#मेरी_डायरी_का_एक_पन्ना;
मुझे याद है, बचपन से ही मैं पढ़ाई में फिसड्डी था। मेरी मैथमैटिक्स सब्जेक्ट की गिणती इतनी कमज़ोर थी कि दो से दस तक के पहाड़े भी, कक्षा पाँच तक ही याद हो पाये। मीडियम इनकम क्लास के होने के कारण या हो सकता हो, उन दिनों में इंग्लिश मीडियम के सरकारी स्कूल बहुत कम होना एक वजय हो। छठी कक्षा से ही एबीसीडी का ज्ञान शुरू हुआ। कुल मिलाकर मान लेता हूँ कि मैं शुरू से ही पढ़ाई में वीक था।
टीचर/मैडम नाम की छवि से बहुत डर लगता था। कोशिश यही रहती कि क्लास में बैठे,उनकी नज़र मुझ पर न ही पड़े। जिसका मुख्य डर व कारण यह था कि वो मुझसे कोई सवाल न पूछ लें। पर एक बात पर मुझे ख़ुद पर हैरानगी अब होती है कि उन दिनों मेरा स्कूल का होम वर्क सदा कंपलीट होता था। जिसका कारण था, मेरे अंदर बैठा 'याद व परीक्षाका डर' जो आज भी है।
उन स्कूल के दिनों से अब तक, मेरा होमवर्क से लेकर पूजा-पाठ व लेखन के अभ्यास तक, अकेले में होता आया है । पूरा कॉन्फिडेंस होने के बावजूद आज भी किसी और या पब्लिक के सामने यानि फ्रण्ट पर मेरा विश्वास न जाने क्यों डगमगा जाता है।
पहली बात, क्योंकि ऊपर लिखे मेरे अवगुण मेरे लिए कोई समस्या नहीं है। आपसे इस दुविधा के हल करने के लिये भी नहीं बोल रहा हूँ। वो तो अब इस फिफ्टी प्लस की उम्र के आते-आते अपने हैबिट में आ गये हैं।
दूसरी बात, न तो अब मैंने न कोई भविष्य में समाज सुधार के लिए लीडर बनने की इच्छा रह गई है। न ही कोई धर्म प्रचार के लिए लैक्चरार होने का जज्बा। जो कहूं कि स्टेज पर चढ़ माइक पकड़ कर बोलने का नशा ही कुछ और होता है, जो लिखने-पढ़ने में नहीं। हां, अपने उस जवानी के समय थी।बोलने वाली यह इच्छा बाइ मिस्टेक, जोश में आकर जरूर पाल ली थी।
उन दिनों के समाज और धर्म के ठेकेदारों ने मेरी बेबाक़ी को समझ लिया था। पंजाबी ज़ुबान में में कहूँ कि 'ताड़ लिया था।', मैं उनके पर्दे पहले जो वैसे ही खोल देता था। उन्होंने माइक पकड़ने वाला मौका ही नहीं दिया।
अब जो सोशल मीडिया का 'अवतार', मुझ जैसे कई छुपे टेलेंट को उभारने की कोशिश कर ही रहा है। तो मेरी भी जैसे छह साल पहले लॉटरी निकली कि जो कुछ जो मन में था या कागज़ के पन्नों पर उड़ेल रखा था, को पब्लिकली लिख पाया।
अब मैं अपने असल मुद्दे पर आता हूँ। ठीक है, कि मैंने वैसे तो शुरू में अपनी व्यक्तिगत जानकारी में अपनी झिझक और फ्रंट लाइन की घबराहट वाली अपने में बहुत या कम जो कमी है उस विषय की बात कही । वो तो अब जबकि सोशल मीडिया के आविष्कार ने सब बदल कर रख दिया है।
पर अब भी मुझे न जाने क्यों अपने गुरु-दरबार जाता हूं तो देखता हूँ कि हर कोई दर्शन के अभिलाषी भीड़ होने पर भी कोशिश यही करते हैं। कि गुरु ग्रन्थ साहिब जी के दर्शन सामने से हों। जबकि मेरी शुरू से आदत रही है कि जब भी गुरद्वारा साहिब जाता हूँ , तो संगत कम हो तो ठीक, नहीं तो दरबार हाल में एंटर होते ही साइड से ही अपना मस्तक जमीन पर टिका लेता हूँ। जहां कहीं भी जगह मिले, बैठ, एक दो घन्टे, जो कुछ भी उस समय प्रोग्राम चल रहा हो, को सुनने-समझने की कोशिश करता हूँ।
मतलब वही बचपन वाली हैबिट कि मैं तो अपने टीचर (गुरु) को देखता, सुनता रहूँ। वो मुझे न देख पाए। जिसका कारण, फिर वही, कि मैं बचपन से ही अपने को फिसड्डी ही समझता रहा हूँ, वो कमज़ोरी शायद अब भी है । डरता हूँ कि वो मुझसे को सवाल न पूछ लें। मेरे अवगुण न जान लें । इस बात को भली भांति जानते हुये भी कि वो सब कुछ जानते है। पता नहीं क्यों, में अपना होम वर्क पूरा होने के बावजूद मुझसे अपने गुरु का, गुरु जी की परीक्षा का सामना क्यों नहीं हो पाता। पता नहीं, यह कोई हीन-भावना है या ऐसे भी कुछ लोग होते हैं मेरे जैसे।
चलो, फिर कभी आगे की चर्चा करेंगे।
धन्यवाद।
गंभीर
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