जिस गुरु के हम सिख हैं ।, उनकी शिक्षा धारण करना ही हमारा धर्म ही नहीं है आपूति उन शिक्षाओं को बाहर जिस दुनिया में हम रह रहे हैं, उन्हें बताना भी आपका कर्तव्य है ।
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दुनिया में एकमात्र *गुरुग्रन्थ* ही धार्मिक ग्रन्थ है, और उस ग्रन्थ से ही हम अन्य धर्म ग्रन्थों की विचारधारा से अवगत होते हैं परन्तु क्यों नहीं हम उस ग्रन्थ की अपनी विचारधारा को नहीं समझ पाते । जो समझते हैं वो एक ही पन्ने पर अटके रह जाते हैं।
धर्म ग्रन्थ तभी आकर्षक बनता है जिसका अध्यन करते समय बार बार लौटकर उसमें लिखे को ओर उसके बारे में फिर से सोचा जाए।
अपने धार्मिक ग्रन्थ में कही गई बातें दूसरों को बताना ही एक ध्यान है जिसे अभ्यास से ही पाया जा सकता है ।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब पढ़ना हर एक आदमी के बस की बात हो या न हो । लेकिन इसे समझने से एक बुद्धिमान की बुद्धि बढ़ती है, और मानने से आध्यात्मिक ज्ञान व् ध्यान ।
दो ज्ञानी यदि अपनी बात एक दूसरे को अपने ज्ञान की बातें सिर्फ कहने में ही नहीं, सुनने में भी ध्यान दें तो ज्ञान बढेगा ही ।
हमें अपनी उलझी समस्याओं को सुलझाने की दिशा में अपने सिरा को पकड़ कर भरसक प्रयास करते रहना चाहिये । यह सोचकर कि कभी तो दूसरा सिरा हाथ में आएगा ही ।
क्या यह भी मुमकिन है कि मैं 1430 मील घूम आऊं लेकिन खुद को वहीं पाऊँ, जहां मैं था । बशर्ते मुझे उस सफर की थकान महसूस होती है या वो ज्ञान का फलसफा जो उस सफर में प्राप्त हुआ ।
कहीं पहुंच जाने से बेहतर है सफर में रहना । वर्ना स्माप्ति का इंतज़ार तो हमें अपनी जिंदगी को छोड़ कर जपु जी की आखरी पोहड़ी, सुखमनी की आखरी अष्टपति और अखंड पाठ के श्लोक महला ९ का रहता है ।
हमारा गुरु ग्रन्थ साहिब का अध्यन करना इस बात की तस्दीक करना है कि दूसरी जगहों के बारे में जो भ्रम फैलाए जाते हैं, वे गलत हैं।-
एक सिख जिसने अपने जीवन सफर में गुरु श्री गुरु ग्रन्थ के में सैर (सहज पाठ) नहीं की, उसे गुरसिख नहीं कहा जा सकता।
हालांकि हम दुनिया भर में *खुशियों* की तलाश में भटकते हैं, लेकिन खुशियाँ हमें अपने भीतर मिलती हैं ।, वर्ना यह कहीं खोजने से नहीं मिलेगी।-
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