Monday, 3 December 2012

साचा साहिबु, साचु नाइ....(४) जपु जी साहिब |


साचा साहिबु, साचु नाइ, भाखिआ भाउ अपारु ।।
आखहि मंगहि देहि देहि, दाति करे दातारु ।।

परमात्मा सदा स्थिर रहने वाला है। उसका नियम भी सदा अटल है। उसकी बोली प्रेम है तथा वह स्वयं अकाल पुरख (परमात्मा) अन्नत है। हम जीव उससे 'देह पदार्थ' मांगते हैं, (हे हरि ! हमे पदार्थ) 'दे'। वह दाता कृपा करता है।
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नोट : उसकी बोली प्रेम है। प्रेम ही साधन है जिस के द्वारा वह हमारे साथ बातें करता है, हम उसके साथ कर सकते है।
फेरि कि अगै रखिऐ, जितु दिसै दरबारु||
मुहौ कि बोलीए, जितु सुणि धरे पिआरु||



(यदि सारे देह पदार्थ वह स्वयं ही दे रहा है तो) फिर हम कौन-सी भेंट उस परमात्मा के आगे रखें, जिस की बदोलत हमें उसका दरबार दिख जाये ? हम मुख से कौन-सा बचन बोलें (भाव, कैसी अरदास करें) जिस को सुन कर वह हरि (हमें) प्यार करे ? 
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भाव : दान पुण्य करना या माया सम्बन्धी भेंट अर्पण करने से जीव की प्रभू से दूरी मिट नहीं सकती, क्योंकि यह (दाति) देह पदार्थ तो सभी प्रभु के ही दिये हुये हैं । उस प्रभु से बातें उसकी अपनी बोली से ही हो सकती हैं तथा वह बोली हे 'प्रेम' । जो मनुष्य प्रात;काल में उठ कर उसकी याद में जुड़ता है, उसको 'प्रेम पटोला' मिलता है, जिसकी कृपा से उसको सर्वत्र परमात्मा ही दिखाई देने लगता है। 

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