असंख जप असंख भाउ।।
असंख पूजा असंख तपताउ।।
परमात्मा की रचना में असंख्य जीव जप करते हैं, अन्नंत जीव दूसरों से प्यार का व्यवहार कर रहे हैं ।
कई जीव पूजा कर रहे हैं तथा असंख्य ही जीव तप साधना कर रहे हैं ।
असंख गरंथ मुखि वेद पाठ।।
असंख जोग मनि रहहि उदास।।
अन्नत जीव वेदों तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का पाठ मुँह से करते हैं । योग-साधना करने वाले असंख्य मनुष्य अपने मन में माया की तरफ से उदासीन रहते हैं ।
असंख भगत, गुण गिआन वीचारु ||
असंख सती, असंख दातार ||
परमात्मा की कुदरत में असंख भक्त हैं, जो परमात्मा के गुणों तथा ज्ञान का विचार कर रहे हैं, अनेक ही दानी तथा दाता हैं |
असंख सुर, मुह भखासार ||
असंख मोनि, लिव लाइ तार ||
परमात्मा की रचना में अनन्त शूरवीर हैं, जो अपने मुख से अर्थात सामने होकर शास्तों के वार सहते हैं, अनेक मौनव्रती हैं, जो लगातार विरती जोड़ के बैठे हुए हैं/
कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१७||
मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ?
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है|
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१७ ||
भाव : प्रभु की सारी कुदरत का अंत खोजना तो एक तरफ रहा, जगत में यदि आप केवल उन लोगों की ही गिनती करनी शुरू करें जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग, समाधि आदि कार्य करते चले आ रहे हैं, तो यह लेखा समाप्त होने योग्य नहीं है|
क्षी गुरू नानक देव जी की रचना जपु जी साहिब का अर्थ-भाव।
असंख जप असंख भाउ।।
असंख पूजा असंख तपताउ।।
परमात्मा की रचना में असंख्य जीव जप करते हैं, अन्नंत जीव दूसरों से प्यार का व्यवहार कर रहे हैं ।
कई जीव पूजा कर रहे हैं तथा असंख्य ही जीव तप साधना कर रहे हैं ।
असंख गरंथ मुखि वेद पाठ।।
असंख जोग मनि रहहि उदास।।
अन्नत जीव वेदों तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का पाठ मुँह से करते हैं । योग-साधना करने वाले असंख्य मनुष्य अपने मन में माया की तरफ से उदासीन रहते हैं ।
असंख भगत, गुण गिआन वीचारु ||
असंख सती, असंख दातार ||
परमात्मा की कुदरत में असंख भक्त हैं, जो परमात्मा के गुणों तथा ज्ञान का विचार कर रहे हैं, अनेक ही दानी तथा दाता हैं |
असंख सुर, मुह भखासार ||
असंख मोनि, लिव लाइ तार ||
परमात्मा की रचना में अनन्त शूरवीर हैं, जो अपने मुख से अर्थात सामने होकर शास्तों के वार सहते हैं, अनेक मौनव्रती हैं, जो लगातार विरती जोड़ के बैठे हुए हैं/
कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१७||
मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ?
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है|
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१७ ||
भाव : प्रभु की सारी कुदरत का अंत खोजना तो एक तरफ रहा, जगत में यदि आप केवल उन लोगों की ही गिनती करनी शुरू करें जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग, समाधि आदि कार्य करते चले आ रहे हैं, तो यह लेखा समाप्त होने योग्य नहीं है|
अन्नत जीव वेदों तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का पाठ मुँह से करते हैं । योग-साधना करने वाले असंख्य मनुष्य अपने मन में माया की तरफ से उदासीन रहते हैं ।
असंख भगत, गुण गिआन वीचारु ||
असंख सती, असंख दातार ||
परमात्मा की कुदरत में असंख भक्त हैं, जो परमात्मा के गुणों तथा ज्ञान का विचार कर रहे हैं, अनेक ही दानी तथा दाता हैं |
असंख सती, असंख दातार ||
परमात्मा की कुदरत में असंख भक्त हैं, जो परमात्मा के गुणों तथा ज्ञान का विचार कर रहे हैं, अनेक ही दानी तथा दाता हैं |
असंख सुर, मुह भखासार ||
असंख मोनि, लिव लाइ तार ||
परमात्मा की रचना में अनन्त शूरवीर हैं, जो अपने मुख से अर्थात सामने होकर शास्तों के वार सहते हैं, अनेक मौनव्रती हैं, जो लगातार विरती जोड़ के बैठे हुए हैं/
परमात्मा की रचना में अनन्त शूरवीर हैं, जो अपने मुख से अर्थात सामने होकर शास्तों के वार सहते हैं, अनेक मौनव्रती हैं, जो लगातार विरती जोड़ के बैठे हुए हैं/
कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१७||
मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ?
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है|
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१७ ||
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