आदि सचु, जुगादि सचु ||
है भी सचु, नानक, होसी भी सचु ||
हे नानक ! अकाल पुरख (परमात्मा ) मूल (प्रारंभ से) अस्तित्व वाला है, यूगों के आदि से मौजूद है/ इस समय भी मौजूद है तथा आगे आने वाले आने समय में भी अस्तित्व में मौजूद रहेगा/१/जपु जी सहिब/
है भी सचु, नानक, होसी भी सचु ||
हे नानक ! अकाल पुरख (परमात्मा ) मूल (प्रारंभ से) अस्तित्व वाला है, यूगों के आदि से मौजूद है/ इस समय भी मौजूद है तथा आगे आने वाले आने समय में भी अस्तित्व में मौजूद रहेगा/१/जपु जी सहिब/
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।
अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।
अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।
भुखिआ भुख न उतरी, जे बंना पुरीआ भार।।
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि।।
अर्थभाव: यदि मैं सारे भवनों के पदार्थों के ढेर भी सम्भाल लूँ, तो भी तृष्णा के अधीन रहने से तृष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि मुझ में हज़ारों तथा लाखों चतुराइयाँ हों , तो भी उनमें से एक भी चतुराई साथ नहीं देती।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।
अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।
भुखिआ भुख न उतरी, जे बंना पुरीआ भार।।
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि।।
अर्थभाव: यदि मैं सारे भवनों के पदार्थों के ढेर भी सम्भाल लूँ, तो भी तृष्णा के अधीन रहने से तृष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि मुझ में हज़ारों तथा लाखों चतुराइयाँ हों , तो भी उनमें से एक भी चतुराई साथ नहीं देती।
किव सचिआरा होईऐ, किव कूड़ै तुटै पालि।।
हूकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि।।१।।
अर्थ: हम अकाल पुरुख (परमात्मा) के प्रकाश के, योग्य कैसे बन सकते हैं ? तथा हमारे अन्दर का झूठ (असत्य) का पर्दा कैसे टूट सकता है ?
रज़ा के स्वामी परमात्मा के हुक्म में चलना--यही एक विधि है। हे नानक ! यही विधि प्रारम्भ से ही, जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।१।
भाव: प्रभु से जीव का अन्तर मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उस की रज़ा में चले। यह नियम प्रारम्भ से ही परमात्मा की तरफ़ से जीव के लिये ज़रुरी है। पिता के कहे अनुसार पुत्र चलता रहे तो प्यार, न चले तो अन्तर पैदा होता चला जाता है।
हूकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि।।१।।
अर्थ: हम अकाल पुरुख (परमात्मा) के प्रकाश के, योग्य कैसे बन सकते हैं ? तथा हमारे अन्दर का झूठ (असत्य) का पर्दा कैसे टूट सकता है ?
रज़ा के स्वामी परमात्मा के हुक्म में चलना--यही एक विधि है। हे नानक ! यही विधि प्रारम्भ से ही, जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।१।
भाव: प्रभु से जीव का अन्तर मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उस की रज़ा में चले। यह नियम प्रारम्भ से ही परमात्मा की तरफ़ से जीव के लिये ज़रुरी है। पिता के कहे अनुसार पुत्र चलता रहे तो प्यार, न चले तो अन्तर पैदा होता चला जाता है।
ReplyDeletehttp://www.vridhamma.org/UploadNewsletter/PDF/hi2017-03.pdf