*सुख दुख तथा भाणा*
*हम पीछे काम, क्रोध, लोभ, मोह, पाखंडों, कर्मकांडों, प्रभु को भुला देना, संसार की मौजमस्तियों की नींद में सोया रहना आदि इन सभी के बारे में विचार कर चुके हैं। परंतु इन सभी का आधार तथा कारण वास्तव में सुख और दुख ही हैं। मनुष्य सुख के समय प्रभु को भुलाकर रंगतमाशों में खो जाता है और वो ही मनुष्य दुख के समय पाखंडों, अंधविश्वासों, भ्रमों में फंस जाता है। वैसे सुख तथा दुख हैं क्या? यदि कोई कार्य मनुष्य की इच्छा के अनुसार हो जाए
(बिमारी ठीक हो जाए, दुर्घटना में बच जाए, दुकान, कारोबार में फायदा हो जाए, फसल ज्यादा पैदा हो जाए) तो मनुष्य उसे खुशी और सुख का नाम दे देता है। अगर वो ही कार्य मनुष्य की इच्छा के अनुसार ना हो तो फिर मनुष्य उसे दुख का नाम दे देता है। यदि कोई कार्य सफल हो जाए तो मनुष्य कहता है कि यह काम मैंने कर दिया (मैंने पेपर पास कर लिया, मैंने फैक्टरी चला दी, मैंने ये चीज ठीक कर दी)। लेकिन यदि कोई काम गलत हो जाए फिर मनुष्य अपना नाम ना लेकर सारा दोष भगवान पर लगा देता है। (यदि किसी को चोट लग जाए तो फिर कहेगा पता नहीं रब्ब कौन से दिन दिखा रहा है, किसी की सारी फसल खराब हो जाए फिर कहेगा इस बार तो रब्ब ने कुछ भी नहीं दिया)। हमारा स्वभाव ही ऐसा है की सफलता अपने सिर पर और असफलता प्रभु के सिर पर रख देते हैं। लेकिन वास्तव में असली दुख है प्रभु को भुला देना।*
वैसे यदि जीवन में सुख ही आते रहें और दुख कभी भी ना आएं तो फिर हमें सुख की असली कीमत का पता ही नहीं चल पायेगा। जैसे अंधेरे के बिना प्रकाश की, बुराई के बिना अच्छाई की, सर्दी के बिना गर्मी की, दिन के बिना रात की, भूख के बिना खाने की, प्यास के बिना पानी की कोई भी कीमत नहीं है, उसी तरह से दुख के बिना सुख की भी कोई कीमत नहीं है। कई बार तो सुख भी विकार बन जाता है और व्यक्ति सुख में अकाल पुरूख प्रभु को भुला देता है। कई बार दुख भी दवा की तरह काम करने लगता है क्योंकि दुख के समय प्रभु की याद आने लगती है। दुख के समय प्रभु को याद करने का मन करता है तथा दुखों के कारण प्रभु हमारे मन में बस जाता है।*
*दुखु दारू सुखु रोगु भइआ जा सुखु तामि न होई ।। (469)*
अर्थ- वह दुख भी दवा (दारू) समान है (जिसमें प्रभु की याद आने लगे) और वह सुख रोग बन (रोगु भइया) जाता है जिस सुख में प्रभु को याद की तमन्ना (तामि) ना हो।
वह प्रभु तो निरवैर है अर्थात प्रभु किसी से भी शत्रुता नहीं रखता फिर हम यह दोष प्रभु पर कैसे लगा सकते हैं कि प्रभु हमें दुख दे रहा है। प्रभु किसी को भी दुख नहीं देता, दुख तो हमें अपने किये गए अच्छे-बुरे कार्यों के अनुसार प्राप्त होते हैं। सभी मनुष्य सदा सुख मांगते हैं लेकिन सुखों के साथ ही दुख भी आते रहते हैं लेकिन हम यह समझ नहीं पाते। संसार का नियम है जन्म तथा मरण, लेकिन हम इस नियम को समझ ही नहीं पाते तथा जन्म या शादी के समय गाने बजाने, नाचना, पार्टियां करते हैं और मृत्यु के समय विलाप करते हैं। मनुष्य प्रभु की रजा, प्रभु की इच्छा को समझ ही नहीं पाते और प्रभु को दोष देने लगते हैं जबकि दोष हमारा स्वयं का होता है। सुख-दुख भी जीवन में कर्मों के अनुसार चलते रहते हैं जैसे रात-दिन लगातार चल रहे हैं।
दोसु न दीजै काहू लोग ।। जो कमावनु सोइ भोग ।। (888)
अर्थ- (दुखों के लिये) किसी अन्य को (काहू) दोषी मत ठहराओ क्योंकि (1)। जैसे (जो) तुमने कार्य किये (कमावनु) हैं उन्हीं के अनुसार फल (भोग) भोगना पड़ेगा (2)।
सब कुछ प्रभु की रजा के अनुसार होता है और जिस किसी ने भी संसार में जन्म लिया है उसको देर-सवेर एक दिन तो मरना ही है। इसलिए जीवन में दुख भी आने स्वभाविक ही हैं। लेकिन कोई भी व्यक्ति यह नहीं चाहता की मेरे जीवन में दुख भी आएं और हम सभी सदैव सुख चाहते हैं। परंतु चाहे कितने भी उपाय क्यों ना कर लो फिर भी दुख अपने आप ही जीवन में आ जाते हैं। गुरबाणी हमें समझाती है कि दुखों को केवल प्रभु का नाम मन में बसाकर ही दूर किया जा सकता है क्योंकि सबसे बड़ा दुख तो प्रभु को भुला देना है। यदि प्रभु को सच्चे मन तथा श्रृद्वा से याद किया जाए तो एक ऐसी अवस्था प्राप्त हो जाती है कि मनुष्य को दुख महसूस ही नहीं होता और सब कुछ प्रभु की इच्छा के अनुसार नजर आने लगता है। फिर चाहे आरे के साथ शरीर को काटा जाए, गर्म सलाखों के साथ आंखें निकाली जाएं, सिर से खोपड़ी उतार दी जाए, हाथ-पैर काट दिये जाएं/या फिर बच्चाें के टुकडे़ करके गले में हार बनाकर डाल दिये जाएं लेकिन सिख को दुख महसूस नहीं होता। ऐसी अवस्था में व्यक्ति को सुख-दुख की परवाह नहीं रहती क्योंकि मन प्रभु की याद में जुड़ा रहता है और ऐसा व्यक्ति जन्म-मरण से उपर उठ जाता है। जिस मनुष्य के मन में प्रभु का प्रेम पैदा हो जाए उसके लिए सुख-दुख, प्रेम-डर तथा मिट्टी व सोना एक समान होता है तथा ऐसा मनुष्य फिर सुखों के पीछे नहीं दौड़ता।
जो नरू दुख मैं दुखु नही मानै ।। (633)
सुख सनेहु अरू भै नही जा कै कंचन माटी मानै ।। 1।।
अर्थ- जो व्यक्ति (नरू) दुख को दुख नहीं समझता (मानै) (अर्थात दुखों से नहीं घबराता) (1)। जिसके मन में सुखों का मोह (स्नेह) नहीं है, और जिसको किसी प्रकार का डर (भै) नहीं है
तथा जो सोने (कंचन) और मिट्टी (माटी) को समान मानता है (ऐसे व्यक्ति का मन प्रभु के साथ जुड़ जाता है) (2)।
वह गुरबाणी जो सिखों को सुख-दुख को समान समझने का संदेश देती है, जो यह बताती है कि सुखों के बाद दुख भी अवश्य ही जीवन में आएंगें, वह गुरबाणी जो दुखों को प्रभु के नाम की दवा तथा सुखों को रोग बताती है, वह गुरबाणी जो व्यक्ति को दुखों से ना घबराकर एक प्रभु को मन में बसाने का उपदेश देती है आज उसी गुरबाणी के नाम पर ऐसे गुरद्वारे बना दिये गये हैं जिनके नाम के अर्थ ही ऐसे निकलते हैं की यहां पर आने से सभी दुख दूर होते हैं। गुरद्वारों के नाम ही दुख निवारण साहिब, दुख भंजन साहिब, दुख विसारण साहिब रख दिये गये हैं। बहुत सारे सिख दुखों से घबराकर ऐसे गुरूद्वारों के नाम सुनकर ही दुखों को दूर करने के लिए वहां पर पहुंच जाते हैं और गुरबाणी की इन शिक्षाओं को भूल जाते हैं कि सुख-दुख को समान समझना है, सुख-दुख जीवन का हिस्सा हैं तथा सुखों के बाद जीवन में दुख भी अवश्य ही आयेंगे। लेकिन गुरमत यह शिक्षा देती है कि दुखों को दुर करने वाले केवल गुरबाणी के शब्द हैं तथा प्रभु के नाम सिमरन, प्रभु के प्रेम, प्रभु की याद को मन में बसाकर ही दुखों को दूर किया जा सकता है, मन को प्रभु के साथ जोड़कर ही अड़ोलता की अवस्था तक पहुंचा जा सकता है।
दूख विसारणु सबदु है जे मंनि वसाए कोइ ।। (1413)
अर्थ- दुखों को दूर करने वाले (विसारणु) केवल गुरू का शब्द है यदि (जे) कोई व्यक्ति (गुरू की शिक्षाओं को) मन में बसाये (वसाए) तो दुख दूर हो सकते हैं।
हरि धिआवहु संतहु जी सभि दूख विसारणहारा ।। (10)
अर्थ- (सज्जनों) प्रभु (हरि) के नाम को याद (धिआवहु) करो जो सभी दुखों को दूर करने वाला (विसारणहारा) है।
जा कउ चीति आवै गुरू अपना ।। ता कउ दूखु नही तिलु सुपना ।। 2।। (1298)
अर्थ- जिस व्यक्ति को (जा कउ) मन में अपने गुरू की याद आती (चीति आवै) है (1)। उसको (ता कउ) सुपने में भी दुख नहीं लगता!
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