Wednesday, 31 October 2012

तीरथु तपु दइआ दतु दानु......[21] जपु जी साहिब|

"तीरथु तपु दइआ दतु दानु || जे को पावै तिल का मानू ||

तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया करनी, दिये हुये दान-- इन कर्मों के बदले यदि किसी मनुष्य को कोई प्रशंसा मिलती भी जाए तो थोड़ी मात्र ही मिलती है |

सुणिया, मंनिआ, मनि कीता भाऊ || अंतरगति तीरथि, मलि नाऊ ||

जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम से ध्यान जोड़ा है, यानि मन 'नाम' में खर्च किया है तथा जिस ने अपने मन में परमात्मा का प्रेम उत्पन्न किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने आंतरिक तीर्थ में मल-मल कर स्नान कर किया है| अर्थात उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल पुरुख में जुड़ कर अच्छी तरह अपने मन कि मैल उतार ली है |

सभि गुण तेरे, मै नाही कोइ || विणु गुण कीते, भगति न कोइ ||
सुअसत आथि बाणी बरमाऊ || सटी सुहाणु सदा मनि चाऊ ||


हे परमात्मा ! यदि तू आप अपने गुण मुझ में पैदा न करे तो मुझ से तेरी भक्ति नहीं हो सकती / मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है की मैं तेरे गुण गा सकूँ, यह तेरा बड़प्पन है / 

हे निरंकार ! तेरी सदा जय हो ! तू आप ही माया, है, तू आप ही बाणी है, तू आप ही बरह्मा है / =अर्थात इस सृष्टि को बनाने वाला माया बाणी , या ब्रह्मा तुझ से भिन्न अस्तित्व वाले नहीं हैं जो लोगों ने मान रखे हैं / तू सदा स्थिरहै, सुंदर है, तेरे मन में प्रफुलता है तू ही जगत की रचना करने वाला है, तुझे ही पता है की तुने कब जगत बनाया /

कवणु सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवणु वारु ||
कवणि सि रुती, माहू कवणु, जितु होआ आकारु ||



कौन-सा वह समय तथा वक्त था, कौन-सी तिथि थी, कौन-सा दिन था, कौन-सी वह ऋतु थी तथा कौन-सा महीना था जब यह संसार बना ?
वेल  न पाईआ पंडती, जि होवै लेखु पुराणु ||
वखतु न पाइओ कादीया, जि लिखनि लेखु कुराणु || 


कब यह संसार बना ? 
उस समय का पंडितों को भी ज्ञान नहीं हुआ, नहीं तो इस विषय पर भी एक पुराण लिखा होता /
उस समय काजिओं को भी खबर नहीं लग सकी , नहीं तो वह वे लेख लिख देते, जैसे उन्होंने आयतें एकत्र करके कुरआन लिख था /-


"थिति वारु न जोगी जाणै, रुति माहु न कोई ||

जा करता सिरठी कउ साजैं, आपै जाणै सोई ||"


जब संसार बना था तब कौन-सी तिथि थी ? कौन-सा दिन था ?यह बात कोई योगी नहीं जानता /कोई 

मनुष्य नहीं बता सकता कि 

तब कौन-सी ऋतु थी, कौन-सा महीना था /


जो सर्जन कर्ता इस जगत को पैदा कर्ता है, वह आप ही जानता है कि जगत की रचना कब हुई 

किव करि आखा किव सालाही, किउ वरनी किव जाणा ||

नानक, आखणि सभु को आखै, इक दू इकु सिआणा ||


मैं किस तरह बताऊँ, परमात्मा क बड़प्पन ? कैसे करूँ परमात्मा की सिफत सालाह (गुण -कीर्तन) ?

किस तरह वर्णन करूँ ? कैसे समझ सकूँ ?



हे नानक ! प्रत्येक जीव अपने आप को दूसरों से अक्लमंद समझ कर परमात्मा का बड़प्पन बताने क यत्न करत है परन्तु बता नहीं सकता /-

वडा साहिबु वडी नाई, कीता जा क होवै ||
नानक, जे को आपौ जाणै, अगै गइआ न  सोहै ||२१|
|

परमात्मा सबसे बड़ा है,उस क बड़प्पन ऊँचा है /जो कुछ जगत में हो रहा है, सब उसी क किया हो रहा है /
हे नानक ! यदि कोइ मनुष्य अपनी बुद्दि के बल पर प्रभु के बड़प्पन का अंत पाने क यत्न करे , वह परमात्मा के दर पर जाकर आदर प्राप्त नहीं करता /२१/




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जपु जी साहिब |२१|


जिस मनुष्य ने 'नाम' से चित्त जोड़ा है, जिसको सिमरन की लग्न लग गईं है, जिस के मन में प्रभू का

प्यार पैदा हुआ है, उसकी आत्मा शुद्ध तथा पवित्र हो जाती है / पर यह भक्ति उस परमात्मा की कर्पा से 

मिलाती है /
बंदगी का यह परिणाम नहीं हो सकता कि मनुष्य यह बता सके कि संसार कब बना | न पंडित , न काजी, न योगी कोई भी यह भेद नहीं पा सका | परमात्मा बेअंत बड़ा है | उसका बडप्पन भी अनन्त है, उसकी रचना भी अनन्त है |

Friday, 26 October 2012

भरिए हथु पेरू तनु देह....[20] जपु जी साहिब|


भरिए हथु पेरू तनु देह || पाणी धौतै, उतरसु खेह ||
मूत पलीती कपडु होइ || दे साबुनु, लइऐ ओहु धोइ ||

भरिऐ मति पापै कै संगि || ओहु धोपै, नावै के रंगि ||

यदि हाथ पैर या शरीर मैला ही जाये, तो पानी से धोने पर यह मेल उतर जाती है |यदि कोई कपड़ा मूत्र से गंदा हो जाये, तो साबुन लगा कर उसको धो लिया जाता है | यदि मनुष्य कि बुद्धि पापों से मलिन हो जाए, तो वह पाप, परमात्मा के नाम से प्रेम करने पर ही धोया जा सकता है |

पुंनी पापी , आखाणु नाहि || करि करि करणा, लिखि लै जाहु||
आपे बिजि, आपे ही खाहु || नानक, हुक्मी आवहु जाहु ||२० ||

हे नानक ! 'पुण्यवान' तथा 'पापी' केवल नाम ही नहीं है, अर्थात केवल कहने मात्र को नहीं है, सचमुच ही तू जैसे काम करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर बना क्र साथ ले जाएगा | जो कुछ तू आप बोयेगा, उसका फल आप ही खायेगा | अपने बोये अनुसार परमात्मा के हुक्म में जन्म-मरण के चक्र में पड़ा रहेगा |२०|


माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है तथा इसकी बुद्धि मलिन हो जाती है | यह मैल इसको शुद्ध-स्वरूप परमात्मा से प्रथक (अलग ) रखती है तथा जिव दुखी रहता है | नाम-सिमरन ही एक साधन है जिस से मन कि मैल धुल सकती है | सिमरन तो विकारों कि मैल धोकर मन को प्रभु से जोडने के लिये है, प्रभु तथा उसकी रचना का अन्त पाने के लिये जिव को समर्थ नहीं बना सकता है 

जपु जी साहिब |२०|

Tuesday, 23 October 2012

असंख नाव, असंख थाव.....जपु जी साहिब | १९|


असंख नाव, असंख थाव ||
अगंम अगंम असंख लोअ ||
असंख कहहि, सिरि भारु होइ ||

कुदरत के अनेक जीवों तथा अनन्त पदार्थों के असंख्य ही नाम हैं तथा असंख्य ही उनकर स्थान तथा ठिकाने हैं | कुदरत में असंख्य ही भवन हैं जहां तक मनुष्य की पहुँच ही नहीं हो सकती, परन्तु जो मनुष्य कुदरत का लेखा जोखा करने के लिये शब्द 'असंख्य' भी कहते हैं, उनके सिर पर भी भार होता है अर्थात, वे भी भूल करते हैं कि 'असंख्य' शब्द भी पर्याप्त नहीं है |

अखरी नामु अखरी सालाह || अखरी गिआनु गीत गुण गाह ||
अखरी, लिखणु बोलणु बाणि || अखरा सिरि, सँजोगु वखाणि ||
जिनि एहि लिखे, तिसु सिरि नाहि || जिव फुरमाए, तिव पाहि || 

परमात्मा की कुदरत का लेखा करने के लिये शब्द 'असंख्य' तो क्या, कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं है परन्तु परमात्मा का नाम भी अक्षरों द्वारा ही लिया जा सकता है, उस का गुण-कीर्तन भी अक्षरों द्वारा ही किया जा सकता है | 
परमात्मा का ज्ञान भी अक्षरों द्वारा ही विचारा जा सकता है | अक्षरों द्वारा ही उसके गीत तथा गुणों से परिचित हो सकते हैं | वाणी का लिखना और बोलना भी अक्षरों द्वारा ही दात्लाया जा सकता है | इसीलिए शब्द 'असंख्य' का प्रयोग किया गया है, वैसे जिस परमात्मा ने जीवों के संयोग के यह अक्षर लोखे हैं उस के सिर पर कोई लेख नहीं है अर्थात कोई मनुष्य उस परमात्मा का लेखा नहीं कर सकता | जैसे जैसे वह परमात्मा हुक्म करता है, वैसे वैसे ही जीव अपने संयोग भोगते हैं |

जेता किता, तेता नाऊ ||
विणु नावै, नाही को थाऊ ||

यह सारा संसार जो परमात्मा का बनाया हुआ है, यह उसका सवरूप है |
कोई स्थान परमात्मा के स्वरूप सर खाली नहीं है , अर्थात जो स्थान या पदार्थ देखें, वही परमात्मा का स्वरूप दिखाई देता है, सर्ष्टि का कण कण परमात्मा का स्वरूप है |


कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१९||

मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |

भाव : कितनी धरतियों तथा कितने जीवों की प्रभु ने रचना की है ?
मनुष्यों की किसी भी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं ही है जो यह रहस्य बता सके |
भाषा तो परमात्मा की एक दें है, परन्तु यह मिली है गुण-कीर्तन करने के लिये | यह नहीं हो सकता कि इसके द्वारा मनुष्य प्रभु का अन्त पा सके | देखो ! अनन्त है उसकी कुदरत तथा इस में जिधर देखो वह आप ही आप मौजूद है | कौन अंदाजा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है तथा उसकी रचना कितनी है ?
Cont...
जपु जी साहिब|१९|


जपु जी साहिब |१९|Cont....
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Thursday, 18 October 2012

असंख मूरख अंध घोर .....[18] जपु जी साहिब |


असंख मूरख अंध घोर ||

असंख चोर हरामखोर ||

असंख अमर करि जाहि जोर ||



निरंकार कि बनाई हुई स्रष्टि में अनेक ही महा मूर्ख हैं, अनेक ही चोर हैं, जो पराया माल चुरा चुरा कर व्यवहार में ला रहे हैं तथा अनेक ही ऐसे मनुष्य हैं जो दूसरों पर हुक्म चलाते तथा जबरदस्ती करते हुए अन्त में इस संसार से चले जाते हैं |

असंख मूरख अंध घोर ||
असंख चोर हरामखोर ||
असंख अमर करि जाहि जोर ||



निरंकार कि बनाई हुई स्रष्टि में अनेक ही महा मूर्ख हैं, अनेक ही चोर हैं, जो पराया माल चुरा चुरा कर व्यवहार में ला रहे हैं तथा अनेक ही ऐसे मनुष्य हैं जो दूसरों पर हुक्म चलाते तथा जबरदस्ती करते हुए अन्त में इस संसार से चले जाते हैं |

असंख कुड़िआर, कूड़े फिराहि||
असंख मलेछ, मलु भाखि खाहि ||

अनेक ही झूठ बोलने के स्वभाव वाले मनुष्य झूठ में ही व्यस्त हैं तथा अनेक ही खोटी बुद्धि वाले मनुष्य मल अर्थात अखाघ ही खाये जा रहे हैं /


असंख निंदक, सिरि करहि भारु ||
नानकु निचु कहै विचारू ||


अनेक ही निंदक (निंदा करने वाले) अपने सिर पर निंदा का भार उठा रहे हैं | 
हे निरंकार ! अनेक अन्य जीव कुकर्मों में फसे हुए होंगे, मेरी क्या ताकत है कि तेरी कुदरत का पूर्ण विचार कर सकूँ | नानक बेचारा (तुच्छ-सा ) तो विचार पेश करता है | 


वारिया न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साई भली कार ||
तू सदा सलामति निरंकार ||१८||

हे परमात्मा ! मैं तो तुम पर एक बार भी कुर्बान होने  योग्य नहीं हूँ , अर्थात मैं तेरी अन्नत कुदरत का पूर्ण विचार करने योग्य नहीं हूँ | 

हे निरंकार ! तुन सदा स्थिर रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वही कार्य भला है, अर्थात, तेरी रजा में रहना ठीक है, तेरी प्रशंसा करते हुए तेरी रजा में रहें, हम जीवों के लिये यही ठीक है|१८|

परमात्मा कि सारी कुदरत का अन्त ढुंढना तो एक तरफ़, यदि आप संसार के केवल चोर, जुआरी, ठग, निंदक आदि लोगों का ही हिसाब लगाने बैठें तो इनका भी कोई अन्त नहीं है/ जब से जगत बना है , अनन्त जीव विकार ग्रस्त ही दिखाई देते हैं /Cont...

Tuesday, 16 October 2012

असंख जप असंख भाउ..(१७) जपु जी साहिब|


असंख जप असंख भाउ।। 

असंख पूजा असंख तपताउ।।

परमात्मा की रचना में असंख्य जीव जप करते हैं, अन्नंत जीव दूसरों से प्यार का व्यवहार कर रहे हैं । 
कई जीव पूजा कर रहे हैं तथा असंख्य ही जीव तप साधना कर रहे हैं ।

असंख गरंथ मुखि वेद पाठ।। 
असंख जोग मनि रहहि उदास।।

अन्नत जीव वेदों तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का पाठ मुँह से करते हैं । योग-साधना करने वाले असंख्य मनुष्य अपने मन में माया की तरफ से उदासीन रहते हैं ।

असंख भगत, गुण गिआन वीचारु ||
असंख सती, असंख दातार ||


परमात्मा की कुदरत में असंख भक्त हैं, जो परमात्मा के गुणों तथा ज्ञान का विचार कर रहे हैं, अनेक ही दानी तथा दाता हैं |


असंख सुर, मुह भखासार || 
असंख मोनि, लिव लाइ तार ||

परमात्मा की रचना में अनन्त शूरवीर हैं, जो अपने मुख से अर्थात सामने होकर शास्तों के वार सहते हैं, अनेक मौनव्रती हैं, जो लगातार विरती जोड़ के बैठे हुए हैं/


कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१७||

मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१७ ||


भाव : प्रभु की सारी कुदरत का अंत खोजना तो एक तरफ रहा, जगत में यदि आप केवल उन लोगों की ही गिनती करनी शुरू करें जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग, समाधि आदि कार्य करते चले आ रहे हैं, तो यह लेखा समाप्त होने योग्य नहीं है|



क्षी गुरू नानक देव जी की रचना जपु जी साहिब का अर्थ-भाव।

Friday, 12 October 2012

Gambhir's says.......!


जब किसी राज्य में अकाल पड़ जाये या बाढ़ आ जाये तो केन्द्र सरकार, दूसरे राज्य के मुख्य मंत्री तथा अधिकार गण अन्न, कपड़े आदि कि जरूरतें पूरी करते हैं | पर यदि कहीं 'सत्य' का अकाल पड़ जाये तो इस आवश्यकता को वो ही मनुष्य पूरा करेगा जिसके पास पहले से ही 'सत्य' होगा |
भुत-प्रेत कोई कोई अलग से जून नहीं है | मनुष्य के जीवन में जब सत्य पंख लगा कर उड़ जाता है | मनुष्य से बड़ा कोई भुत बेताल नहीं |सत्य न होने से यह मनुष्य अपने जीवन को कोड़ जैसी बिमारी लगा बैठा है | गुरू ग्रन्थ साहिब में 'आसा की वार' नाम की वाणी में इस सच्चाई को बहुत अच्छी तरह से समझाया गया है |




मनुष्य स्वयं ही अपना भाई तथा दुश्मन है | मनुष्य को अपने आप से ही अपना उद्दार करना चाहिये | यदि मनुष्य अपनी जगन सही हो जाए तो वह स्वयं ही श्रेष्ट हो जाएगा |
लोग मेरे को अच्छा कहें, यह आशा न रखो | कोई मेरे को बुरा न कह दे , यह भय भी पतन करने वाला है | अच्छा कहलाने कि इच्छा छोड़ दो , अच्छे बनो |




कभी आप खाली समय किन्ही अनगिनत नोटों की गडी लेकर उसकी गिनती करते हुए १०० की गिनती तक गिनें और हर गिनती के साथ-साथ अपने इष्ट का नाम भी ले | यदि आप की गिनती और प्रभु का नाम लेते गडबडाते नही हैं तो आप में प्रभु के मिलन की क्षमता ओरों से अधिक है वर्ना अभ्यास जारी रखिए |


संसार में संतों, महात्माओं, उपदेश देने वालों कि कमी नहीं है, परन्तु अपना कल्याण करने में हमारी स्वयं कि लग्न एवं श्रद्दा ही काम आती है |

जो व्यक्ति पूर्ण आस्था व श्रद्दा के साथ अपने इष्ट प्रभु का स्मरण करता है, बड़ी से बड़ी शक्ति भी उसका अहित नहीं कर सकती |

आत्म तत्व का साक्षात्कार किया हुआ व्यक्ति ही सच्चा गुरू कहलाने लायक है | वही हमारी जीवात्मा को परमपिता परमात्मा का रहस्य बता सकता है | इस गुण का धारणी शत-प्रतिशत गुरू नानक देव जी है

कभी हमने सोचा है कि मन्दिर-गुरदवारे में बजाई जाने वाली ढोलकी या तबला किसी जानवर की चमड़ी से बनाया जाती हैं । और इन्हें बनाने वाले लोग निम्न जाति के समझे जाते हैं ।

छुआ-छूत को मानने वाले लोग तथा आपस में भेद-भाव रखने वाले लोग इस स्पर्शता को क्या कहेंगे ?



क्या कभी हमनें सोचा है कि जब हमारे किसी नजदीकी सगे-सम्बंधी का अंतिम समय आता है, तो हमारे बड़े-बूढे उस जा चूके मनुष्य का बोरिया-बिस्तर, पहने हुये कपड़े घर से बाहर रखने को क्यों कहते हैं ?

या फिर उस शरीर पर पहने हुये कीमती गहनें तथा उस द्वारा छोड़ी गई जमीन-जयदाद को भी फैंक देने को कयूँ नही कहते ?



महंगाई की असल मार उन लोगों पर पड़ती है जिनके पास इसके विरोध और अनशन के लिए टाइम ही नहीं है, उनके लिए वो टाइम बहुत कीमती है / और जो लोग अनशन इत्यादि में वक्त जाया करते हैं वो या तो एक खाली बैठने के शौकीन लोग हैं या मौकापरस्त / क्योंकि महंगाई के साथ रोजगार के अवसर भी बहुत हैं, बस आवश्यकता है मेहनती लोगों की /


महंगाई उन लोगों के किये है जो दो टाइम भोजन के लिए दैनिक मजदूरी करते हैं न की उनके लिए जिन्होंने अपनी सात पुश्तों की रोजी-रोटी का ठेका ले रखा है/
  • महंगाई उन लोगों के किये है जो दो टाइम भोजन के लिए मजदूरी करते हैं न कीउनके लिए जिन्होंने अपनी सात पुश्तों की रोजी-रोटी का ठेका ले रखा है/


    जब तक हम स्वयं अपने घर पड़ा जरूरत से अधिक सोना और जरूरत से ज्यादा खाली जमीन का मोह नहीं छोड़ेंगे या वह वस्तु जिनकी कीमतें आसमान छू रही हैं, महंगाई का स्तर गिरना असंभव है/यह भी एक किस्म की जमाखोरी है/




बीस-पच्चीस वर्ष पहले जो व्यक्ति ५०००/- रूपए मासिक वेतन पाने से सुखी था, आज वह ६००००/- तनखाह से भी नाखुश है / क्योंकि वो व्यक्ति अपनी आमदन का ५० % खर्च अपनी सम्पन्नता और दिखावे के लिए कर रहा है /

Thursday, 11 October 2012

पंच परवाण, पंच परधानु....... ||१६ ||


पंच परवाण, पंच परधानु।। पंच, पावहि दरगहि मानु।।

पंचे, सोह्हि दरि राजानु।। पंचा का गुरु एकु धिआनु।।



जिन मनुष्यों की चितवृति नाम में जुड़ी रहती है तथा जिन के अंदर प्रभु के लिये लग्न बनी रहती है, वही मनुष्य यहाँ जगत में मान-सत्कार प्राप्त करते हैं तथा प्रमुख (सबके आगे रहने वाले) बने रहते हैं, परमात्मा के दरबार में भी वह पंच जन ही आदर प्राप्त करते हैं । राज दरबार में भी वह पंच जन ही सुशोभित होते हैं । इन पँच जनों की चितवृति का लक्षय केवल एक गुरु ही है अर्थात इनका ध्यान गुरु-शब्द में ही रहता है, गुरु- शब्द में जुड़े रहना ही इन का असल लक्षय है।

जे को कहै, करै विचारू || करते कै करणै, नाही सुमारु ||

गुरू-शब्द में जुड़े रहने का यह परिणाम नहीं निकल सकता किकोई मनुष्य प्रभु की बनाई सृष्टि का अंत पा सके / 
परमात्मा की कुदरत का कोई लेखा ही नहीं है, अर्थात अंत नहीं पाया जा सकता, चाहे कोई कथन करके देख ले तथा विचार कर ले / परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य के जीवन का मनोरथ (लक्ष्य ) हो ही नहीं सकता/ Cont...

धौलु धरमु, दइया का पूतु।। संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति।।

जे को बुझै होवै सचिआरु।। धवलै उपरि केता भारु।।

धरती होरु, परै होरु होरु।। तिस ते भारू, तलै कवणु जोरू।।




परमात्मा का धर्म रुपी दृढ़ नियम ही बैल है, जो सृष्टी को कायम रख रहा है। यह धर्म का पुत्र है, अर्थात परमात्मा ने अपनी कृपा से सृष्टी को टिकाये रखने के लिये 'धर्म' रुप नियम बना दिया है। इस धर्म ने अपनी मर्यादा के अनुसार संतोष को जन्म दिया है। 

यदि कोई मनुष्य इस ऊपर बताये विचार को समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर परमात्मा का प्रकाश हो जाये। नहीं तो विचार तो करो कि बैल पर धरती का कितना असीम भार है, वह बेचारा इतने भार को उठा कैसे सकता है ? 

दुसरी विचार और है कि यदि धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिये नीचे और धरती होगी, उस धरती के नीचे एक अन्य बैल, उस के नीचे धरती के नीचे और बैल, फिर और बैल, इसी तरह अन्तिम बैल के भार को सहारने के लिये उस के नीचे कौन सा सहारा होगा ?


जीअ जाति रंगा के नाव। । सभना लिखिआ वुडी कलाम। । 
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ। । लेखा लिखिआ केता होइ। । 
केता ताणु, सुआलिहु रुपु। । केती दाति, जाणै कौणु कूतु। । 
कीता पसाउ, एको कवाउ। । तिस ते होए लख दरीआउ। ।

सृष्टी मैं कई जातिओं के, कई प्रकार के तथा कई नामों के जीव हैं इन सब ने लगातार चलती कलम से परमात्मा की कुदरत का लेखा लिखा है, परन्तु कोई विरला मनुष्य यह लेखा लिखना जानता है, अर्थात, परमात्मा की कुदरत का अन्त कोई भी जीव नहीं पा सकता । यदि लेखा लिखा भी जाये तो यह अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा कितना बड़ा हो जाये । परमात्मा का बल असीम है, असीम सुंदर रुप है, उसकी देन असीम है - इसका कौन अंदाजा लगा सकता है ? परमात्मा ने अपने हुक्म से सारा संसार बना दिया, उस हुक्म से ही जिन्दगी के लाखों दरिया बन गये ।

कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१६ |
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मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है 
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क्षी गुरू नानक देव जी की रचना जपु जी साहिब का अर्थ-भाव।

Tuesday, 9 October 2012

महंगाई


महंगाई की असल मार उन लोगों पर पड़ती है जिनके पास इसके विरोध और अनशन के लिए टाइम ही नहीं है, उनके लिए वो टाइम बहुत कीमती है / और जो लोग अनशन इत्यादि में वक्त जाया करते हैं वो या तो एक खाली बैठने के शौकीन लोग हैं या मौकापरस्त / क्योंकि महंगाई के साथ रोजगार के अवसर भी बहुत हैं, बस आवश्यकता है मेहनती लोगों की /

बीस-पच्चीस वर्ष पहले जो व्यक्ति ५०००/- रूपए मासिक वेतन पाने से सुखी था, आज वह ६००००/- तनखाह से भी नाखुश है / क्योंकि वो व्यक्ति अपनी आमदन का ५० % खर्च अपनी सम्पन्नता और दिखावे के लिए कर रहा है /


महंगाई उन लोगों के किये है जो दो टाइम भोजन के लिए दैनिक मजदूरी करते हैं न की उनके लिए जिन्होंने अपनी सात पुश्तों की रोजी-रोटी का ठेका ले रखा है/
  • महंगाई उन लोगों के किये है जो दो टाइम भोजन के लिए मजदूरी करते हैं न कीउनके लिए जिन्होंने अपनी सात पुश्तों की रोजी-रोटी का ठेका ले रखा है/


    जब तक हम स्वयं अपने घर पड़ा जरूरत से अधिक सोना और जरूरत से ज्यादा खाली जमीन का मोह नहीं छोड़ेंगे या वह वस्तु जिनकी कीमतें आसमान छू रही हैं, महंगाई का स्तर गिरना असंभव है/यह भी एक किस्म की जमाखोरी है/

Thursday, 4 October 2012

मंनैु, पावहि मोखु दुआरु.......(15)


मंनैु, पावहि मोखु दुआरु।। मंनै, परवारै साधारु।।
मंनै, तरै तारे गुरु सिख।। मंनै, नानक भवहि न भिख।।
ऐसा नामु निरंजनु होइ।। जे को मनि जाणै मनि कोइ।।१५।
जपु जी साहिब |

यदि मन में प्रभु के नाम की लग्न लग जाये तो मनुष्य असत्य (कुड़) से मुक्ति का रास्ता ढूँढ लेते हैं । ऐसा मनुष्य अपने परिवार को भी परमात्मा का आक्षय दृढ़ करवाता है।
नाम में मन लग जाने से ही सतिगुरु भी आप संसार सागर से पार हो जाता है तथा सिक्खों (शिष्यों) को भी पार कराता है। नाम में जुड़ने से, हे नानक ! मनुष्य जन जन के मोहताज नहीं बने फिरते 
। अकाल पुरख (परमात्मा) का नाम जो माया के प्रभाव से परे है, इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च जीवन वाला हो जाता है, परन्तु यह बात तब ही समझआती है जब, कोई मनुष्य अपने मन में हरि-नाम की लग्न पैदा करे।१५।


इस लग्न  की बरकत से वह सारे बंहधन टूट जाते हैं जिन्होनें प्रभु से दूरी बनायी हुयी थी । ऐसी लग्न वाला इंसान केवल आप ही नहीं बचता, अपने परिवार के सदस्यों को भी स्वामी-प्रभू के साथ जोड़ देता है । यह देन जिनको गुरू से मिलती है, वे प्रभु दर से हटकर किसी और तरफ़ नहीं भटकते।

Wednesday, 3 October 2012

मनै, मारगि ठाक न पाइ......(14)

मनै, मारगि ठाक न पाइ || मनै, पति सिउ परगटु जाइ ||
मनै, मगु न चलै पंथु || मनै, धरम सेती सनबंधु ||
ऐसा नामु निरंजनु होइ || जे को मंनि जाणै मनि कोइ ||१४||
जपु जी साहिब|

यदि मनुष्य का मन नाम में लग जाए तो जिंदगी की राह में विकारों आदि की कोई रुकावट नहीं पड़ती | वह संसार में यश कमा कर सम्मान के साथ जाता है
उस मनुष्य का धर्म के साथ सीधा संबंध बन जाता है| वह फिर दुनिया के भिन्न-भिन्न धर्मों के बताए रास्तों पर नहीं चलता |
भाव, उसके अंदर यह विचार नहीं आता कि यह रास्ता अच्छा है और यह रास्ता बुरा है|
परमात्मा का नाम जो माया के प्रभाव से परे है, इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, परन्तु यह बात तब भी समझ में आती है जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लग्न पैदा कर के|१४|

याद की बरकत से जैसे जैसे मनुष्य का प्यार परमात्मा से बनता है, इस सिमरन रूप 'धर्म' के साथ उसका इतना गहरा सम्बन्ध बन जाता है कि कोई रुकावट उसको इस सही निशाने से हटा नहीं सकती| अन्य पग-डंडियो भी उसे कुमार्ग पर नहीं ले जा सकतीं|