मनै, सुरति होवै मनि बुधि।। मनै, सगल भवण की सुधि।।
मनै मुहि चोटा ना खाइ।। मनै जम कै साथि न जाइ।।
ऐसा नामु निरंजनु होइ।। जे को मनि जाणै मनि कोइ।।१३।।
यदि मनुष्य के मन में प्रभु के नाम कि लग्न लग जाये, तो उसकी चितवृति ऊँची हो जाति है, उस के मन में जागृति आ जाती है, भाव, माया में सोया मन जागृत हो जाता है, सारे भवनों की उसे सुझ हो जाती है कि हर स्थान पर प्रभु व्यापक है।
वह मनुष्य संसार के विकारों की चोटें मुँह पर नहीं खाता, भाव, सांसारिक विकार उसको दबा नहीं सकते तथा यमों के साथ नहीं जाता, भाव, वह जन्म-मरण के चक्र से बच जाता है।
परमात्मा का नाम जो माया के नाम से परे है , इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है पर यह बअत तब समझ आती है, यदि कोई मनुष्य अपने मन में हरि-नाम की लग्न पैदा कर के। १३।
प्रभु चरणों की प्रीती मनुष्य के मन में प्रकाश पैदा कर देती है, सारे संसार में उसको परमात्मा ही दिखाई देता
है। उसको विकारों की चोतें नहीं पड़ती तथा न ही उसको मौत डरा सकती है।
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