ऊँची आत्मिक अवस्था तब ही बन सकती है, जब आचरण पवित्र हो, ऊँची तथा विशाल समझ हो. प्रभु का डर ह्र्दय में टिका रहे, सेवा भी मेहनत और ईमान से की जाये, रचयता तथा रचना का प्यार दिल से हो ।
यह जत, धीरज, मति ज्ञान, भय , घाल (मेहनत) तथा प्रेम के गुण एक सच्ची टकसाल है, जिस में गुर-शब्द की मोहर घड़ी जाती है, भाव, जिस ऊँची आत्मिक अवस्था में इस पौड़ी में शब्द का सतगुरु जी ने उच्चारण किया है ।
उपर बताए गए जीवन के नियम वाले मनुष्य को भी वह शब्द उसी आत्मिक अवस्था में पहुंचा देता है |
गुरू नानक, जपु जी साहिब ।38।
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