इक दू जिभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस ||
लखु लखु गेड़ा आखीअहि, एकु नामु जगदीस ||
यदि एक जीभ से लाख जीभें हो जाएँ तथा लाख जीभों से बीस लाख बन जाएँ, इस बीस लाख जीभों से यदि परमात्मा के एक नाम को एक एक लाख बार कहें तो भी यह झूठे मनुष्य की झूठी गप्प है भाव, यदि मनुष्य यह सोचे कि मैं अपने उधम से इस तरह नाम सिमरन पा सकता हूँ, तो यह झूठा अहंकार है |
एतु राहि पति पवड़ीआ, चड़ीऐ होइ इकीस ||
सुणि गला आकास की, कीटा आई रीस ||
परमात्मा से दूरी मिटाने वाले मार्ग में परमात्मा को मिलने के लिये जो सीढियाँ हैं उन पर आपा -भाव गंवाकर ही चढ़ सकते हैं | लाखों जीभों से भी गिनती के सिमरन से कुछ नहीं बनता | आपा-भाव दूर किये बिना यह गिनती के पाठों वाला उधम ऐसे है मानों आकाश की बातें सुनकर कीड़ों को भी बराबरी करनी आ गई है कि हम भी आकाश पर पहुँच जाएँ |
नानक नदरी पाईऐ, कूड़ी कूड़े ठीस ||३२||
हे नानक ! यदि परमात्मा कर्पा -दृष्टि करे, तो ही उसको मिल सकते हैं | नहीं तो झूठे मनुष्य की अपने आप की केवल झूठी ही प्रशंसा है कि मैं सिमरन कर रहा हूँ |३२|
भाव:- झूठ के पर्दे में घिरा हुआ जीव, सांसारिक चिंता, फ़िक्र, दुख-क्लेश की खाई में गिरा रहता है तथा प्र्र्भु का निवास-स्थान मानो एक ऐसा ऊँचा ठिकाना है जहाँ ठण्ड ही ठण्ड है, शीतलता है, शान्ति ही शान्ति है | इस निम्न स्थान से उस ऊँची, आत्मिक अवस्था में मनुष्य तभी पंहुच सकता है, यदि सिमरन की सीढ़ी का सहारा लें | 'तू तू' करता 'तू' में आपा लिन कर दे | इस 'अपनत्व' को न्योछावर किये बिना यह सिमरन वाला उधम ऐसा ही है जैसे आकाश की बातें सुनकर चीटियों को भी वहाँ पंहुचने का शौक पैदा हो जाये, परन्तु चलें अपनी चिंटी की गति से ही | यह भी ठीक है कि प्रभु कि मर्जी में अपनी मर्जी को वही मनुष्य मिटाते हैं जिन पर प्रभु कि कर्पा हो |
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