फेरि कि अगै रखिऐ, जितु दिसै दरबारु||
मुहौ कि बोलीए, जितु सुणि धरे पिआरु||
(यदि सारे देह पदार्थ वह स्वयं ही दे रहा है तो) फिर हम कौन-सी भेंट उस परमात्मा के आगे रखें, जिस की बदोलत हमें उसका दरबार दिख जाये ? हम मुख से कौन-सा बचन बोलें (भाव, कैसी अरदास करें) जिस को सुन कर वह हरि (हमें) प्यार करे ?
...
भाव : दान पुण्य करना या माया सम्बन्धी भेंट अर्पण करने से जीव की प्रभू से दूरी मिट नहीं सकती, क्योंकि यह (दाति) देह पदार्थ तो सभी प्रभु के ही दिये हुये हैं । उस प्रभु से बातें उसकी अपनी बोली से ही हो सकती हैं तथा वह बोली हे 'प्रेम' । जो मनुष्य प्रात;काल में उठ कर उसकी याद में जुड़ता है, उसको 'प्रेम पटोला' मिलता है, जिसकी कृपा से उसको सर्वत्र परमात्मा ही दिखाई देने लगता है।
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