Saturday, 28 January 2017

#नाम

(पार्ट-1)

गुरु की शिक्षा का प्रमुख सिद्धान्त 'नाम' है, जो सिख  के आशय सर्वक्षेष्ठ मन्नत है ।

गुरु के ज्ञान अनुसार "नाम" कोई व्याकरण-संज्ञा  नहीं है । इस के मुताबिक परमात्मा की यह सर्व्यापक शक्ति है, जिस के द्वारा निरंकार हर एक स्थान मौजूद हो कर कण-कण में बस रहा है ।

"नाम" के इस सर्व-व्यापक तथा सर्व-प्रतिपालक  स्वरूप का लक्ष्य तथा निरंकार नाम का अभेद होना ही मनुष्य जीवन का परम्-प्रयोजन है ।

जहां तक संज्ञा-वाचक "नाम" का सम्बंध है---परमात्मा 'अनाम' भी है तथा सर्व-नाम भी ।

क्योंकि 'नाम', रूप और आकार से जुड़ा है, और ज़ाहिर है जिसका कोई 'नाम' है, उसका कोई रूप भी होना लाज़मी है।

अब सोचने वाली बात यह है कि यदि परमात्मा का कोई रूप या आकार नहीं है, तो फिर 'नाम' क्यों ? 

कई चीज़ें अरूप होती हैं, पर उनकी 'होंद' अवश्य होती है।
ऐसी चीजें रुप करके नहीं बल्कि गुणों करके पहचानी जाती हैं ।
जैसे विभिन्न किस्म की गैस । गैस अरूप है पर उनकी पहचान है, वो अपने अलग-अलग गुणों के कारण पहचानी जाती हैं ।
अरूप होते हुए भी वो अनूप हैं ।
अनाम होते हुए भी सर्वनामी है ।
उसका हर कर्म किसी न किसी गुण के लायक है।
वो सर्व-गुणों से भरपूर है ।
उसका हर एक 'कर्म-नाम' उसके 'गुण-वाचक' नाम है, उसकी सिफ़्त ही 'नाम' है।
उसकी सिफ़्त भी अंनत हैं--इसलिए उसकी प्रशंसा में लिए 'नाम' भी बेअंत हैं ।

इसीलिए सारे 'कर्म-नाम' कथन नहीं किये जा सकते ।
सच्चे गुरु परमात्मा की सिफ़्त (प्रशंसा) में लिए गये 'नामों ' के वर्णन में नहीं जाते तथा ना ही उनको इन प्रशंसा भरे नामों के रटने करने का कोई भर्म है, क्योंकि यह सभी एक निरंकार की प्रशंसा करने तथा गुण-गायन ही तो है ।
पर गुरु का शिष्य ने तो उस 'नाम' को धारणा है --जिस 'नाम' द्वारा वह सर्व-व्यापक हो कर कण-कण में बस रहा है

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