Thursday, 1 June 2017

मोह माया

मोह_माया
                 गुरु ग्रन्थ साहिब जी की बाणी, शब्दों को विचारकर, मानकर जीवन में गुरु जी की शिक्षाओं को धारण करने से एक प्रभु के नाम और उसको याद रखने का सन्देश देती है । लेकिन हमारा मन है कि मानता नहीं । क्योंकि वो रिश्ते नातों,सुख दुःख, कुछ खोने का डर, कुछ पाने की आशा, मान सम्मान, झूठ दिखावा तथा संसारिक  कार्यों में ही उलझा हुआ है । इसे ही मोह,और माया का नाम दिया गया है । जिसमें परिवार का मोह प्रमुख है और वो भी अपने बच्चों से ।
              यदि हम इस माया के अर्थ को मायाधारी, धन सम्पदा,अमीरी, पैसा, धनवान से करें तो ठीक नहीं है । क्योंकि यह हमारी मेहनत तथा हमारे पुरखों की दी हुई हमारे परिवार के पालन पोषण के लिये निजी सम्पति है।  माया एक सोच है जो हमें परमात्मा से दूर करती है ।  इस माया का धारणी कोई गरीब भी हो सकता है । जिसका ध्यान केवल अपने पुत्र, घर, फसल, व्यापार, नोकरी या अपने नाम, शोहरत आदि में है । इस माया के बन्धन से हम अपने मन में निवासी, अंतर्यामी प्रभु को पहचान नहीं पाते ।
       "माइआधारी अति अंना बोला ।।"
        "हउमै माइआ मोहणी, दूजै लगै जाइ।।" "माइआ माइआ करि मुए, माइआ किसै न साथि ।।"
                    जन्म के बाद बच्चे माया रहित, शुद्ध बरसात की टपकी बून्द जैसे पवित्र, निर्मल । पर बाद में जैसे बून्द जमीन की धूल मिटटी में मिलकर अशुद्ध होती है, वैसे ही मनुष्य बड़े होकर परिवार, बच्चे, धन पदार्थ के मोह, माया से मिलींन अपने निर्मल मन से प्रभु को भुला बैठते हैं। गुरबाणी हमें यह कतई नहीं कहती कि इन सब का त्याग करो । हमे केवल माया के प्रभाव से बचना है, जैसे हमारी जीभ, हमारे खाने और बोलने के समय हमारे दाँतों से अपने आप को बचाती है ।
"नानक माया का मारण सबदु है, गुरमुखु पाइआ जाइ ।।"
"माइआ मोहु सबदि जलाईआ।।"
कुल मिलाकर गुरबाणी हमें माया को शब्द (शिक्षा) से मारने की बात कहती है।
सिखी; कल आज और कल ।

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