Tuesday, 23 October 2012

असंख नाव, असंख थाव.....जपु जी साहिब | १९|


असंख नाव, असंख थाव ||
अगंम अगंम असंख लोअ ||
असंख कहहि, सिरि भारु होइ ||

कुदरत के अनेक जीवों तथा अनन्त पदार्थों के असंख्य ही नाम हैं तथा असंख्य ही उनकर स्थान तथा ठिकाने हैं | कुदरत में असंख्य ही भवन हैं जहां तक मनुष्य की पहुँच ही नहीं हो सकती, परन्तु जो मनुष्य कुदरत का लेखा जोखा करने के लिये शब्द 'असंख्य' भी कहते हैं, उनके सिर पर भी भार होता है अर्थात, वे भी भूल करते हैं कि 'असंख्य' शब्द भी पर्याप्त नहीं है |

अखरी नामु अखरी सालाह || अखरी गिआनु गीत गुण गाह ||
अखरी, लिखणु बोलणु बाणि || अखरा सिरि, सँजोगु वखाणि ||
जिनि एहि लिखे, तिसु सिरि नाहि || जिव फुरमाए, तिव पाहि || 

परमात्मा की कुदरत का लेखा करने के लिये शब्द 'असंख्य' तो क्या, कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं है परन्तु परमात्मा का नाम भी अक्षरों द्वारा ही लिया जा सकता है, उस का गुण-कीर्तन भी अक्षरों द्वारा ही किया जा सकता है | 
परमात्मा का ज्ञान भी अक्षरों द्वारा ही विचारा जा सकता है | अक्षरों द्वारा ही उसके गीत तथा गुणों से परिचित हो सकते हैं | वाणी का लिखना और बोलना भी अक्षरों द्वारा ही दात्लाया जा सकता है | इसीलिए शब्द 'असंख्य' का प्रयोग किया गया है, वैसे जिस परमात्मा ने जीवों के संयोग के यह अक्षर लोखे हैं उस के सिर पर कोई लेख नहीं है अर्थात कोई मनुष्य उस परमात्मा का लेखा नहीं कर सकता | जैसे जैसे वह परमात्मा हुक्म करता है, वैसे वैसे ही जीव अपने संयोग भोगते हैं |

जेता किता, तेता नाऊ ||
विणु नावै, नाही को थाऊ ||

यह सारा संसार जो परमात्मा का बनाया हुआ है, यह उसका सवरूप है |
कोई स्थान परमात्मा के स्वरूप सर खाली नहीं है , अर्थात जो स्थान या पदार्थ देखें, वही परमात्मा का स्वरूप दिखाई देता है, सर्ष्टि का कण कण परमात्मा का स्वरूप है |


कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१९||

मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |

भाव : कितनी धरतियों तथा कितने जीवों की प्रभु ने रचना की है ?
मनुष्यों की किसी भी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं ही है जो यह रहस्य बता सके |
भाषा तो परमात्मा की एक दें है, परन्तु यह मिली है गुण-कीर्तन करने के लिये | यह नहीं हो सकता कि इसके द्वारा मनुष्य प्रभु का अन्त पा सके | देखो ! अनन्त है उसकी कुदरत तथा इस में जिधर देखो वह आप ही आप मौजूद है | कौन अंदाजा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है तथा उसकी रचना कितनी है ?
Cont...
जपु जी साहिब|१९|


जपु जी साहिब |१९|Cont....
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