Monday, 3 December 2012

मंने की गति ....(१२) जपु जी साहिब |


मंने की गति कही न जाइ|| जे को कहै, पिछै पछुताइ||
कागदि कलम न लिखणहारु|| मंने का, बहि करनि विचारु||
ऐसा नामु निरंजनु होइ|| जे को मंनि जाणै मनि कोइ ||१२||

उस मनुष्य की उच्च आत्मिक अवस्था बताई नहीं जा सकती, जिस ने परमात्मा के नाम को मान लिया है, भाव, जिसकी लग्न नाम में लग गई है/ यदि कोई मनुष्य ब्यान करे तो भी वह बाद में पछताता (पश्चाताप ) है कि मैंने अभी कम यत्न किया है/ 
मनुष्य मिलकर
 'नाम' में विशवास रखने वाले की आत्मिक अवस्था का अंदाजा लगाते हैं परन्तु कागज पर कलम से कोई मनुष्य लिखने में समर्थ नहीं है/
परमात्मा का नाम बहुत ऊँचा है, तथा माया के प्रभाव से परे है / इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है परन्तु यह भाव तभी समझ में आती है जब कोई मनुष्य अपने अंदर लग्न लगा कर देखे |१२||
 


प्रभु माया के प्रभाव से बहुत उच्चा है / उस के नाम में ध्यान जोड़कर जिस  मनुष्य के मन में उसकी लग्न लग 

जाती है उस की भी आत्मा माया की मार से ऊपर हो जाती है 


जिस मनुष्य की प्रभु से लग्न लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता ण कोई ब्यान कर सकता है न कोई लिख 

सकता है/

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