*श्री गुरू अर्जन देव जी की शहीदी* (Chapter-36)
गुरू अर्जन देव जी सिखों के पांचवें गुरू थे जिनका जन्म 15 अप्रैल 1563 को गोइंदवाल साहिब में हुआ था। गुरू अर्जन देव जी गुरू रामदास जी तथा माता भानी जी के सुपुत्र थे। गुरू अर्जन देव जी को 18 साल की उम्र में सन 1581 में गुरगद्धी प्राप्त हुई। गुरू साहेब ने 1588 में हरमंदर साहिब का निर्माण कार्य शुरू करवाया। गुरू अर्जन देव जी ने आदि ग्रंथ (श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी) के संकलन का कार्य भी भाई गुरदास जी से कराया जो की 31 जुलाई 1604 को संपूर्ण हुआ। दसवंध निकालने की प्रथा भी गुरू जी ने ही शुरू की थी। इसके साथ ही गुरू जी ने शहादतों की उस महान परंपरा को भी शुरू किया था जिसमें आगे चलकर सिखों ने भी अपना योगदान दिया था। गुरू साहेब ने प्रभु का भाणा कैसे माना जाता है इसकी मिसाल भी सिखों के सामने रखी। अगर किसी को कुछ पढ़ाना हो तो पहले स्वयं पढ़ना पड़ता है, कुछ सिखाना हो तो पहले खुद सीखना पड़ता है, शहीद होना और भाणा मानना बताना हो तो खुद भाणा मानकर भी दिखाना पड़ता है। सिख गुरूओं ने सिखों को पहले स्वयं भाणा मानकर, जुल्म सहन करके एक ऐसी अनूठी दृढ़ता सिखाई जिसको सिख आज भी महसूस करते हैं।
उस समय का मुगल शासक जहांगीर गुरू साहेब के प्रभाव व उनके सभी धर्मों के प्रति प्रेम के कारण गुरू जी से ईर्ष्या करने लगा। जहांगीर का पुत्र खुसरो जिसने बगावत कर रखी थी वह गुरू जी के पास गोइंदवाल होकर आगे गुजरा था। उन्हीं दिनों दीवान चंदु भी अपनी लड़की का रिश्ता गुरू अर्जुन देव जी के पुत्र गुरू हरगोबिंद जी के साथ करना चाहता था जिसके लिए सिखों ने मना कर दिया था। फिर चंदु ने जहांगीर को भड़का दिया जिसके कारण गुरू साहेब को मई 1606 को गिरफ्तार करके दो लाख का जुर्माना लगा दिया गया। उस समय चंदु ने कहा कि आपका जुर्माना माफ हो जाएगा बस अपने ग्रंथ में कुछ बदलाव कर दें तथा मोहम्मद साहिब की स्तुति लिख दें और मेरी बेटी का रिश्ता अपने पुत्र के साथ स्वीकार कर लें। गुरू जी ने यह कहकर इनकार कर दिया कि किसी की खुशी के लिए हम अपनी गुरबाणी में कुछ भी अलग नहीं लिख सकते। चंदु ने गुरू जी को कहा कि फिर कष्ट सहने के लिए तैयार हो जाओ।
उसके बाद गुरू जी को पानी से भरी देग (एक बड़े बर्तन) में बैठा दिया गया तथा नीचे आग जला दी गई। चंदु यह सोच रहा था कि आग की गर्मी के कारण गुरू जी मान जायेंगें। पानी को इतना उबाला गया कि गुरू जी के सारे शरीर पर छाले पड़ गये। अगले दिन फिर चंदु ने गुरू जी से वो ही शर्तें मानने को कहा लेकिन गुरू जी गुरबाणी में कुछ भी लिखने को तैयार नहीं थे। गुरू जी को एक लोहे की तवी पर बैठने के लिये कहा गया जिसके नीचे तेज आग जला दी गई। इसके साथ ही पास में एक बड़ी कड़ाही में रेत को गर्म किया गया तथा जब रेत तपकर, गर्म होकर लाल हो गया तो वह रेत लगातार उपर से गुरू जी के नंगे शरीर पर गिराया गया। उस समय मई-जून की झुलसा देने वाली गर्मी थी, गुरू जी जिस लोहे पर बैठे थे वह भी तपकर लाल हो गया था क्योंकि नीचे लगातार आग जलाई जा रही थी तथा उपर से नंगे शरीर पर गर्म लाल रेत डाली जा रही थी, इतनी गर्मी के कारण पास खड़े मुग़लों के भी पसीने छुट रहे थे। लेकिन इतनी गर्मी व तपीस के बाद भी गुरू जी प्रभु के भाणे में शांत व अड़ोल बैठे थे। उसके बाद गुरू साहेब रावी दरिया में स्नान करते समय शरीर को त्यागकर अकाल पुरूख प्रभु के पास विराजमान हो गये। गुरू साहेब की शहादत ने सिखों को कष्ट सहने, अड़ोल रहने तथा प्रभु का भाणा मानने की शिक्षा दी जिसके कारण आगे चलकर हज़ारों सिख शहीद अवश्य हो गये परंतु किसी ने अभी अपना धर्म त्यागना प्रवान न किया। गुरु जी की इसी शहादत को याद करके सिख सभी राहगीरों को ठंडा जल पिलाते हैं जिसे छबिल कहा जाता है। सिखों की ऐसी छबिल पर तो आपने भी मिठा जल अवश्य ही पीया या पिलाया होगा, अब यह मैसेज सभी तक पहुँचाना है ताकि मिठा जल पीने वालों को मिठे जल का कारण भी पता चल जाए।
(यह लेख "सिखी: कल, आज और कल" पुस्तक से लिया गया है। पुस्तक के विषय में अधिक जानकारी के लिए या पुस्तक मंगवाने के लिये sikhikalaajkal@gmail.com
Wednesday, 8 June 2016
श्री गुरू अर्जन देव जी की शहीदी
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