Sunday, 30 December 2012

गिआन खंड महि...(३६) जपु जी साहिब |

गिआन खंड महि, गिआन परचंडु ||
तिथै, नाद बिनोद कोड अनंदु ||

ज्ञान खंड में भाव मनुष्य कि ज्ञान अवस्था में ज्ञान ही बलवान होता है | इस अवस्थ में मानों सब रागों, तमाशों, तथा कोतुकों का आनंद (स्वाद) आ जाता है | 

सरम खंड की बाणी रूपु ||
तिथै घाड़ति घड़ीऐ, बहुतु अनूपु ||

ऊधम-अवस्था की बनावट सुंदरता है | भाव इस अवस्था में आकर मन दिन-बी-दिन सुंदर बनना शूरू हो जाता है | इस अवस्था में नई घाड़त के कारण मन बहुत सुंदर घड़ा जाता है |

ता किआ गला, कथीआ न जाहि ||
जे को कहै पीछै पछुताई ||

उस अवस्था की बातें ब्यान नहीं की जा सकती | यदि कोई मनुष्य ब्यान करता है ती पिछे पछताता है क्योंकि वह ब्यान करने में असमर्थ रहता है |

तिथै घड़ीऐ, सुरति मति मनि बूधि ||
तिथै घड़ीऐ, सूरा सिधा की सुधि ||३६||

उस मेहनत वाली अवस्था में मनुष्य की सुरति तथा मति घड़ी जाती है, भाव, चित्तवर्ती (सुरति) तथा मति ऊँची हो जाती है तथा मन में जाग्रति आ जाती है | सरम (श्रम) खंड में देवताओं तथा सिद्धों वाली अक्ल  मनुष्य के अंदर बन जाती है |३६|

भाव:- ज्ञान अवस्था की बरकत से जैसे जैसे सारा जगत एक सांझा परिवार दिखता है , जीव प्राणियों की सेवा की मेहनत (श्रम) सिर पर उठाता है, मन की पहली तंग-दिली हटकर विशालता तथा उदारता की घाड़त में, मन नए सिरे से सुंदर घड़ा जाता है, मन में एक नई जाग्रति आती है, चित्तवर्ती  ऊँची होने लगती है | 

Friday, 28 December 2012

धरम खंड का एहो धरमु...(३५) जपु जी साहिब |

धरम खंड का एहो धरमु || गिआन खंड का आखाहु करमु ||

'धर्म खंड' का यही कर्तव्य है, जो पिछले अंश में बताया गया है | अब 'ज्ञान खंड' का कर्तव्य भी समझ लें जो अगली पंक्तियों में है |

नोट : गुरू नानक जी पउड़ी ३४ से ३७ तक मनुष्य कीआत्मिक अवस्था के पांच भाग बताते है : धर्म खंड , ज्ञान खंड, सरम (श्रम) खंड, कर्म खंड तथा सच्च खंड |

केते पवण पाणी वैसंतर, केते कान महेस ||
केते बरमे घाड़ति घड़ीअहि , रूप रंग के वेस ||

परमात्मा की रचना में कई प्रकार के पवन, पानी, तथा अग्नियाँ हैं, कई कर्ष्ण तथा कई शिव हैं | कई ब्रह्मा पैदा किये जा रहे हैं जिन के कई रूप, रंग तथा कई वेश हैं |

केतीआ करम भूमी, मेर केते, केते धू उपदेस ||
केते इंद् चंद सूर केते, केते मंडल देस ||
केते सिध बुध नाथ केते, केते देवी वेस ||

परमात्मा की कुदरत में अनन्त  धरतियां हैं, अनन्त  मेरु पर्वत हैं, अनन्त  ध्रुव भक्त तथा उनके उपदेश हैं | अनन्त  इंद्र देवता, अनन्त  चन्द्रमा, अनन्त  सूर्य तथा अनन्त  भवन चक्र हैं | अनन्त  सिद्ध हैं, अनन्त  बुद्ध अवतार हैं, अनन्त  नाथ हैं तथा अनन्त  देवियों के परिधान हैं |

केते देव दानव, मुनि केते, केते रतन समुंद ||
केतीआ खाणी, केतीआ बाणी, केते पात नरिंद ||
केतीआ सुरती, सेवक केते, नानक, अंतु न अंतु ||३५||

परमात्मा की रचना में अनन्त देवता तथा दैत्य हैं, अनन्त मुनि हैं, अनन्त प्रकार के रत्नों के समुन्द्र हैं | जीव रचना की अनन्त खानें हैं, जीवों की बोलियां भी चार नहीं अनन्त बाणीयाँ हैं, अनन्त बादशाह तथा राजे हैं, अनेक प्रकार के ध्यान हैं, जो जीव मन द्वारा लगाते हैं, अनन्त सेवक हैं | हे नानक ! कोई अन्त नहीं है |३५|

भाव : मानव जन्म के फ़र्ज (धर्म) की समझ आने से मनुष्य का मन बड़ा विशाल हो जाता है | पहले एक छोटे से परिवार के स्वार्थ में बंधा हुआ यह जीव बहुत संकीर्ण ह्र्दय था | अब यह ज्ञान हो जाता है कि अनन्त प्रभु का पैदा किया हुआ यह अनन्त जगत एक बहुत बड़ा परिवार है, जिस में अनन्त क्र्ष्ण, अनन्त विष्णु, अनन्त ब्रह्मा, अनन्त धरतियां हैं | इस ज्ञान के प्रभाव से तंग-दिली हटकर इस के अंदर जगत प्यार कि लहर चलती है तथा खुशी ही खुशी बनी रहती है |  

Wednesday, 26 December 2012

राती रुती थिति वार,,,(३४) जपु जी साहिब|

राती रुती थिति वार || पवण पाणी अगनी पाताल ||
तिसु विचि, धरती थापि रखी धरमसाल || 
तिसु विचि, जीअ जुगति के रंग || तिन के नाम अनेक अनंत ||

रातें, ऋतुएं, तिथियाँ तथा वार, हवा, पानी, आग, पाताल -- इन सब के समुदाय में परमात्मा ने धरती को धर्म अर्जित करने का स्थान बना कर स्थापित कर दिया है | इस धरती पर कई युक्तियों तथा रंगों के जीव बस्ते हैं, जिनके अनेक तथा अनगिनत ही नाम हैं |

करमी करमी होइ विचारु || सचा आपि, सचा दरबारू ||
तिथै सोहनि पंच परवाण || नदरी करमि पवै  निसाणु ||

अनेक नामों वाले तथा रंगों वाले जीवों के अपने अपने किये हुये कर्मों के अनुसार प्रभु के दर पर फैंसला होता है, जिस में कोई गलती नहीं होती, क्योंकि न्याय करने वाला परमात्मा आप  सच्चा है, उस का दरबार भी सच्चा है | उस दरबार में संत जन प्रत्यक्ष रूप से सुशोभित होते हैं तथा कर्पा- दृष्टि रखने वाले परमात्मा की कर्पा से उन संत-जनों को मस्तक पर बडप्पन का निशाँ चमक जाता है |   

कच पकाई, ओथै पाइ || नानक, गइआ जापै जाइ ||३४||

यहाँ संसार में किसी का बड़ा या छोटा कहलवाना कोई अर्थ नहीं रखता | इनका कच्चा होना या पक्का होना परमात्मा के दर पर जा कर मालुम होता  हैं | हे नानक ! परमात्मा के दर पर जाकर ही समझ आती है की असल में कौन पक्का है तथा कौन कच्चा है |३४| 

भाव: जिस मनुष्य पर प्रभु की कर्पा होती है, उसको पहले यह राह समझ आती है कि मनुष्य इस धरती पर कोई खास कर्तव्य पूरा करने के लिये आया है | यहाँ जो अनेक जीव पैदा होते हैं, इन सब के अपने अपने कर्त कर्मों के अनुसार यह फैंसला होता है कि किस किस ने मनुष्य जन्म के मनोरथ को पूरा किया है | जिस कि मेहनत कबूल होती है, वे प्रभु कि हजूरी में आदर पाते हैं | यहाँ संसार में किसी का बड़ा या किसी का छोटा होना कोई अर्थ नहीं रखता |

नोट: उपयुर्क्त विचार आत्मिक मार्ग में जीव कि पहली अवस्था है, ज्यां वह अपने कर्तव्य को पहचानता है | इस आत्मिक अवस्था का नाम 'धर्म खंड' है | 

आखणि जोरू, चुपै नह जोरू...(३३) जपु जी साहिब |

आखणि जोरू, चुपै नह जोरू || जोरू न मंगणि, देणि न जोरू ||
जोरू न जीवणि, मरणि नह जोरू ||जोरू न राजि मालि मनि सोरू ||

बोलने में तथा चुप रहने में भी हमारा कोई अपना वश नहीं है | न ही मांगने में हमारी कोई मर्जी चलती है तथा न ही देने में | जीवन में तथा म्रत्यु में भी हमारी कोई सामर्थ्य काम नहीं आती | इस राज्य तथा माल (एश्वर्य आदि का सामान के प्राप्त करने में भी हमारा कोई जोर नहीं चलता जिस राज्य एश्वर्य के कारण हमारे मन में अहंकार का शोर होता है | 

जोरू न सुरती गिआनि वीचारि || जोरू न जुगती छुटै संसारू ||
जिसु हथि जोरू, करि वेखै सोइ || नानक, उतमु नीचु न कोइ ||३३||

आत्मक जाग्रति में, ज्ञान में तथा विचार में रहने की भी  हमारी सामर्थ्य नहीं है | उस युक्ति में रहने के लिये भी हमारा वश नहीं है, जिस कारण जन्म-मरण समाप्त हो जाता है | वही परमात्मा रचना रच कर उस कि हर तरह से संभाल करता है, जिस के हाथ में सामर्थ्य है |
हे नानक ! अपने आप में न कोई मनुष्य उत्तम है तथा न ही कोई नीच | भाव, म्नुशु को सदाचारी या दुराचारी बनाने वाला प्रभु आप ही है, यदि सिमरन कि बरकत से यह निश्चय बन जाये तो ही परमात्मा से जीव कि दूरी मिटती है |३३|

भाव:- सुमार्ग पर चलना या कुमार्ग पर चलना, जीवों के अपने वश कि बात नहीं | जिस प्रभु ने पैदा किये हैं, वही इन पुतलियों को खेल खिला रहा है | अत: यदि कोई जीव प्रभु का गुण-कीर्तन कर रहा है तो यह प्रभु कि अपनी कर्पा है; यदि कोई इस तरफ से हटा हुआ है तो भी यह स्वामी कि रज़ा है | यदि हम उसके दर से  देह पदार्थ मानते हैं तो यह प्रेरणा भी वह स्वयं ही करने वाला है, तथा फिर दढ पदार्थ देता भी आप ही है  | यदि कोई जीव राज्य तथा धन के नशे में मस्त पड़ा है, यह भी रज़ा प्रभु कि है | यदि किसी की चित्त्व्रती प्रभु के चरणों में है तथा जीवन-युक्ति निर्मल है, तो यह कर्पा भी प्रभु  की ही है |


Monday, 24 December 2012

इक दू जिभौ लख होहि,,,(३२) जपु जी साहिब |

इक दू जिभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस ||
लखु लखु गेड़ा आखीअहि, एकु नामु जगदीस ||

यदि एक जीभ से लाख जीभें हो जाएँ तथा लाख जीभों से बीस लाख बन जाएँ, इस बीस लाख जीभों से यदि परमात्मा के एक नाम को एक एक लाख बार कहें तो भी यह झूठे मनुष्य की झूठी गप्प है भाव, यदि मनुष्य यह सोचे कि मैं अपने उधम से इस तरह नाम सिमरन पा सकता हूँ, तो यह झूठा अहंकार है |


एतु राहि पति पवड़ीआ, चड़ीऐ होइ इकीस ||
सुणि गला आकास की, कीटा आई रीस ||



परमात्मा से दूरी मिटाने वाले मार्ग में परमात्मा को मिलने के लिये जो सीढियाँ हैं उन पर आपा -भाव गंवाकर ही चढ़ सकते हैं | लाखों जीभों से भी गिनती के सिमरन से कुछ नहीं बनता | आपा-भाव दूर किये बिना यह गिनती के पाठों वाला उधम ऐसे है मानों आकाश की बातें सुनकर कीड़ों को भी बराबरी करनी आ गई है कि हम भी आकाश पर पहुँच जाएँ | 



नानक नदरी पाईऐ, कूड़ी कूड़े ठीस ||३२||

हे नानक ! यदि परमात्मा कर्पा -दृष्टि करे, तो ही उसको मिल सकते हैं | नहीं तो झूठे मनुष्य की अपने आप की केवल झूठी ही प्रशंसा है कि मैं सिमरन कर रहा हूँ |३२|



भाव:- झूठ के पर्दे में घिरा हुआ जीव, सांसारिक चिंता, फ़िक्र, दुख-क्लेश की खाई में गिरा रहता है तथा प्र्र्भु का निवास-स्थान मानो एक ऐसा ऊँचा ठिकाना है जहाँ ठण्ड ही ठण्ड है, शीतलता है, शान्ति ही शान्ति है | इस निम्न स्थान से उस ऊँची, आत्मिक अवस्था में मनुष्य तभी पंहुच सकता है, यदि सिमरन की सीढ़ी का सहारा लें | 'तू तू' करता 'तू' में आपा लिन कर दे | इस 'अपनत्व' को न्योछावर किये बिना यह सिमरन वाला उधम ऐसा ही है जैसे आकाश की बातें सुनकर चीटियों को भी वहाँ पंहुचने का शौक पैदा हो जाये, परन्तु चलें अपनी चिंटी की गति से ही | यह भी ठीक है कि प्रभु कि मर्जी में अपनी मर्जी को वही मनुष्य मिटाते हैं जिन पर प्रभु कि कर्पा हो |

Sunday, 23 December 2012

आसणु लोइ लोइ भंडार...(३१) जपु जी साहिब|

आसणु लोइ लोइ भंडार || जो किछु पाइआ, सु एका वार ||
करि करि वेखै सिरजणहारु || नानक, सचे की साची कार ||

परमात्मा के भंडारों का ठिकाना प्रत्येक भवन में है भाव प्रत्येक भवन में परमात्मा के भंडारे चल रहे हैं | जो कुछ परमात्मा ने उन भंडारे में डाला है, एक बार ही दाल दिया है, भाव, उसके भंडारे सदा भरे हैं | सृष्टि को पैदा करने वाला परमात्मा जीवों को पैदा करके उनकी देखभाल कर रहा है |
हे नानक ! सदा सदा अटल रहने वाले परमात्मा का सृष्टि की संभाल वाला यह व्यवहार कार सदा अटल है |

आदेसु, तीसै आदेसु ||
आदि अनिलु अनादि अनाहति, जुगु जुगु एको वेसु ||३१||

केवल उस परमात्मा को प्रणाम करें जो सब का मूल है, जो शुद्ध स्वरूप है, जिस का कोई मूल नहीं खोज सकता, जो नाश-रहित है तथा जो सदा ही एक-सा रहता है | यही तरीका है, जिस से उस प्रभु की दूरी मिट जाती है |३१|

भाव:- बंदगी की बरकत से ही यह समझ आती है की चाहे परमात्मा की पैदा हुई सृष्टि अनन्त है फिर भी उसका पालन करने के लिये उसके भंडारे भी अनन्त हैं, कभी समाप्त नहीं हो सकते | परमात्मा के इस रास्ते में कोई बाधा नहीं पड़ सकती |

Saturday, 22 December 2012

एका माई, जुगतु विहाई...(३०) जपु जी साहिब|

एका माई, जुगतु विहाई, तिनि चेले परवाणु ||
इकु संसारी, इकु भंडारी, इकु लाए दिबाणु ||

लोगों में ख्याल प्रचलित है कि अकेली माया किसी युक्ति से  प्रसुत हुई तथा  प्रत्यक्ष रूप से उस के तिन पुत्र पैदा हुये |  उनमें से एक (ब्रह्मा) संसारी बन गया भाव, जीव जंतुओं को पैदा करने लगा, एक (विष्णु) भंडारे का स्वामी बन गया भाव, जीवों को रिज़क पहुंचाने का काम करने लगा, तथा एक (शिव) कचहरी लगाता हा भाव, जीवों का संहार करता है |

जिव तिसु भावै, तिवै चलावै, जिव होवै फुरमाणु ||
ओहु वेखै, ओना नदरि न आवै, बहुता एहु विडाणु ||

पर वास्तविक बात यह है कि जैसे उस परमात्मा को अच्छा लगता है तथा जैसा उसका हुक्म है, वैसे ही वह स्वयं संसार का व्यहवार चला रहा है | इन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के हाथ कुछ नहीं | यह बड़ा आश्चर्ययुक्त कौतुक है कि वह परमात्मा सब जीवों को देख रहा है, पर जीवों को परमात्मा दिखायी नहीं देता |

आदेसु, तीसै आदेसु ||
आदि अनिलु अनाहति, जुगु जुगु एको वेसु ||३०||

ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि के स्थान पर केवल उस परमात्मा को प्रणाम करें जो शुद्ध स्वरूप है, जो अनादि है जिस का कोई आरम्भ नहीं खोज सकता, जो नाश रहित है तथा जो सदा ही एक जैसा रहता है |  यही साधन है प्रभु से दूरी मिटाने का |३०|

भाव :- जैसे जैसे मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है वैसे वैसे उसको यह ख्याल कच्चे प्रतीत होते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि अलग अलग हस्तियाँ जगत का प्रबंध चला रही हैं | सिमरन करने वाले को विशवास है कि प्रभु स्वयं अपनी रज़ा में अपने हुक्म के अनुसार जगत का कार्य-व्यापार चला रहा है, चाहे जीवों को इन आँखों से वह दिखायी नहीं देता |

Friday, 21 December 2012

भुगति गिआनु, दइआ भंडारणि...(२९) जपु जी साहिब |

भुगति गिआनु, दइआ भंडारणि, घटि घटि वाजहि नादि ||
आपि नाथु, नाथी सभ जा की, रिधि सिधि अवरा साद ||
संजोगु विजोगु दुइ कार चलावहि, लेखे आवहि भाग  ||

हे योगी ! यदि परमात्मा की सर्व व्यापकता का ज्ञान तेरे लिये भंडारा चूरमा हो, दया इस ज्ञान रूप भंडारे को बांटने वाली हो, प्रत्येक जीब के अंदर जो जिंदगी की रौ चल रही है, भंडारा खाते समय तेरे अंदर यह नाडी बज रही हो, तेरा  नाथ आप परमात्मा हो, जिस के वश में सारी सृष्टि है, तब कूड़ की दीवार तेरे अंदर से टूट जाने पर परमात्मा से तेरी दूरी मिट सकती है | योग साधना द्वारा प्राप्त हुई ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ  व्यर्थ हैं, ये ऋद्धियाँ  तथा सिद्धियाँ तो किसी अन्य ओर ले जाने वाले स्वाद हैं | परमात्मा को 'संजोग' सत्ता तथा 'विजोग' सत्ता दोनों मिल कर इस संसार के व्यावार को चला रही हैं भाव, पिछले संजोगों  के कारण परिवार आदि के जीव यहाँ आकर एकत्र होते हैं | रज़ा में बिछुड बिछुड कर आपनी अपनी बारी यहाँ से चले जाते हैं | रज़ा जीवों के किये कर्मों के लेखे के अनुसार दर्जा-बा-दर्जा सुख-दूख के हिस्से मिल रहे हैं यदि यह विशवास बन जाये तो अंदर से कूड़  की दीवार टूट जाती है | 


आदेसु तीसै आदेसु ||
आदि अनिलु अनादि  अनाहति, जुगु जुगु एको वेसु ||੨੯||

जो कूड़ (असत्य) की दीवार को दूर करने के लिये केवल उस परमात्मा को प्रणाम करें जो सब का आदि है, जो शुद्ध स्वरूप है, जिस का कोई मूल नहीं ढूँढ सकता , जो नाश रहित है तथा जो सदा ही एक जैसा रहता है |२੯||
भाव :- सिमरन की बरकत से यह ज्ञान पैदा होगा कि प्रभु प्रत्येक स्थान पर भरपूर है तथा सब का स्वामी है | उसकी रज़ा में जीव यहाँ एकत्र होते हैं, तथा रज़ा में ही यहाँ से चले जाते हैं | यह ज्ञान पैदा होने से जीवों के साथ प्यार करने का तरीका आएगा |योग-अभ्यास के द्वारा प्राप्त होई ऋद्धियाँ तथा  सिद्धियाँ  को ऊँचा जीवन समझ लेना भूल है | यह तो कुमार्ग पर ले जाती हैं | इसकी सहायता से योगी लोग साधारण जनता पर दबाव डालकर उनको इंसानियत से गिराते हैं |

Thursday, 20 December 2012

मुंदा संतोख, सरमु पतु ...(२८),,जपु जी साहिब|


मुंदा संतोख, सरमु पतु झोली, धिआन की करहि बिभूति ||
खिंथा कालु, कुआरी काइआ जुगति, डंडा परतीति ||

हे योगी ! यदि तू संतोष को अपनी मुद्राएं (कान में डालनी वाली) बनाए, मेहनत को बर्तन तथा झोली, और परमात्मा के ध्यान को शरीर पर लगाई जाने वाली राख, मौत का डर तेरी गोदड़ी हो, शरीर को विकारों से बचाकर रखना तेरे लिये योग की  रहत (मर्यादा) हो तथा श्रदा को डंडा बनाए तो अंदर से कूड़ (असत्य) की दीवार टूट सकती है |

आई पंथी, सगल जमाती, मनि जीतै जगु जीतु ||
आदेसु तीसै आदेसु ||
आदि अनिलु अनादि  अनाहति, जुगु जुगु एको वेसु ||

जो मनुष्य सारी सृष्टि के जीवों को अपने सज्जन मित्र समझता है, असल में वही आई पंथ वाला है | यदि अपना मन जीत लिया जाये तो सारा जगत जीत  लिया जाता है भाव, तब जगत की माया परमात्मा से प्रथक नहीं कर सकती | इसलिये कूड़ (असत्य) की दीवार को दूर करने के लिये केवल उस परमात्मा को प्रणाम करें जो सब का आदि है, जो शुद्ध स्वरूप है, जिस का कोई मूल नहीं ढूँढ सकता , जो नाश रहित है तथा जो सदा ही एक जैसा रहता है |२८|

भाव :- योग मत के खिंथा, मुद्रा, झोली आदि प्रभु के जीव की दूरी मिटाने में समर्थ नहीं है | ज्यों ज्यों अटल प्रभु की याद में जुडेंगे, संतोष वाला जीवन बनेगा, सत्य की मेहनत करने की आदत बनेगी, मौत सिर पर याद रहेगी तथा विकारों से बचे रहेंगे, प्रभु की हस्ती में विशवास बनेगा तथा सारे जीवों में  वह प्रभु बसता दिखाई देगा | 



गुरू नानक, जपु जी साहिब |२८ | 

Monday, 10 December 2012

सो दर केहा, सो घरु केहा,,,(२७) जपु जी साहिब |

सो दर केहा, सो घरु केहा, जितु बहि सरब समाले ||
वाजे नाद अनेक असंखा, केते वावणहारे ||
केते राग परी सिउ कहिअनि, केते गावणहारे ||

हे निरंकार ! वह दर-घर बड़ा ही आश्चर्युक्त है जहाँ बैठ कर तू सारे जीवों को संभाल रहा है | तेरी इस रची हुई कुदरत में अनेक तथा अनगणित बाजे तथा राग हैं, अनन्त ही जीव उन बाजों को बजाने वाले हैं, रागनियों सहित अनन्त ही राग कहे जाते हैं तथा अनेक ही जीव इन रागों को गाने वाले है जो तुझे गा रहे हैं |

गावहि तुह्नो, पउणु पाणी बैसंतरु, गावै राजा धरमु दुआरे ||
गावहि चितु गुपतु लिखि जाणहि, लिखि लिखि धरमु वीचारे |


हे निरंकार ! पवन, पाणी, अग्नि तेरे गुण गा रहे हैं | धर्मराज तेरे दर -घर खड़ा होकर तेरी बडाई कर रहा है | वह चित्र गुप्त भी, जो जीवों के अच्छे बुरे कर्मों के लेखे लिखना जानते हैं तथा जिन के लिखे हुये को धर्मराज विचार करता है, तेरे गुण गा रहे हैं |


गावहि इसरू बरमा देवी, सोहनि सदा सवारे ||
गावहि इंद् इदासणि बैठे, देवतिआ दरि नाले ||



‎...हे परमात्मा ! देवियाँ, शिव तथा ब्रह्मा जो तेरे सँवारे हुये हैं, तुझे गा रहे हैं | कई इंद्र अपने तख़्त पर बैठे हुये देवताओं सहित तेरे दर पर तुझे सराह रहे हैं |...


गावहि सिध समाधी अंदरि, गावहि साध विचारे ||
गावानि जति सती संतोखी, गावहि वीर करारे ||

सिद्द लोग समाधियां लगा लगा कर तुझे गा रहे हैं, साधु विचार कर कर तुझे सराह रहे हैं | जती, दानी तथा संतोष युक्त मनुष्य तेरे गुण गा रगे हैं तथा अनन्त बलशाली शूरवीर तेरा गुणगान कर रहे हैं |



गावनि पंडित पढनि रखीसर, जुगु जुगु वेदा नाले ||
गावहि मोहणीआ मनु मोहनि, सुरगा मछ पइआले ||


हे परमात्मा ! पंडित तथा महा ऋषि, जो वेदों को पढते हैं, वेदों सहित तुम्हें गा रहे हैं | सुंदर स्त्रियाँ जो स्वर्ग, मात् लोक तथा पाताल में अर्थात प्रत्येक स्थान पर मनुष्य का मन मोह लेती हैं, तुम्हें गा रही हैं |

गावनि रतन उपाए तेरे, अठसठि तीरथ नाले ||
गावहि जोध महा बल सूरा, गावहि खाणी चारे ||
गावहि खंड मंडल वरभंडा करि करि रखे धारे ||



हे परमात्मा ! तेरे पैदा किये हुये रत्न, अड़सठ (६८) तीर्थों सहित तुम्हें गा रहे हैं | महाबली योधा तथा शूरवीर तेरी सराहना कर रहे हैं |चारों ही खानों के जीव-जंतु तुझे गा रहे हैं | सारी सृष्टि, सृष्टि के सारे खंड तथा चक्र, जो तुम ने पैदा कर के टिकाये हुये हैं. तुझे गाते हैं |


सेई तुधनो गावहि, जो तुधु भावनि, रते तेरे भगत रसाले ||
होरि केते गावनि से मै चिति न आवनि, नानक किआ वीचारे ||

हे परमात्मा ! असल में तो वही तेरे प्रेम में रत रसिक भक्त जन तुझे गाते हैं भाव, उनका गाना भी सफल है जो तुझे अच्छे लगते हैं | अनेक अन्य जीब तुझे गा रहे हैं, जो मुझ से गिने भी नहीं जा सकते | भला नानक बेचारा क्या विचार कर सकता है ?

सोई सोई सदा सचु, साहिबु साचा, साची नाई ||
है भी होसी, जाइ न जासी, रचना जिनि रचाई ||

जिस परमात्मा ने यह सृष्टि पैदा की है वह इस समय मौजूद है, सदा रहेगा, न वह पैदा हुआ है तथा न वह न ही मरेगा | वह परमात्मा सदा अटल है, वह स्वामी सच्चा है, उस का बडप्पन भी सदा अटल है |


रंगी रंगी भाती करि करि, जिनसी माइ़आ जिनि उपाई ||
करि करि वेखै कीता आपणा, जिव तिस दी वडिआई ||
जिस परमात्मा ने कई रंगो, किस्मों तथा जिन्सों कि माया रची है, वह जैसे उसकी रज़ा है भाव, जितना बड़ा आप है उतने बड़े दिल से जगत को रच कर अपने पैदा किये हुये की संभाल भी कर रहा है |
जो तिसु भावै सोई करसी, हुकमु न करणा जाई ||
सो पातसाहु, साहा पातसाहिबु, नानक रहणु रजाई ||२७||
जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है, वही करेगा, किसी जीव द्वारा परमात्मा के आगे हुक्म नहीं किया जा सकता (उसको यह नहीं कह सकते --'ऐसा न कर, ऐसा कर') परमात्मा बादशाह है, बादशाहों का भी बादशाह है | हे नानक ! जीवों को उस की रज़ा में रहना ही जंचता है |२७|

भाव :- कई रंगों की, कई किस्मों की, कई पदार्थों की, अनन्त रचना परमात्मा ने रची है | इस असीम सृष्टि की संभाल भी स्वयं ही कर रहा है, क्योंकि वह स्वयं ही एक जैसा है जो सदा स्थिर रहने वाला है | जगत में ऐसा कौन है जो यह कह सके कि कैसे स्थान पर बैठ कर वह सर्जनहार इस अनन्त रचना कि संभाल करता है ? किसी मनुष्य की ऐसी सामर्थ्य ही नहीं | मनुष्य को तो केवल एक ही बात जचती है कि प्रभु कि रज़ा में ही रहे | यही है साधन प्रभु से दूरी मिटाने का तथा यही है इसके जीवन का मनोरथ | देखें ! हवा, पानी आदि तत्वों से लेकर उच्च जीवन वाले महापुरुष तक सब अपने अपने अस्तित्व के मनोरथ को सफल कर रहे हैं भाव, उस के हुक्म अनुसार कार्य कर रहे हैं |

[गुरू नानक कि वाणी जपु जी साहिब कि सताइसवीं पौड़ी के भावार्थ ]

गुरू नानक, जपु जी साहिब |२७|Cont...

Monday, 3 December 2012

मनै, मारगि ठाक ....(१४) जपु जी साहिब |


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मनै, मारगि ठाक न पाइ || मनै, पति सिउ परगटु जाइ ||
मनै, मगु न चलै पंथु || मनै, धरम सेती सनबंधु ||
ऐसा नामु निरंजनु होइ || जे को मंनि जाणै मनि कोइ ||१४||
जपु जी साहिब|

यदि मनुष्य का मन नाम में लग जाए तो जिंदगी की राह में विकारों आदि की कोई रुकावट नहीं पड़ती | वह संसार में यश कमा कर सम्मान के साथ जाता है
उस मनुष्य का धर्म के साथ सीधा संबंध बन जाता है| वह फिर दुनिया के भिन्न-भिन्न धर्मों के बताए रास्तों पर नहीं चलता |
भाव, उसके अंदर यह विचार नहीं आता कि यह रास्ता अच्छा है और यह रास्ता बुरा है|
परमात्मा का नाम जो माया के प्रभाव से परे है, इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, परन्तु यह बात तब भी समझ में आती है जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लग्न पैदा कर के|१४|

याद की बरकत से जैसे जैसे मनुष्य का प्यार परमात्मा से बनता है, इस सिमरन रूप 'धर्म' के साथ उसका इतना गहरा सम्बन्ध बन जाता है कि कोई रुकावट उसको इस सही निशाने से हटा नहीं सकती| अन्य पग-डंडियो भी उसे कुमार्ग पर नहीं ले जा सकतीं|

मनै, सुरति होवै....(१३) जपु जी साहिब |


मनै, सुरति होवै मनि बुधि।। मनै, सगल भवण की सुधि।।
मनै मुहि चोटा ना खाइ।। मनै जम कै साथि न जाइ।।
ऐसा नामु निरंजनु होइ।। जे को मनि जाणै मनि कोइ।।१३।।

यदि मनुष्य के मन में प्रभु के नाम कि लग्न लग जाये, तो उसकी चितवृति ऊँची हो जाति है, उस के मन में जागृति आ जाती है, भाव, माया में सोया मन जागृत हो जाता है, सारे भवनों की उसे सुझ हो जाती है कि हर स्थान पर प्रभु व्यापक है।
वह मनुष्य संसार के विकारों की चोटें मुँह पर नहीं खाता, भाव, सांसारिक विकार उसको दबा नहीं सकते तथा यमों के साथ नहीं जाता, भाव, वह जन्म-मरण के चक्र से बच जाता है।
परमात्मा का नाम जो माया के नाम से परे है , इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है पर यह बअत तब समझ आती है, यदि कोई मनुष्य अपने मन में हरि-नाम की लग्न पैदा कर के। १३।

प्रभु चरणों की प्रीती मनुष्य के मन में प्रकाश पैदा कर देती है, सारे संसार में उसको परमात्मा ही दिखाई देता 


है। उसको विकारों की चोतें नहीं पड़ती तथा न ही उसको मौत डरा सकती है।  

मंने की गति ....(१२) जपु जी साहिब |


मंने की गति कही न जाइ|| जे को कहै, पिछै पछुताइ||
कागदि कलम न लिखणहारु|| मंने का, बहि करनि विचारु||
ऐसा नामु निरंजनु होइ|| जे को मंनि जाणै मनि कोइ ||१२||

उस मनुष्य की उच्च आत्मिक अवस्था बताई नहीं जा सकती, जिस ने परमात्मा के नाम को मान लिया है, भाव, जिसकी लग्न नाम में लग गई है/ यदि कोई मनुष्य ब्यान करे तो भी वह बाद में पछताता (पश्चाताप ) है कि मैंने अभी कम यत्न किया है/ 
मनुष्य मिलकर
 'नाम' में विशवास रखने वाले की आत्मिक अवस्था का अंदाजा लगाते हैं परन्तु कागज पर कलम से कोई मनुष्य लिखने में समर्थ नहीं है/
परमात्मा का नाम बहुत ऊँचा है, तथा माया के प्रभाव से परे है / इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है परन्तु यह भाव तभी समझ में आती है जब कोई मनुष्य अपने अंदर लग्न लगा कर देखे |१२||
 


प्रभु माया के प्रभाव से बहुत उच्चा है / उस के नाम में ध्यान जोड़कर जिस  मनुष्य के मन में उसकी लग्न लग 

जाती है उस की भी आत्मा माया की मार से ऊपर हो जाती है 


जिस मनुष्य की प्रभु से लग्न लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता ण कोई ब्यान कर सकता है न कोई लिख 

सकता है/

सुणिऐ, सरा गुणा....(११) जपु जी साहिब |

सुणिऐ, सरा गुणा के गाह || सुणिऐ, सेख पीर पातसाह ||

सुणिऐ, अंधे पावहि राहु|| सुणिऐ, हाथ होवै असगाहु||


नानक, भगता सदा वीगासु|| सुणिऐ, दूख पाप का नासु ||११ ||



हे नानक ! परमात्मा के नाम में ध्यान जोड़ने वाले भक्त जनों के हृदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है, क्योंकि 

परमात्मा कागुण-कीर्तन सुन ने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है। 

परमात्मा के नाम में ध्यान जोड़ने से साधारण मनुष्य अनन्त गुणों की सूझ वाले हो जाते हैं, शेख, पीर तथा 

पातशाहों की पदवी प्राप्त कर लेते हैं/ यह नाम सुनने की ही बरकत है कि अन्धे ज्ञान हीन मनुष्य भी परमात्मा 

के मिलन का रास्ता खोज लेते हैं/ अकाल पुरख परमात्मा के नाम से जुड़ने के परिणाम स्वरूप इस गहरे 

संसार-समुन्द्र की असलियत समझ में आ जाती है /११/



जैसे-जैसे ध्यान नाम में जुडता है, मनुष्य दैवी गुणों के समुन्द्र में डुबकी लगाता है/ संसार अथाह समुन्द्र है, 

जहाँ परमात्मा से बिछुड़ा हुआ जीव अन्धों की तरह हाथ पैर मारता है/ परन्तु नाम में जुड़ने से जीव जीवन का 

सहि मार्ग खोजता है /११/ 

सुणिऐ, सतु संतोखु....(१०) जपु जी साहिब |


सुणिऐ, सतु संतोखु गिआनु।। सुणिऐ, अठसठि का इसनानु।।
सुणिऐ, पढ़ि पढ़ि पावहि मानु।। सुणिऐ, लागै सहजि धिआनु।
 नानक, भगता सदा विगासु।। सुणिऐ, दूख पाप का नासु।।१०।।

हे नानक ! परमात्मा के नाम में ध्यान जोड़ने वाले भक्त जनों के हृदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है, क्योंकि परमात्मा का
गुण-कीर्तन सुन ने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है। 
प्रभु के नाम में जुड़ने से हृदय मे् दान देने के स्वभाव संतोष तथा प्रकाश प्रकट हो जाता है, मानों अड़सठ तीर्थों का स्नान ही 
हो जाता है भाव, अड़सठ तीर्थों के स्नान नाम जपने मे् ही आ जाते हैं । जो सत्कार मनुष्य विद्मा पढ़ कर प्राप्त करते हैं, वह भक्त जनों को परमात्मा के नाम मे् जुड़ कर ही मिल जाता है। नाम सुन ने में अडोलता मे चित्तवृति टिक जाती है।१०।

नाम में ध्यान जोड़ने से ही मन विशाल होता है, ज़रुरतमंदों की सेवा तथा सतोष वाला जीवन बनता है। नाम में डुबकी ही अड़सठ तीर्थों का स्नान है, जगत के किसी मान-सम्मान की प्रवाह नही रह जाती, मन सहज-अवस्था में, अडोलता मे
 मग्न रहता है।

सुणिऐ, इसरू बरमा ....(९) जपु जी साहिब |


सुणिऐ, इसरू बरमा इंदु|| सुणिऐ, मुखि सालाहण मन्दु||
सुणिऐ, जोग जुगति तनि भेद|| सुणिऐ, सासत सिमिर्त वेद||
नानक ! भागता सदा विगासु || सुणिऐ, दूख पाप का नासु||

हे नानक ! 'नाम' से प्रेम करने वाले भक्त जनों के ह्रदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है/ क्योंकि परमात्मा का गुण- कीर्तन सुनने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है/ परमात्मा के 'नाम' से ध्यान जोड़ने के परिणाम स्वरूप साधारण मनुष्य शिव, ब्रह्मा तथा इंद्र की पदवी पर पहुँच जाता है, बुरा मनुष्य भी मुहं से परमात्मा की बड़ाई (गुण-कीर्तन) करने लग जाता है/ साधारण बुद्धि वाले को भी शरीर की गुप्त बातें भाव, आँख, कान, जीभ आदि इन्द्रियों के कार्य व्यापार तथा उनकी विकारों की तरफ़ दौड़-भाग के भेद का पता लग जाता है, प्रभु मिलाप की युक्ति की समझ आ जाती है, शास्त्रों, स्मृतियों तथा वेदों का ज्ञान हो जाता है / 

भाव , धार्मिक पुस्तकों  का वास्तविक उच्च लक्षय तब समझ आ जाता है जब हम इस नाम में ध्यान जोड़ते हैं, नहीं तो केवल शब्दों को ही पढ लेते हैं/ उस असली भावना में नहीं पहुँचते जिस भावना में पहुँच कर उन धार्मिक पुस्तकों का उच्चारण किया होता है / 


सुणिऐ, सिध पीर ....(८) जपु जी साहिब |


सुणिऐ, सिध पीर सुरि नाथ || सुणिऐ, धरति धवल आकाश || 
सुणिऐ, दीप लोअ पाताल|| सुणिऐ, पोहि न सकै काल || 
नानक, भगता सदा विगासु|| सुणिऐ, दुख पाप का नासु||८||

हे नानक ! अकाल पुरख (परमात्मा) के नाम में ध्यान लगाने वाले भगत जनों के ह्रदय में सदा प्रफुलता बनी रहती है , क्योंकि उसका गुण कीर्तन सुनने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है/ यह नाम ह्रदय में बसाने की ही बरकत है कि साधारण मनुष्य सिद्धों, पीरों, देवताओं तथा नाथों की पदवी प्राप्ति कर लेते हैं/ तथा उनको यह ज्ञान हो जाता है कि धरती, आकाश, का आसरा वह प्रभु है जो सारे दीपों, लोकों तथा पातालों में व्यापक है/८/ 



भाव : गुण कीर्तन में जुड़कर साधारण मनुष्य भी उच्च आत्मिक पद पर पंहुच जाते हैं / उनको प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रभु सारे खंड ब्रम्न्द्द में व्यापक है त्तथा धरती आकाश का आश्रय है/ इस प्रकार सर्वत्र प्रभु का दीदार होने से उनको मौत का डर भी प्रभावित नहीं करती /

जे जुग चारे आरजा....(७) जपु जी साहिब |


जे जुग चारे आरजा , होर दसूणी होइ ||
नवां खंडा विचि जाणीऐ, नालि चलै सभु कोइ||

यदि किसी मनुष्य की आयु चार युगों जितनी हो जाए , केवल इतनी ही नहीं बल्कि यदि इससे भी दस गुणा अधिक आयु हो जाए, यदि वह सारे संसार में भी प्रगट हो जाए तथा प्रत्येक मनुष्य उसके पीछे लग कर चलें 
पर यदि वह बंदगी के गुण से हीन है, तो प्रभु की क्रपा का पात्र नहीं बन सकता /


चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ।।
जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के।।
कीटा अंदरि कीटु, करि दोसी दोसु धरे।

अर्थ : अगर मनुष्य अच्छा यश कमाकर सारे संसार में शोभा भी प्राप्त कर ले, परन्तु यदि परमात्मा की कृपा- दृष्टि में नहीं आ सकता, तो वह उस मनुष्य जैसा है जिसकी कोई बात नहीं पूछता । भाव, इतने मान- सम्मान वाला होते हुए भी असल में निराक्षय ही है । बल्कि ऐसा मनुष्य परमात्मा के सामने एक मामूली सा कीड़ा है। परमात्मा उस को दोषी निर्धारित करके उस पर 'नाम' भूलने का दोष लगाता है ।७।





नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे।।
तेहा कोइ न सुझई, जि तिसु गुणु कोइ करे।।७। 



हे नानक ! वह परमात्मा गुणहीन मनुष्य में गुण पैदा कर देता है तथा गुणी मनुष्यों को भी गुण देने की कृपा वही करता है। ऐसा अन्य कोई नहीं दिखाई देता, जो निर्गुण जीव को कोई गुण दे सकता हो । प्रभु की कृपा दृष्टि ही उसको ऊँचा कर सकती है, लम्बी उमर तथा जगत की शोभा सहायता नहीं करती।७।


भाव : प्राणायाम की सहायता से दीर्घ आयु कर जगत में चाहे मनुष्य का मान-आदर बन जाये, पर यदि वह बंदगी के गुण से हीन है, तो प्रभु की कृपा का पात्र नहीं बना। प्रभु की दृष्टि मं तो वह नाम हीन जीव एक छोटा-सा कीड़ा है। यह बंदगी वाला गुण जीव को प्रभु की कृपा से ही मिल सकता है।

तीरथि नावा, जे तिसु....(६) जपु जी साहिब |


तीरथि नावा, जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।।
जेती सिरठि उपाइ वेखा, विणु करमा कि मालै लइ।।

मैं तीरथ पर जाकर तब स्नान करूँ यदि ऐसा करने से उस परमात्मा को खुश कर सकूँ, परन्तु यदि इस तरह परमात्मा खुश नहीं होता, तब मैं तीर्थ पर स्नान करके क्या अर्जित करूँगा ?
परमात्मा की पैदा की हुई जितनी भी दुनिया मैं देखता हूँ, इस में परमात्मा की कृपा के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता, कोई कुछ नहीं ले सकता |

मति विचि रतन जवाहर माणिक, जे इक गुर की सिख सुणी।।
गुरा, इक देहि बुझाई।।
सभना जीआ का इकु दाता, सो मै विसरि न जाई।।६।।



यदि सतिगुरू की एक शिक्षा सुन ली जाये, तो मनुष्य की बुद्धि के अंदर रत्न, जवाहरात तथा मोती उत्पन्न हो जाते हैं, भाव, परमात्मा के गुण पैदा हो जाते हैं।
हे सतिगुरू ! मेरी तेरे आगे प्रार्थना है कि मुझे एक यह समझ दे, जिस से मुझे वह परमात्मा न भूल जाये, जो सारे जीवों को देह पदार्थ देने वाला है।६।


भाव : तीर्थ पर स्नान भी प्रभु की प्रसन्नता तथा प्यार की प्राप्ति का साधन नहीं है। जिस
पर कृपा हो, वह गुरू के रास्ते पर चल कर प्रभु की याद से जुड़ें । बस ! उसी मनुष्य की बुद्धि मे परिवर्तन होता है।

थापिआ न जाइ,.....(५) जपु जी साहिब |




परमात्मा के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा बन जाता है,कोई बुरा।
उसके हुक्म में ही अपने किये हुये कर्मों के लिखे अनुसार दु:ख तथा सुख भोगे जाते हैं ।
हुक्म में ही कई मनुष्यों पर अकाल पुरख (परमात्मा) के दर से कृपा होती है।
उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरन के चक्र मे घुमाये जाते हैं ।



गुरमखि नादं, गुरमुखि वेदं, गुरमुखि रहिआ समाई।।
गुरु ईसरु, गुरु गोरखु बरमा, गुरु पारबती माई।।


 ज्ञान गुरू द्वारा प्राप्त होता है।गुरू द्वारा ही यह विश्वास पैदा होता है कि वह हरि सर्वत्र व्यापक है।
गुरू ही हमारे लिये शिव है, गुरू ही हमारे लिये गोरख तथा ब्रहमा है तथा गुरू ही हमारे लिये माई पार्वती है।...

जे हउ जाणा, आखा नाही, कहणा कथनु न जाई।।
गुरा, इक देहि बुझाई।।
सभना जीआ का इकु दाता, सो मै विसरि न जाई।।५।।

वैसे परमात्मा के इस हुक्म को यदि मैं समझ भी लूँ तो भी उस का वर्णन नहीं कर सकता। अकाल पुरख (परमात्मा) के हुक्म का कथन नहीं किया जा सकता। मेरी तो हे सतगुरू ! तेरे आगे प्रार्थना है कि मुझे एक समझ दे कि जो सब जीवों को देह पदार्थ देने वाला एक परमात्मा है, मैं उसको भुला न दूँ ।५।

भाव : प्रेम को मन में बसा कर जो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, उसके हृदय में सदा सुख तथा शांति का निवास होता है। परन्तु यह याद , यह बन्दगी गुरू से मिलती है। गुरू ही यह दृढ़ कराता है कि प्रभु सर्वत्र बस रहा है, गुरू द्वारा ही जीव की प्रभु से दूरी समाप्त होती है। तब तो गुरू से ही बंदगी की दाति मांगें ।

साचा साहिबु, साचु नाइ....(४) जपु जी साहिब |


साचा साहिबु, साचु नाइ, भाखिआ भाउ अपारु ।।
आखहि मंगहि देहि देहि, दाति करे दातारु ।।

परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है। उसका नियम भी सदा अटल है। उसकी बोली प्रेम है तथा वह स्वयं अकाल पुरख (परमात्मा) अन्नत है। हम जीव उससे 'देह पदार्थ' मांगते हैं, (हे हरि ! हमे पदार्थ) 'दे'। वह दाता कृपा करता है।
...

नोट : उसकी बोली प्रेम है। प्रेम ही साधन है जिस के द्वारा वह हमारे साथ बातें करता है, हम उसके साथ कर सकते है।
फेरि कि अगै रखिऐ, जितु दिसै दरबारु||
मुहौ कि बोलीए, जितु सुणि धरे पिआरु||



(यदि सारे देह पदार्थ वह स्वयं ही दे रहा है तो) फिर हम कौन-सी भेंट उस परमात्मा के आगे रखें, जिस की बदोलत हमें उसका दरबार दिख जाये ? हम मुख से कौन-सा बचन बोलें (भाव, कैसी अरदास करें) जिस को सुन कर वह हरि (हमें) प्यार करे ? 
... 

भाव : दान पुण्य करना या माया सम्बन्धी भेंट अर्पण करने से जीव की प्रभू से दूरी मिट नहीं सकती, क्योंकि यह (दाति) देह पदार्थ तो सभी प्रभु के ही दिये हुये हैं । उस प्रभु से बातें उसकी अपनी बोली से ही हो सकती हैं तथा वह बोली हे 'प्रेम' । जो मनुष्य प्रात;काल में उठ कर उसकी याद में जुड़ता है, उसको 'प्रेम पटोला' मिलता है, जिसकी कृपा से उसको सर्वत्र परमात्मा ही दिखाई देने लगता है। 

गावै को ताणु हौवै........(३) जपु जी साहिब |


गावै को ताणु हौवै किसै ताणु ।।
गावै को दाति जाणै नीसाणु ।।

जिस किसी मनुष्य में सामर्थ्य होती है वह परमात्मा के बल का गायन करता है (भाव, उसका गुण-कीर्तन करता है, उसके उन कार्यों का कथन करता है जिनसे उसकी अपार शक्ति प्रकट हो) । कोई मनुष्य उसके द्वारा दिये गये पदार्थों का ही गुण-गान करता है (क्योंकि इन देय-पदार्थों को वह परमात्मा की कृपा का) निशान समझता है।