पंच परवाण, पंच परधानु।। पंच, पावहि दरगहि मानु।।
पंचे, सोह्हि दरि राजानु।। पंचा का गुरु एकु धिआनु।।
जिन मनुष्यों की चितवृति नाम में जुड़ी रहती है तथा जिन के अंदर प्रभु के लिये लग्न बनी रहती है, वही मनुष्य यहाँ जगत में मान-सत्कार प्राप्त करते हैं तथा प्रमुख (सबके आगे रहने वाले) बने रहते हैं, परमात्मा के दरबार में भी वह पंच जन ही आदर प्राप्त करते हैं । राज दरबार में भी वह पंच जन ही सुशोभित होते हैं । इन पँच जनों की चितवृति का लक्षय केवल एक गुरु ही है अर्थात इनका ध्यान गुरु-शब्द में ही रहता है, गुरु- शब्द में जुड़े रहना ही इन का असल लक्षय है।
जे को कहै, करै विचारू || करते कै करणै, नाही सुमारु ||
गुरू-शब्द में जुड़े रहने का यह परिणाम नहीं निकल सकता किकोई मनुष्य प्रभु की बनाई सृष्टि का अंत पा सके /
परमात्मा की कुदरत का कोई लेखा ही नहीं है, अर्थात अंत नहीं पाया जा सकता, चाहे कोई कथन करके देख ले तथा विचार कर ले / परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य के जीवन का मनोरथ (लक्ष्य ) हो ही नहीं सकता/ Cont...
धौलु धरमु, दइया का पूतु।। संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति।।
जे को बुझै होवै सचिआरु।। धवलै उपरि केता भारु।।
धरती होरु, परै होरु होरु।। तिस ते भारू, तलै कवणु जोरू।।
परमात्मा का धर्म रुपी दृढ़ नियम ही बैल है, जो सृष्टी को कायम रख रहा है। यह धर्म का पुत्र है, अर्थात परमात्मा ने अपनी कृपा से सृष्टी को टिकाये रखने के लिये 'धर्म' रुप नियम बना दिया है। इस धर्म ने अपनी मर्यादा के अनुसार संतोष को जन्म दिया है।
यदि कोई मनुष्य इस ऊपर बताये विचार को समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर परमात्मा का प्रकाश हो जाये। नहीं तो विचार तो करो कि बैल पर धरती का कितना असीम भार है, वह बेचारा इतने भार को उठा कैसे सकता है ?
दुसरी विचार और है कि यदि धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिये नीचे और धरती होगी, उस धरती के नीचे एक अन्य बैल, उस के नीचे धरती के नीचे और बैल, फिर और बैल, इसी तरह अन्तिम बैल के भार को सहारने के लिये उस के नीचे कौन सा सहारा होगा ?
जीअ जाति रंगा के नाव। । सभना लिखिआ वुडी कलाम। ।
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ। । लेखा लिखिआ केता होइ। ।
केता ताणु, सुआलिहु रुपु। । केती दाति, जाणै कौणु कूतु। ।
कीता पसाउ, एको कवाउ। । तिस ते होए लख दरीआउ। ।
सृष्टी मैं कई जातिओं के, कई प्रकार के तथा कई नामों के जीव हैं इन सब ने लगातार चलती कलम से परमात्मा की कुदरत का लेखा लिखा है, परन्तु कोई विरला मनुष्य यह लेखा लिखना जानता है, अर्थात, परमात्मा की कुदरत का अन्त कोई भी जीव नहीं पा सकता । यदि लेखा लिखा भी जाये तो यह अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा कितना बड़ा हो जाये । परमात्मा का बल असीम है, असीम सुंदर रुप है, उसकी देन असीम है - इसका कौन अंदाजा लगा सकता है ? परमात्मा ने अपने हुक्म से सारा संसार बना दिया, उस हुक्म से ही जिन्दगी के लाखों दरिया बन गये ।
कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१६ ||
मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ?
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है|
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१६||
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भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिन्होनें गुरू के बताए रास्ते को अपने जीवन का लक्ष्य माना है | जिन्होंने नाम की चित्व्रती जोड़ी है तथा जिन्होंने परमात्मा के साथ प्यार का रिश्ता जोड़ा है | इस रास्ते पर चलते प्रभु की रजा में रहना अच्घ्छा लगता है | यह नाम सिमरन रूप 'धर्म' उनके जीवन का सहारा बनता है, जिसे वे संतोष वाला जीवन बिताते हैं|
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परन्तु गुरू दवारा बताए मार्ग पर चलने का यह परिणाम नहीं निकल सकता की कोई मनुष्य प्रभु की बनाई स्रष्टि का अंत पा सके | इधर तो जैसे तैसे अधिक गहराई में जाओगे, वैसे वैसे यह स्रष्टि अधिक असीम, अधोक असीम प्रतीत होगी | असल में ऐसे कुपर्यासों का ही परिणाम था कि साधारण लोगों ने माँ लिया कि हमारी धरती को एक बैल ने उठाया हुआ है| परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत तलाश करना मनुष्य के जीवन का मनोरथ नहीं बन सकता |
क्षी गुरू नानक देव जी की रचना जपु जी साहिब का अर्थ-भाव।
पंच परवाण, पंच परधानु।। पंच, पावहि दरगहि मानु।।
पंचे, सोह्हि दरि राजानु।। पंचा का गुरु एकु धिआनु।।
जिन मनुष्यों की चितवृति नाम में जुड़ी रहती है तथा जिन के अंदर प्रभु के लिये लग्न बनी रहती है, वही मनुष्य यहाँ जगत में मान-सत्कार प्राप्त करते हैं तथा प्रमुख (सबके आगे रहने वाले) बने रहते हैं, परमात्मा के दरबार में भी वह पंच जन ही आदर प्राप्त करते हैं । राज दरबार में भी वह पंच जन ही सुशोभित होते हैं । इन पँच जनों की चितवृति का लक्षय केवल एक गुरु ही है अर्थात इनका ध्यान गुरु-शब्द में ही रहता है, गुरु- शब्द में जुड़े रहना ही इन का असल लक्षय है।
जे को कहै, करै विचारू || करते कै करणै, नाही सुमारु ||
गुरू-शब्द में जुड़े रहने का यह परिणाम नहीं निकल सकता किकोई मनुष्य प्रभु की बनाई सृष्टि का अंत पा सके /
परमात्मा की कुदरत का कोई लेखा ही नहीं है, अर्थात अंत नहीं पाया जा सकता, चाहे कोई कथन करके देख ले तथा विचार कर ले / परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य के जीवन का मनोरथ (लक्ष्य ) हो ही नहीं सकता/ Cont...
धौलु धरमु, दइया का पूतु।। संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति।।
जे को बुझै होवै सचिआरु।। धवलै उपरि केता भारु।।
धरती होरु, परै होरु होरु।। तिस ते भारू, तलै कवणु जोरू।।
परमात्मा का धर्म रुपी दृढ़ नियम ही बैल है, जो सृष्टी को कायम रख रहा है। यह धर्म का पुत्र है, अर्थात परमात्मा ने अपनी कृपा से सृष्टी को टिकाये रखने के लिये 'धर्म' रुप नियम बना दिया है। इस धर्म ने अपनी मर्यादा के अनुसार संतोष को जन्म दिया है।
यदि कोई मनुष्य इस ऊपर बताये विचार को समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर परमात्मा का प्रकाश हो जाये। नहीं तो विचार तो करो कि बैल पर धरती का कितना असीम भार है, वह बेचारा इतने भार को उठा कैसे सकता है ?
दुसरी विचार और है कि यदि धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिये नीचे और धरती होगी, उस धरती के नीचे एक अन्य बैल, उस के नीचे धरती के नीचे और बैल, फिर और बैल, इसी तरह अन्तिम बैल के भार को सहारने के लिये उस के नीचे कौन सा सहारा होगा ?
जीअ जाति रंगा के नाव। । सभना लिखिआ वुडी कलाम। ।
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ। । लेखा लिखिआ केता होइ। ।
केता ताणु, सुआलिहु रुपु। । केती दाति, जाणै कौणु कूतु। ।
कीता पसाउ, एको कवाउ। । तिस ते होए लख दरीआउ। ।
सृष्टी मैं कई जातिओं के, कई प्रकार के तथा कई नामों के जीव हैं इन सब ने लगातार चलती कलम से परमात्मा की कुदरत का लेखा लिखा है, परन्तु कोई विरला मनुष्य यह लेखा लिखना जानता है, अर्थात, परमात्मा की कुदरत का अन्त कोई भी जीव नहीं पा सकता । यदि लेखा लिखा भी जाये तो यह अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा कितना बड़ा हो जाये । परमात्मा का बल असीम है, असीम सुंदर रुप है, उसकी देन असीम है - इसका कौन अंदाजा लगा सकता है ? परमात्मा ने अपने हुक्म से सारा संसार बना दिया, उस हुक्म से ही जिन्दगी के लाखों दरिया बन गये ।
कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१६ ||
मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ?
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है|
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१६||
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भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिन्होनें गुरू के बताए रास्ते को अपने जीवन का लक्ष्य माना है | जिन्होंने नाम की चित्व्रती जोड़ी है तथा जिन्होंने परमात्मा के साथ प्यार का रिश्ता जोड़ा है | इस रास्ते पर चलते प्रभु की रजा में रहना अच्घ्छा लगता है | यह नाम सिमरन रूप 'धर्म' उनके जीवन का सहारा बनता है, जिसे वे संतोष वाला जीवन बिताते हैं|
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परन्तु गुरू दवारा बताए मार्ग पर चलने का यह परिणाम नहीं निकल सकता की कोई मनुष्य प्रभु की बनाई स्रष्टि का अंत पा सके | इधर तो जैसे तैसे अधिक गहराई में जाओगे, वैसे वैसे यह स्रष्टि अधिक असीम, अधोक असीम प्रतीत होगी | असल में ऐसे कुपर्यासों का ही परिणाम था कि साधारण लोगों ने माँ लिया कि हमारी धरती को एक बैल ने उठाया हुआ है| परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत तलाश करना मनुष्य के जीवन का मनोरथ नहीं बन सकता |
पंच परवाण, पंच परधानु।। पंच, पावहि दरगहि मानु।।
पंचे, सोह्हि दरि राजानु।। पंचा का गुरु एकु धिआनु।।
जिन मनुष्यों की चितवृति नाम में जुड़ी रहती है तथा जिन के अंदर प्रभु के लिये लग्न बनी रहती है, वही मनुष्य यहाँ जगत में मान-सत्कार प्राप्त करते हैं तथा प्रमुख (सबके आगे रहने वाले) बने रहते हैं, परमात्मा के दरबार में भी वह पंच जन ही आदर प्राप्त करते हैं । राज दरबार में भी वह पंच जन ही सुशोभित होते हैं । इन पँच जनों की चितवृति का लक्षय केवल एक गुरु ही है अर्थात इनका ध्यान गुरु-शब्द में ही रहता है, गुरु- शब्द में जुड़े रहना ही इन का असल लक्षय है।
जे को कहै, करै विचारू || करते कै करणै, नाही सुमारु ||
गुरू-शब्द में जुड़े रहने का यह परिणाम नहीं निकल सकता किकोई मनुष्य प्रभु की बनाई सृष्टि का अंत पा सके /
परमात्मा की कुदरत का कोई लेखा ही नहीं है, अर्थात अंत नहीं पाया जा सकता, चाहे कोई कथन करके देख ले तथा विचार कर ले / परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य के जीवन का मनोरथ (लक्ष्य ) हो ही नहीं सकता/ Cont...
धौलु धरमु, दइया का पूतु।। संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति।।
जे को बुझै होवै सचिआरु।। धवलै उपरि केता भारु।।
धरती होरु, परै होरु होरु।। तिस ते भारू, तलै कवणु जोरू।।
परमात्मा का धर्म रुपी दृढ़ नियम ही बैल है, जो सृष्टी को कायम रख रहा है। यह धर्म का पुत्र है, अर्थात परमात्मा ने अपनी कृपा से सृष्टी को टिकाये रखने के लिये 'धर्म' रुप नियम बना दिया है। इस धर्म ने अपनी मर्यादा के अनुसार संतोष को जन्म दिया है।
यदि कोई मनुष्य इस ऊपर बताये विचार को समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर परमात्मा का प्रकाश हो जाये। नहीं तो विचार तो करो कि बैल पर धरती का कितना असीम भार है, वह बेचारा इतने भार को उठा कैसे सकता है ?
दुसरी विचार और है कि यदि धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिये नीचे और धरती होगी, उस धरती के नीचे एक अन्य बैल, उस के नीचे धरती के नीचे और बैल, फिर और बैल, इसी तरह अन्तिम बैल के भार को सहारने के लिये उस के नीचे कौन सा सहारा होगा ?
जीअ जाति रंगा के नाव। । सभना लिखिआ वुडी कलाम। ।
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ। । लेखा लिखिआ केता होइ। ।
केता ताणु, सुआलिहु रुपु। । केती दाति, जाणै कौणु कूतु। ।
कीता पसाउ, एको कवाउ। । तिस ते होए लख दरीआउ। ।
सृष्टी मैं कई जातिओं के, कई प्रकार के तथा कई नामों के जीव हैं इन सब ने लगातार चलती कलम से परमात्मा की कुदरत का लेखा लिखा है, परन्तु कोई विरला मनुष्य यह लेखा लिखना जानता है, अर्थात, परमात्मा की कुदरत का अन्त कोई भी जीव नहीं पा सकता । यदि लेखा लिखा भी जाये तो यह अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा कितना बड़ा हो जाये । परमात्मा का बल असीम है, असीम सुंदर रुप है, उसकी देन असीम है - इसका कौन अंदाजा लगा सकता है ? परमात्मा ने अपने हुक्म से सारा संसार बना दिया, उस हुक्म से ही जिन्दगी के लाखों दरिया बन गये ।
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१६ ||
मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ?
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है|
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१६||
- भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिन्होनें गुरू के बताए रास्ते को अपने जीवन का लक्ष्य माना है | जिन्होंने नाम की चित्व्रती जोड़ी है तथा जिन्होंने परमात्मा के साथ प्यार का रिश्ता जोड़ा है | इस रास्ते पर चलते प्रभु की रजा में रहना अच्घ्छा लगता है | यह नाम सिमरन रूप 'धर्म' उनके जीवन का सहारा बनता है, जिसे वे संतोष वाला जीवन बिताते हैं|
- परन्तु गुरू दवारा बताए मार्ग पर चलने का यह परिणाम नहीं निकल सकता की कोई मनुष्य प्रभु की बनाई स्रष्टि का अंत पा सके | इधर तो जैसे तैसे अधिक गहराई में जाओगे, वैसे वैसे यह स्रष्टि अधिक असीम, अधोक असीम प्रतीत होगी | असल में ऐसे कुपर्यासों का ही परिणाम था कि साधारण लोगों ने माँ लिया कि हमारी धरती को एक बैल ने उठाया हुआ है| परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत तलाश करना मनुष्य के जीवन का मनोरथ नहीं बन सकता |
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