Sunday, 18 June 2017

करना क्या है? What to do~

करना_क्या_है?? #WhatToDo ?

गुरू साहेबान ने सदियों से दबे कुचले, पाखंडों, अंधविश्वासों, जात-पात में फंसे समाज को एक नई सोच, एक नई दिशा दी। गुरू साहेबान ने हमें एक बड़ी आसान सी विचारधारा दी जिसके अनुसार पत्थरों, मूर्तियों, पहाड़ों, नदियों, ग्रहों, तारों, पेड़ों, जानवरों आदि की पूजा के स्थान पर सिर्फ एक अकाल पुरूख प्रभु को याद करना है तथा वह प्रभु कहीं बाहर तीर्थों, सरोवरों, जंगलों में नहीं रहता वह तो सदैव हमारे साथ, हमारे अंदर रहता है। गुरबाणी को सुनकर, पढ़कर, समझकर, विचारकर, मानकर और जीवन का अंग बनाकर ही अकाल पुरूख प्रभु के साथ जुड़ा जा सकता है। उस प्रभु से कुछ भी छिपाया नहीं जा सकता क्योंकि वह प्रभु तो हमारे अंदर ही रहता है और सब कुछ जानने वाला है। गुरू की शिक्षा अथवा गुरमत के द्वारा प्रभु की कृपा प्राप्त की जा सकती है। प्रभु ने सभी दिन, महिनें, समय को समान बना रखा है तथा मुहूर्त, शगुन-अपशगुन या किसी खास दिन का गुरबाणी के अनुसार कोई भी महत्व नहीं है। अकाल पुरूख वाहेगुरू के ध्यान तथा नाम सिमरन के द्वारा मन में सच्चा रस पैदा होता है और मन प्रभु के साथ जुड़ जाता है।
गुरबाणी की शिक्षाओं के द्वारा हमें अपने मन को काबु करना है तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, निंदा, चुगली आदि से बचना है। सभी को एक समान समझना है और अपने नाम के पिछे अपनी जाति या गोत्र ना लगाकर केवल ‘सिंह’ लिखना है। जो व्यक्ति प्रभु को भुला देते हैं वे टूटे पत्ते की तरह कच्चे गुरूओं के पास भटकते रहते हैं। गुरबाणी मन की मैल को प्रभु के नाम से धोने का उपदेश करती है ना की नदियों, तीर्थों के स्नानों के द्वारा। गुरबाणी जात-पात, ऊंच-नीच के भेदभाव को समाप्त करती है और स्त्रियों को भी व्रतों आदि फोकट कर्मों से बाहर निकालकर समान अधिकार प्रदान करती है। गुरबाणी झूठे दिखावे, मान-अभिमान, मोह-माया, लोभ को त्यागकर ईमानदारी से परिवार की पालना करने की शिक्षा देती है क्योंकि अंत समय में प्रभु के नाम के अलावा कुछ भी साथ नहीं जाता। गुरबाणी बुढापे की अवस्था तथा मृत्यु के विषय में समझाकर यह उपदेश करती है की मौत कभी भी आ सकती है इसलिए प्रभु को सदा याद रखो।
गुरबाणी विभिन्न कर्मकांडों तथा पाखंडों का भी विरोध करती है जिनको प्रभु की कृपा प्राप्त करने का साधन माना जाता था। अगर किसी से अनजाने में कोई गलती या अवगुण हो भी जाए तो प्रभु के सच्चे प्रेम के द्वारा उन अवगुणों को माफ कराया जा सकता है। गुरबाणी सुख- दुख को एक समान मानकर प्रभु की इच्छा तथा भाणे को मानने का भी उपदेश देती है। गुरबाणी केवल अंधविश्वासों को ही दूर नहीं करती बल्कि विज्ञान की तरह अद्भुत तार्किक ज्ञान भी प्रदान करती है।
अन्य धर्मों की विचारधारा की तुलना में गुरबाणी की विचारधारा बहुत ज्यादा सरल है। गुरबाणी बाकी सभी पदार्थों, ग्रहों, नक्षत्रों, मूर्तियों की पूजा के स्थान पर केवल एक प्रभु को सदा याद रखकर ईमानदारी से काम करने की शिक्षा देती है। गुरबाणी फोकट कर्मों, तीर्थ स्नान, व्रत रखना, दीये लगाना, फूल चढाना, बलि देना, सती प्रथा, मुहुर्त निकलवाना आदि का विरोध करती है और एक प्रभु को मन में बसाकर, अवगुणों से बचकर, सभी को समान समझकर, ईमानदारी से मेहनत करके परिवार की पालना करने का संदेश देती है। गुरमत सभी को मेहनत व कार्य करने और बांटकर छकने का उपदेश देती है। लेकिन हमने बांटकर छकने का मतलब निकाल लिया है की कुछ पैसे या पदार्थ किसी गुरद्वारे या किसी बाबा को भेंट करने हैं, हम सोचते हैं कि बांटकर खाने का मतलब है गुरद्वारे में भेंट करना और शायद इसी कारण से गुरद्वारों में सोने के चंवर, मंहगे रूमाले आदि भी दिये जाते हैं। लेकिन बांटकर छकने का मतलब है किसी जरूरतमंद व्यक्ति की मदद करना (हम मरने के बाद अपने अंग आंखें, गुद्रे आदि भी तो किसी जरूरतमंद को दानकर सकते हैं, हम साल में 1-2 बार खुन भी तो दान कर सकते हैं)। आगे हम गुरबाणी की कुछ शिक्षाओं का विचार करेंगे की जीवन कैसे व्यतीत करना हैै।

रोसु न काहू संग करहु आपन आपु बीचारि ।। (259)
होइ निमाना जगि रहहु नानक नदरी पारि ।। 1।।

अर्थ- किसी के साथ (काहू संग) भी गुस्सा (रोसु) ना करो तथा स्वयं अपने अंदर (आपन आपु) देखो अर्थात अपनी गलती पहचानों (1)। संसार में विनम्र भाव (निभाना) से रहो और गुरू की कृपा (नदरी) से संसार रूपी भव सागर से पार निकल जाओ (2)।

प्रथमे तिआगी हउमै प्रीति ।। दुतीआ तिआगी लोगा रीति ।। (370)

अर्थ- सबसे पहले (प्रथमे) तो अहंकार (हउमै) और मोह रूपि प्रेम (प्रीति) को त्यागो (1)। फिर उसके बाद (दुतीआ) लोक दिखावे के कर्मों (लोगा रीति) को भी त्याग दो (2)।

काम क्रोध लोभ मोहु तजो ।। (241)
अर्थ- काम, क्रोध, लोभ, मोह को मन से निकाल (तजो) दो।

उठत बैठत सोवत धिआईऐ ।। मारगि चलत हरे हरि गाईऐ ।। 1।। (386)

अर्थ- उठते, बैठते, सोते समय प्रभु को याद (धिआईऐ) करो (1)। रास्ते (मारगि) में चलते समय भी प्रभु के नाम (हरे हरि) का गायन करो अर्थात हर समय प्रभु को याद रखो (2)।

मुख की बात सगल सिउ करता ।। जीउ संगि प्रभु अपुना धरता ।। 2।। (384)

अर्थ- (प्रभु को मन में बसाने वाला व्यक्ति) मुंह (मुख) से बातचीत तो सभी (सगल) के साथ (सिउ) करता है (1)। लेकिन (बातचीत करते समय भी) उसका मन (जीउ) अपने प्रभु के साथ (संगि) जुड़ा (धरता) रहता है अर्थात किसी के साथ बात करते समय भी उसको प्रभु याद रहता है (2)।

मेरा तेरा छोडीऐ भाई होईऐ सभ की धूरि ।। (640)

अर्थ- यह मेरा है और यह तेरा है कि भावना छोड़कर (अपने मन को) सभी के चरणों की धूल (धूरि) समझो अर्थात सभी के अंदर प्रभु को देखो।

प्रणवति नानक तिन्ह की सरणा जिन्ह तूं नाही वीसरिआ ।। 2।। 29।। (357)

अर्थ- गुरू साहेब समझाते हैं कि ऐसे (तिन्ह) व्यक्ति की संगत (सरणा) में रह जो (जिन्ह) प्रभु को कभी भी नहीं भुलाते (वीसरिआ) हैं अर्थात हमेशा अच्छी संगत में रहो।

उलटी रे मन उलटी रे ।। साकत सिउ करि उलटी रे ।। (535)

अर्थ- हे मेरे मन पलटकर (उलटी) वापिस आ जा (1)। प्रभु को भुलाने वाले बुरे मनुष्य (साकत) के पास से (सिउ) वापिस (उलटी) आ जा अर्थात प्रभु को भुलाने वालों की संगत से दुर रहो (2)।

सतिगुरु सिख के बंधन काटै।। गुर का सिखु बिकार ते हाटै ।। (286)

अर्थ- सच्चा गुरू अपने सिख के सभी बंधन दूर (काटै) कर देता है (1)। सच्चे गुरू का शिष्य (सिखु) भी विकारों से दूर रहता (हाटै) है (2)।

काहे जनमु गवावहु वैरि वादि ।। 2।। (1176)
अर्थ- अपना जन्म वैर तथा वाद-विवाद में क्यों (काहे) गंवा (गवावहु) रहे हो।

पर धन पर तन पर की निंदा इन सिउ प्रीति न लागै ।। (674)

अर्थ- पराये धन, पराया तन, किसी अन्य की निंदा इन सभी (सिउ) में अपना ध्यान (प्रीति) ना लगा।

हकु पराइआ नानका उसु सूअर उसु गाइ।। (141)

अर्थ- पराया हक (रिश्वते लेना, दूसरों के पैसे, जमीन, पदार्थ बेइमानी से ले लेना) किसी मुस्लिम व्यक्ति (उसु) के लिए सूअर के मांस के समान तथा किसी हिन्दु व्यक्ति (उसु) के लिए गाय (गाइ)का मांस खाने के समान है (अर्थात हमें किसी दुसरे का हक नहीं लेना चाहिए)।

हमें गुरबाणी को प्रेम सहित सुनकर, पढ़कर तथा समझकर अपने जीवन का अंग बनाना है। अपने घर में गुरू ग्रंथ साहिब जी का प्रकाश करना है तथा समझकर, विचारकर गुरबाणी की शिक्षाओं को जानना, समझना, मानना है। यदि घर में प्रकाश संभव नहीं है तो गुरबाणी को इंटरनैट से या फिर PDF रुप में भी विचारा जा सकता है। गुरबाणी को प्रो0 साहिब सिंह जी के गुरबाणी दर्पण को पढ़कर भी विचारा जा सकता है। अब यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम गुरबाणी की शिक्षाओं को समझने, मानने को ज्यादा महत्व देते हैं या फिर गुरबाणी की शिक्षाओं के पास पंखे लगाना, ए.सी. लगाना, दीये लगाना, धूप लगाना, सुगंधी, व इत्र (perfume) के स्प्रे करना, खाने पीने योग्य दूध-दही से फर्श साफ करना तथा दीवारें धोना, फूल चढाना आदि को ज्यादा महत्व देते हैं।
    संम्पुर्ण गुरबाणी केवल एक प्रभु के साथ जोड़ती है। गुरबाणी में छोटे-बड़े, अमीर-गरीब, ऊंचे-नीचे, जात-पात या स्त्री-पुरूष का कोई भी भेदभाव नहीं है। गुरबाणी केवल वास्तविकता, सच्चाई तथा अकाल पुरूख वाहेगुरू के साथ जोड़ती है। गुरबाणी की शिक्षाएं हमें सांसारिक भ्रमों, दुविधाओं, पाखंडों, कर्मकांडों, अंधविश्वासों, झूठ, मोह-माया, लालच, विकारों, अवगुणों, दिखावे आदि के दलदल से निकालकर सच्चाई, ईमानदारी, दया, धर्म, संतोष के साथ जोड़ती हैं। गुरबाणी को मन में बसाकर ही ये सभी गुण हमारे अंदर पैदा हो सकते हैं। सबसे पहले गुरबाणी को पढ़ना-सुनना है, विचारना-समझना है, फिर गुरबाणी को मन में बसाकर अपना जीवन बदलना है तथा उसके बाद गुरबाणी को महसूस करके गुरबाणी को जीवन से प्रकट भी करना है, अपने मन में प्रभु के प्रति असीम प्रेम, अटुट भरोसा व विश्वास तथा अनन्य श्रद्धा भी पैदा करनी है। सिख का जीवन ऐसा होना चाहिए कि सिख के जीवन को देखकर ही गुरबाणी नजर आये, हमें दुसरों को ये बताना ना पड़े की मैं भी गुरसिख हुं।

Amrender Singh

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