#डर #निर्मल_भय2 (#प्रभु_का_भय)
गुरमत अनुसार 'दुनियावी-भय' का त्याग जरूरी है, पर यह तब तक संभव नहीं, जब तक परमात्मा के 'निर्मल-भय' ग्रहण न किया जाए। सो गुरसिख को :निर्मल-भय' में रह कर जीवन व्यतीत करने की शिक्षा दी गई है। इस के बिना नाम जपने की लग्न नहीं रह सकती :-
"भय' बिन_ लागि न लगई ना मन निरमल_ होइ।।" 427
कबीर जी ने इस 'निर्मल-भय' की लग्न को ही जगाया, तथा मन को प्रोत्साहित करने के लिए कहा कि:-
"कबीर सूता किआ करहि, जागि रोइ 'भै' दुख।।" 1371
जब मन में 'निर्मल-भय' पैदा होता है, तो 'विषय-विकार' भाग खड़े होते हैं । स्वभाव में तब्दीली आ जाती है। पहले वाला 'सांसारिक-भय' मिट जाता है, तथा उसकी जगह 'आत्मक-बल' पैदा हो जाता है :-
"ड्डा डर उपजै डर_ जाइ
ता डर माहि डर_रहिआ समाई ।।" 1093
निर्मल भय से बिना मनुष्य 'आत्मिक-अवस्था' में मुर्दा है ।
"जिन कउ अंदर गिआन नही, 'भै' की नाही बिंद।।
नानक, मुइआ का किआ मारणा, जि आपि मारै गोबिंद।।"1093
भक्ति का बेस 'निर्मल-भय' से ही बनता है :-
"भै' ते उपजै भगति, प्रभ अंतर होइ शांति।।
'निर्मल-भय' रखने वाला मनुष्य परमात्मा को 'हाज़िर-नाज़िर' मानता है, तथा उसको 'अंग-संग' जानता है। इसीलिए वो 'निर-आकार' (निरंकार) को ही 'कर्ता' मानकर सभी कर्म अथवा कार्य, निरंकार की कला समझता है, जब कर्ता ही सब आप है, तो डर क्या?
"डरीऐ' तां जे किछ_आपद_ कीचै"..308
जो 'निरभउ' को जपते हैं, उनके सभी डर नाश हो जाते हैं, वो भी निरभउ निरंकार के समक्ष हो कर 'सांसारिक-भय' से मुक्त हो जाते हैं ।
"निरभउ जपै, सगल भउ_ मिटै।।"..293
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