#पाखंड_कर्मकांड
विभिन्न जीवों के रूप में जन्म लेने के बाद हमें यह अनमोल मानव जीवन प्राप्त हुआ है।
यह मानव शरीर बहुत लम्बे इंतजार के बाद प्राप्त होता है तथा मानव जीवन हीरे, मोतियों,
रत्नों से भी अधिक कीमती है। मानव जीवन अनमोल इस कारण से है क्योंकि केवल मानव
ही अपने मन के अंदर निवास करने वाले एक अकाल पुरूख प्रभु की पहचान करके उस प्रभु
के साथ जुड़ सकता है। हम सभी उस प्रभु के साथ जुड़ने का मनोरथ लेकर इस संसार में आये
हैं। मानव जन्म के रूप में हमारा सबसे महत्वूपर्ण कार्य उस एक प्रभु को याद करना है जो
कण-कण में विद्यमान है।
क्या संसार में जन्म लेने के बाद हम अपने इस मनोरथ को याद रखते हैं या फिर अन्य
कर्मकांडों में ही उलझकर रह जाते हैं। हम पीछे विचार चुके हैं कि उस प्रभु को समय, दिन,
मुहूर्त, शगुन-अपशगुन, तीर्थ स्नान, व्रत आदि के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। लेकिन कई
सज्जन यह भी कहते हैं कि चलो अगर किसी की श्रद्धा है तो करने दो प्रभु तो श्रद्धा से ही
प्राप्त होता है। लेकिन श्रद्धा तथा पाखंड में बहुत अंतर है। चांद, तारों की पूजा करके, आग
की, पानी की, पत्थरों की पूजा करके, अच्छे-बुरे दिन विचारकर, सारा दिन भूखा रहकर उस
वाहेगुरू को प्राप्त नहीं किया जा सकता और ना ही ये श्रद्धा है।
वास्तव में सच्ची श्रद्धा है प्रभु का प्रेम, गुरू की शिक्षाओं को समझना, मानना तथा गुरू की शिक्षाओं के अनुसार जीवन व्यतीत
करना। श्रद्धा के नाम पर जीवित माता-पिता की सेवा ना करना, फिर मरने के बाद श्राध व
पितरों की पूजा करना तथा सारी जिंदगी पाप व बुराईयां करने के बाद तीर्थों या नदियों में
डुबकी लगाकर ये समझना की पाप दूर हो गये हैं यह गुरू की शिक्षा नहीं है। गुरमत के
अनुसार तो अपने मन व आचरण को पवित्र बनाना है तथा सभी पाखंडों को त्यागकर केवल
एक अकाल पुरूख वाहेगुरू के साथ जुड़ना है। गुरू साहेब हमें समझाते हैं कि एक प्रभु को
भुलाकर बाकि जितने भी कर्मकांड, पाखंड करोगे वे सभी किसी भी काम नहीं आएंगें तथा इन
अंधविश्वासों के कारण हम प्रभु से दूर होकर टूटे हुए पत्ते की तरह से दुख सहन करेंगें।
बिनु गुर सबद न छूटसि कोइ ।।
पाखंडि कीन्है मुकति न होइ ।। 2।। (839)
गुरबाणी हमें विभिन्न कर्मकांडों, पाखंडों, तीर्थ स्नानों, व्रतों, नेम-करम, पत्थरों, मूर्तियों की
पूजा आदि कर्मों से रोककर केवल एक प्रभु जो सदा हमारे साथ रहता है, जो अंतरयामी है,
जो निरवैर है, जो जन्मश्मरण से रहित है उस प्रभु के साथ जोड़ती है। गुरबाणी हमें बाहर की
तीर्थ यात्राओं, समाधियों पर मत्थे टेकना, नदियों में स्नान करना, बाहर भटकना आदि के स्थान
पर केवल एक प्रभु को मन में बसाकर, अपने अवगुणों को समाप्त करने की शिक्षा देती है।
गुरबाणी हमें समझाती है कि कहीं बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है, अपने मन के अंदर
ही प्रभु को याद करो, अच्छे काम करो तथा अपने अनमोल मानव जीवन को सफल करो।
थिरु घरि बैसहु हरि जन पिआरे ।।
सतिगुरि तुमरे काज सवारे ।। (201)
थिरु घरि बैसहु हरि जन पिआरे ।।
सतिगुरि तुमरे काज सवारे ।। (201)
अर्थ- हे प्यारे प्रभु के जन तू थिर रह तथा बाहर मत भटक (1)। (जब मन बाहर प्रभु को
खोजना बंद कर देगा तब) प्रभु तुम्हारे सारे कार्य (काज) संवार देगा (2)।
घरि रहु रे मन मुगध इआने ।।
रामु जपहु अंतरगति धिआने ।। (1030)
घरि रहु रे मन मुगध इआने ।।
रामु जपहु अंतरगति धिआने ।। (1030)
अर्थ- हे मेरे मूर्ख (मुगध) नादान (इआने) मन तू टिक कर अपने घर रह (अर्थात मन को बाहर
मत भटका) (1)। तथा अपने अंदर (अंतरगति) ध्यान लगाकर प्रभु (रामु) के नाम को याद कर
(2)।
तू पूरि रहिओ है सभ समान ।। (1195)
तू पूरि रहिओ है सभ समान ।। (1195)
बेद पुरान सभ देखे जोइ ।।
बेद पुरान सभ देखे जोइ ।।
ऊंहा तउ जाईऐ जउ ईहां न होइ ।। 2।।
अर्थ- वह प्रभु सभी जगह पर समान रूप से बसा हुआ है (1)। वेद पुराण आदि धार्मिक ग्रंथ
सभी खोजकर (जोइ) देख लिये (अर्थात प्रभु केवल धार्मिक ग्रंथों में नहीं बल्कि सभी जगह पर
है) (2)। इसलिये प्रभु को प्राप्त करने किसी अन्य जगह पर (ऊहां) तो (तउ) तब जाने का
फायदा है (जाईऐ) अगर (जउ) प्रभु यहां (ईहां) हमारे पास में विद्यमान ना हो (3)।
गुरबाणी की शिक्षाएं तो इतनी महान तथा ऊंचे दर्जे की हैं लेकिन हम इन शिक्षाओं
को ना मानकर उपर उठने की जगह नीचे की ओर जा रहे हैं।
गुरबाणी समझाती है के तीर्थ स्नान से कुछ भी प्राप्ति नहीं होगी तथा अपने मन में प्रभु को बसाना ही असली तीर्थ स्नान है।
- निष्कर्ष -
हम सभी मनुष्यों के जीवन का मनोरथ है उस प्रभु को याद करके अपने जीवन को संवारना।
लेकिन मानव प्रभु के नाम को ना जपकर कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों के द्वारा ही प्रभु को प्राप्त
करना चाहता है। इसके साथ ही मानव बुराईयों तथा अवगुणों को छोड़ना भी नहीं चाहता और
अपने द्वारा किये गये पापों को तीर्थ स्थानों व फोकट कर्मों के द्वारा माफ भी करवा लेना चाहता
है। फिर मानव अपने द्वारा किये गये अवगुणों को मिटाने के लिये तथा प्रभु को प्राप्त करने के
लिये बाहर भटककर जीवन बर्बाद करता है। जो प्रभु अपने अंदर है हम उसको बाहर खोजकर
अपना अनमोल जीवन व्यर्थ गंवाते हैं। लेकिन गुरबाणी समझाती है के प्रभु भटकने से नहीं बल्कि प्रभु तो गुरबाणी की शिक्षाओं के द्वारा भटकते हुए मन को रोककर प्राप्त होगा।
भ्रमत फिरे तिन किछू न पाइआ ।।
से असिथर जिन गुर सबदु कमाइआ ।। 4 ।।
अर्थ- जो भटकते (भ्रमत) फिरते हैं उनको (तिन) कुछ भी प्राप्त नहीं होता (1)। तथा जो गुरू
की शिक्षाओं (सबदु) को समझकर मान (कमाइआ) लेते हैं वे स्थिर हो जाते हैं अर्थात वे कहीं
पर भी नहीं भटकते हैं (2)।
Amrender Singh
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