*हे_जीव* !
इस समय तुम
संसार-समुन्द्र को पार करने के प्रबंध
में लग जा ।
माया के स्वाद में
तेरा जीवन व्यर्थ जा रहा है।
*pause* ।
*हे जीव*!
तुझे मनुष्य देह (शरीर) मिली है । यह अब
तेरी परमात्मा को मिलने की बारी (समय) है । और कार्य तेरे किसी भी काम के नहीं
सत- संगत में में मिल बैठ,
तथा प्रभु का 'नाम' सिमर ।1।
मैंने सिमरन,जप- तप , (सख्त कर्म ) संजम, (स्वयं पर काबू ) तथा धर्म की कमाई नहीं की सच्चे साधुओं की सेवा नहीं की ।
हरि प्रभु को नहीं जान पाए ।
*हे नानक* !
ऐसे कह लो कि ये मेरे नीच कर्म हैं ।
मैं आप कि शरण में हूँ ,
मेरी लाज रखो ।2।4।
*SGGS* , रचना: पांचवीं पातशाही श्री गुरु अर्जन देव जी, राग आसा, वाणी: *रहरासि साहिब #भई_परापत*.....
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