एका माई, जुगतु विहाई, तिनि चेले परवाणु ||
इकु संसारी, इकु भंडारी, इकु लाए दिबाणु ||
लोगों में ख्याल प्रचलित है कि अकेली माया किसी युक्ति से प्रसुत हुई तथा प्रत्यक्ष रूप से उस के तिन पुत्र पैदा हुये | उनमें से एक (ब्रह्मा) संसारी बन गया भाव, जीव जंतुओं को पैदा करने लगा, एक (विष्णु) भंडारे का स्वामी बन गया भाव, जीवों को रिज़क पहुंचाने का काम करने लगा, तथा एक (शिव) कचहरी लगाता हा भाव, जीवों का संहार करता है |
जिव तिसु भावै, तिवै चलावै, जिव होवै फुरमाणु ||
ओहु वेखै, ओना नदरि न आवै, बहुता एहु विडाणु ||
पर वास्तविक बात यह है कि जैसे उस परमात्मा को अच्छा लगता है तथा जैसा उसका हुक्म है, वैसे ही वह स्वयं संसार का व्यहवार चला रहा है | इन ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव के हाथ कुछ नहीं | यह बड़ा आश्चर्ययुक्त कौतुक है कि वह परमात्मा सब जीवों को देख रहा है, पर जीवों को परमात्मा दिखायी नहीं देता |
आदेसु, तीसै आदेसु ||
आदि अनिलु अनाहति, जुगु जुगु एको वेसु ||३०||
ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि के स्थान पर केवल उस परमात्मा को प्रणाम करें जो शुद्ध स्वरूप है, जो अनादि है जिस का कोई आरम्भ नहीं खोज सकता, जो नाश रहित है तथा जो सदा ही एक जैसा रहता है | यही साधन है प्रभु से दूरी मिटाने का |३०|
भाव :- जैसे जैसे मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है वैसे वैसे उसको यह ख्याल कच्चे प्रतीत होते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि अलग अलग हस्तियाँ जगत का प्रबंध चला रही हैं | सिमरन करने वाले को विशवास है कि प्रभु स्वयं अपनी रज़ा में अपने हुक्म के अनुसार जगत का कार्य-व्यापार चला रहा है, चाहे जीवों को इन आँखों से वह दिखायी नहीं देता |
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