी व्यक्तिगत जानकारी में अपनी झिझक और फ्रंट लाइन की घबराहट वाली अपने में बहुत या कम जो कमी है उस विषय की बात कही । वो तो अब जबकि सोशल मीडिया के आविष्कार ने सब बदल कर रख दिया है।

पर अब भी मुझे न जाने क्यों अपने गुरु-दरबार जाता हूं तो देखता हूँ कि हर कोई दर्शन के अभिलाषी भीड़ होने पर भी कोशिश यही करते हैं। कि गुरु ग्रन्थ साहिब जी के दर्शन सामने से हों। जबकि मेरी शुरू से आदत रही है कि जब भी गुरद्वारा साहिब जाता हूँ , तो संगत कम हो तो ठीक, नहीं तो दरबार हाल में एंटर होते ही साइड से ही अपना मस्तक जमीन पर टिका लेता हूँ। जहां कहीं भी जगह मिले, बैठ, एक दो घन्टे, जो कुछ भी उस समय प्रोग्राम चल रहा हो, को सुनने-समझने की कोशिश करता हूँ।

मतलब वही बचपन वाली हैबिट कि मैं तो अपने टीचर (गुरु) को देखता, सुनता रहूँ।  वो मुझे न देख पाए। जिसका कारण, फिर वही, कि मैं बचपन से ही अपने को फिसड्डी ही समझता रहा हूँ, वो कमज़ोरी शायद अब भी है । डरता हूँ कि वो मुझसे को सवाल न पूछ लें। मेरे अवगुण न जान लें । इस बात को भली भांति जानते हुये भी कि वो सब कुछ जानते है। पता नहीं क्यों, में अपना होम वर्क पूरा होने के बावजूद मुझसे अपने गुरु का, गुरु जी की परीक्षा का सामना क्यों नहीं हो पाता। पता नहीं, यह कोई हीन-भावना है या ऐसे भी कुछ लोग होते हैं मेरे जैसे।

चलो, फिर कभी आगे की चर्चा करेंगे।
धन्यवाद।
गंभीर