Monday, 3 December 2012

तीरथि नावा, जे तिसु....(६) जपु जी साहिब |


तीरथि नावा, जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।।
जेती सिरठि उपाइ वेखा, विणु करमा कि मालै लइ।।

मैं तीरथ पर जाकर तब स्नान करूँ यदि ऐसा करने से उस परमात्मा को खुश कर सकूँ, परन्तु यदि इस तरह परमात्मा खुश नहीं होता, तब मैं तीर्थ पर स्नान करके क्या अर्जित करूँगा ?
परमात्मा की पैदा की हुई जितनी भी दुनिया मैं देखता हूँ, इस में परमात्मा की कृपा के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता, कोई कुछ नहीं ले सकता |

मति विचि रतन जवाहर माणिक, जे इक गुर की सिख सुणी।।
गुरा, इक देहि बुझाई।।
सभना जीआ का इकु दाता, सो मै विसरि न जाई।।६।।



यदि सतिगुरू की एक शिक्षा सुन ली जाये, तो मनुष्य की बुद्धि के अंदर रत्न, जवाहरात तथा मोती उत्पन्न हो जाते हैं, भाव, परमात्मा के गुण पैदा हो जाते हैं।
हे सतिगुरू ! मेरी तेरे आगे प्रार्थना है कि मुझे एक यह समझ दे, जिस से मुझे वह परमात्मा न भूल जाये, जो सारे जीवों को देह पदार्थ देने वाला है।६।


भाव : तीर्थ पर स्नान भी प्रभु की प्रसन्नता तथा प्यार की प्राप्ति का साधन नहीं है। जिस
पर कृपा हो, वह गुरू के रास्ते पर चल कर प्रभु की याद से जुड़ें । बस ! उसी मनुष्य की बुद्धि मे परिवर्तन होता है।

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