Friday, 10 June 2016

गगन मैं थालु

*गगन मै थालु*  *आरती*            मानो, आकाश एक प्लेट है,
सूरज और चाँद, दीपक
तारों का समूह मोती हैं,
चन्दन की सुगंध धूप ।
हवा चवर कर रही है ।
ज्योति स्वरूप !
सारी वनस्पति  मानों फूल हैं ।1।
यह कैसी आरती हो रही है !
हे भय नाशवंत !
तेरी आरती एक-रस, निरंतर ।
ईलाही शब्द ।
मानों, नगाड़े बज़ा रहे हैं ।1।केंद्रीय भाव ।
तेरे हजारों नेत्र। पर,
असल में तेरी कोई आँख नहीं ।
तेरे हजारों स्वरूप हैं । पर,
तेरा एक विशेष स्वरूप नहीं ।
तेरे हजारों ही निर्मल चरण, पर,
तेरा एक भी पैर नहीं ।
तुँ नाशहीन है, पर
तेरे हजारों नाशवान हैं ।
तेरे इस कौतुक ने मेरा मन मोह लिया है ।2।
सबके अन्दर ज्योति है,
यह ज्योति वे स्वयं है ।
उसकी चाँदनी से सब में रोशनी है ।
गुरु की शिक्षा से ये ज्योति प्रकट होतीं है ।
जो उसको मंजुर, वही आरती है ।3।
हरी के चरण-कमलों के शहद के ऊपर
मेरा मन भँवर की तरह मस्त है,
मुझे नित्य इस की ही प्यास है ।
हे परमात्मा ! नानक,
पपीहे (पक्षी) को अपनी मेहर का जल दो,
जिससे मेरा तेरे ‘नाम’ में निवास हो जाए 4।

रचना: गुरु नानक देव जी, राग: धनासरी, (किर्तन सोहिला)
*श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी* ।

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