Sunday, 11 June 2017

फूल_दीपक_अगरबत्ती

#फूल_दीपक_अगरबत्ती

              घर-परिवार के माहौल, संस्कारों का छोटे बच्चों के ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। बचपन से ही हमारे घरों तथा पड़ोस का माहौल ना तो पूरा गुरसिखी वाला था और ना ही कोई पूर्ण वैज्ञानिक सोच थी। घर वाले गुरबाणी पढ़ने, सुनने, गुरूद्वारे जाने, सेवा करने में तो बहुत आगे थे लेकिन गुरबाणी को समझने तथा मानने की कोशिश हमारे पूरे बड़े परिवार में से कोई भी नहीं करता था। हम छोटे बच्चे,और हम भी इसी माहौल के बीच शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। हमें मंगलवार तथा वीरवार को सिर धोने से रोका जाता था, कारण ना हमें पता था और ना ही शायद घर वालों को, शनिवार वाले दिन तो लोहे का कोई भी सामान नहीं खरीदा जाता था। जब भी घर में या फिर पड़ोस में पाठ होता था तो घरवाले हमें थैली देकर पास में कहीं से फूल तोड़ने भेज देते थे आरती के लिये। हम चुपचाप रंग-बिरंगे फूलों को तोड़कर थैली भरकर ले आते और फिर वो फूल आरती के समय हमारे हाथों में भी दे दिये जाते। हम बच्चों को ना तो ये पता होता था कि जो पाठ पढ़ा जा रहा है उसका मतलब क्या है और ना ही ये पता होता था कि फूल कब डालने हैं। हम चुपचाप कभी आंखें बंद कर लेते, कभी आंखें खोल लेते और बस इस बात का इंतजार करते रहते कि फूल कब डालने हैं । इसी तरह का डर बहुत सारे सिख नौजवानों को शादि में फेरों के समय भी होता है कि उठना कब है, फिर वे अपने पास किसी दुसरे सज्जन को बिठाते हैं ताकि सही समय पर उनको कोई उठा सके, वैसे लावों के समय पढे जाने वाले शब्दों के अर्थ भी हमें पता नहीं होते)। फिर ओरों के साथ फूल डालने को ही मैं आरती समझता था। दिवाली के बाद सुबह-सुबह घर के बाहर एक दीपक  जगाना, लोहड़ी पर आग में तिल डालने इत्यादि ।
हम बच्चे इस सब को ही गुरबाणी समझते थे और वाहेगुरू की कृपा मानते थे।  इसलिये इन सभी त्योहारों दीवाली, दशहरा, लोहड़ी, रखड़ी का हमें बहुत इंतजार रहता है । हमें गुरू की वास्तविक शिक्षाओं तथा
गुरमत का पता ही नहीं है । हां एक बात है हम सुबह-श्याम पाठ भी किया करते हैं बिना समझे, विचारे।  लेकिन फिर धीरे-धीरे गुरबाणी को समझना, विचारना शुरू किया और जब गुरबाणी को समझकर देखा तो मेरे मन के सारे सवाल तथा भ्रम धुंध की तरह उड़ गये। हम हैरान हो गये जो कुछ हम बचपन से देख रहे हैं , कर रहा हैं । गुरबाणी तो उस सब से रोक रही है परंतु हम पता नहीं ये सब क्यों कर रहे हैं साथ ही हैरानी एक ओर बात की भी हुई जो कुछ हम विज्ञान के बारे में आज पढ़ रहे हैं उसमें से बहुत कुछ तो गुरबाणी में पहले से ही मौजूद है ।
गुरू साहेबान ने हमें विकारों, अवगुणों के साथ-साथ पाखंडों, कर्मकांडों तथा अंधविश्वासों से भी बाहर निकालकर केवल एक अकाल पुरूख वाहेगुरू के साथ जोड़ा है। सिख और प्रभु के बीच किसी दीये, बाती, तेल, दूध, जल, फूल, माला, तीर्थ स्नान, व्रत, हवन, अग्नि, वायु, धूप, गंध आदि का कोई भी स्थान नहीं है।
               कुछ समय के लिये सिखों को जंगलों में जा कर रहना पड़ा था। उस समय तथा बाद में अंग्रेजों के समय में सिखी विचारधारा में कुछ मिलावट हुई है जिसके कारण कई सिख परिवार अपने कर्म गुरू की शिक्षाओं से विपरीत कर रहे हैं। लेकिन गलती उन सिखों
की भी नहीं है वे तो ऐसे कर्म केवल अज्ञानता के कारण कर रहे हैं। मैं खुद भी अज्ञानता के कारण ये सभी कर्म बचपन से किया करता था।
आगे गुरबाणी विचार करते हैं। गुरबाणी हमें जिस दीपक को जगाने की शिक्षा देती है उसके लिये प्रभु के नाम के सिवाय किसी तेल, बाती, दीपक आदि की आवश्यकता नहीं है तथा इस नाम के दीपक से मन के अंदर प्रकाश फैल जाता है।

नाम तेरा दीवा नामु तेरो बाती नामु तेरो तेलु ले माहि पसारे ।। (694)
नाम तेरे की जोति लगाई भइओ उजियारो भवन सगलारे ।। 2।।

अर्थ- (किसी अन्य दीपक की आवश्यकता नहीं है) क्योंकि प्रभु तेरा नाम ही दीपक (दीवा) है,
नाम ही बाती है और तेरा नाम ही दीपक में (माहि) डालने वाला तेल है (1)। प्रभु तेरे नाम रूपि जोत लगायी है जिससे सारे (सगलारे) शरीर रूपि भवन (मन) में ज्ञान का प्रकाश (उजियारो) हो गया है (2)।

ततु तेलु नामु कीआ बाती दीपकु देह उज्यारा ।। (1350)
जोति लाइ जगदीस जगाइआ बूझै बूझनहारा ।। 2।।

अर्थ- प्रभु के ज्ञान तत को तेल बनाओ, प्रभु के नाम को बाती बनाओ और इस प्रभु के नाम रूपि दीपक से शरीर (देह) में ज्ञान का प्रकाश (उज्यारा) हो जाता है (1)। प्रभु के नाम की जोत को लगाकर (मन में) प्रभु (जगदीस) प्राप्त (जगाइआ) हो जाता है तथा इसको कोई समझने वाला ही समझ (बूझै) सकता है (2)।

दूखु अंधेरा घर ते मिटिओ।। गुरि गिआनु द्रिड़ाइओ दीप बलिओ ।। 7।।

अर्थ- (अवगुणों को त्यागकर) शरीर (घर) से दुखों का अंधकार मिट जाता (मिटिओ) है (1)। मन में गुरू का ज्ञान धारण करने (द्रिड़ाइओ) से ज्ञान का दीपक (दीप) जलने (बलिओ) लगता है (2)।

सतिगुर सबदि उजारो दीपा।। (821)
अर्थ- सच्चे गुरू की शिक्षा (सबदि) के द्वारा (मन में ज्ञान के) दीपक को जलाओ (उजारो)।

अंतरि भाहि तिसै तू रखु ।। अहिनिसि दीवा बलै अथकु ।। 1।। (878)

अर्थ- अपने अंदर प्रभु की जोत (भाहि) है तू उसको (तिसै) संभाल (रखु) (1)। इस तरह से दिन-रात लगातार (अहिनिसि) तेरे अंदर ज्ञान का दीपक जलता (बलै) रहेगा (2)।

कई सज्जन गुरबाणी की इस शिक्षा को (की जोत प्रभु के नाम की लगानी है) भुलाकर मिट्टी आदि के दीपकों को जलाकर ही प्रभु को प्राप्त करना चाहते हैं। इसी तरह से कई दूध के भोग लगाते हैं, कई फूल चढ़ाते हैं उनको सूचा, मलिन तथा पवित्र समझकर। लेकिन गुरबाणी समझाती है कि दूध तो पहले ही गाय के बछरे का झूठा है और फूल भंवरे के झूठे हैें तथा इन सभी कर्मों के स्थान पर अपने मन को प्रभु के साथ जोड़ो। गुरबाणी पत्ते तथा फूल तोड़ने से भी मना करती है क्योंकि इन सभी से प्रभु प्राप्त नहीं हो सकता। प्रभु तो केवल नाम को मन में बसाकर जीवन बदलने से प्राप्त होता है।

दूधु त बछरै थनहु बिटारिओ। फूलु भवरि जलु मीनि बिगारिओ ।। 1।। (525)
अर्थ- (प्रभु को दूध, फूल, जल आदि की आवश्यकता नहीं है) दूध तो पहले ही बछरे का झूठा है तथा फूल भंवरे के और पानी मछलियों (मीनि) का झूठा है (1,2)।

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ।। (479) जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ।। 1।।

अर्थ- माली (मालिनी) पत्ते तोड़ता है लेकिन यह नहीं समझता के पत्ते में भी जीवन (जीउ) है (1)। जिस मूर्ति (पाहन) आदि के लिए पत्ते तोडे़ हैं वह (सो) पत्थर निर्जीव है (2)।

तोरउ न पाती पूजउ न देवा ।। राम भगति बिनु निहफल सेवा ।। 2।। (1158)
अर्थ- पत्तों को ना तोड़ो तथा पत्थरों की मूर्ति (देवा) को ना पूजो (1)। प्रभु (राम) के नाम के बिना किये गये अन्य सभी कार्य (सेवा) व्यर्थ (निहफल) हैं (2)।

भरमि भूले अगिआनी अंधुले भ्रमि भ्रमि फूल तोरावै ।। (1264)
अर्थ- भर्मों में फंसे हुए अंधे तथा अज्ञानी व्यक्ति भ्रम के कारण फूल तोड़ते (तोरावै) हैं (ताकि प्रभु को प्राप्त कर सके परंतु यह सब व्यर्थ है)।
अगर प्रभु को फूल, दूध, जल, दीये आदि अर्पण नहीं करने तो फिर प्रभु को क्या सौंपना है? इसका जवाब भी गुरबाणी देती है। गुरबाणी समझाती है के प्रभु के नाम के बिना सभ कुछ ही झूठा है चाहे वे फूल, दूध व जल आदि कुछ भी क्यों ना हों। गुरबाणी उपदेश करती है कि इन सभी के स्थान पर अपना मन प्रभु के हवाले करके उस मन में प्रभु को धारण करो।

हरि बिनु सभु किछु मैला संतहु किआ हउ पूज चड़ाई ।। (910)
अर्थ- प्रभु के नाम के बिना सभी कुछ मैला नजर आता है इसलिये मैं (हउ) प्रभु को पूजा में क्या चढाउं (चड़ाई)।

मनु तनु धनु सभु प्रभू केरा किआ को पूज चड़ावए ।। (542)
अर्थ- मन, तन तथा धन सभी कुछ उस प्रभु का दिया हुआ है इसलिये पूजा में कोई क्या (किआ को) चढा सकता है (जब सभी कुछ उस प्रभु का है)।

मनु अरपउ पूज चरावउ ।। गुर परसादि निरंजन पावउ ।। (525)
अर्थ- (प्रभु को दूध, फूल, जल, धन आदि नहीं चाहिए अगर कुछ देना है तो) अपना तन तथा मन प्रभु को अर्पण (अरपउ) करो तथा पूजा में चढाओ (चरावउ) (1)। इस तरह से गुरू की
कृपा के द्वारा प्रभु (निरंजन) को प्राप्त करो (पावउ) (2)।        
                गुरू नानक देव जी संसार को पाखंडों, कर्मकांडों से बाहर निकालते हुए जब जगंनाथ पूरी पहुंचे तो पुजारियों ने गुरू साहेब को भी दीये जलाकर, फूलों, सुगंध, धूप आदि के साथ आरती
करने के लिये कहा। लेकिन गुरू साहेब ने ऐसी आरती के स्थान पर उस महान आरती के विषय में बताया जो प्रभु के लिए सदैव चल रही है। गुरू साहेब ने समझाया के आरती करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि प्रभु की आरती तो निरंतर हो रही है, बस हमें ध्यान जोड़कर उस विशाल आरती में शामिल होना है। गुरू साहेब ने शिक्षा दी की थाली, दीपक, सुगंध, धूप, फूलों आदि की जरूरत नहीं है बस केवल ध्यान लगाने की आवश्यकता है। प्रभु की विशाल आरती में आकाश थाल के समान है, सूरज व चांद दीपकों के समान हैं, सभी तारे मोतियों के समान हैं, पहाड़ों से आने वाली हवा धूप व सुगंधी के समान फैल कर चंवर कर रही है और सारे पेड़-पौधे प्रभु की आरती में अपने फूल दे रहे हैं।

गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ।। (13)
धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ।। 1।।
कैसी आरती होइ ।। भव खंडना तेरी आरती।।
अर्थ- (गुरू साहेब उस प्रभु की निरंतर चलने वाली आरती के विषय में समझाते हैं कि) आकाश रूपी (गगन मै) थाल में सूरज (रवि) और चांद दीपक की तरह रखे हैं और तारों के समुह (तारिका मंडल) ऐसे समझो (जनक) जैसे मोती हों (1)। मलय पर्वत से आने वाली
(मलआनलो) हवा (पवणु) मानो धूप है और समस्त हवा बहकर चवर कर रही है (चवरो करे) तथा सारी (सगल) वनस्पति (बनराइ) (प्रभु की आरती की लिए) फूल (फूलंत) दे रही है (2)।
हे जन्म मरण (भव खंडना) से मुक्ति देने वाले प्रभु तेरी कितनी अद्भुत (कैसी) आरती कुदरत में हो रही है (3,4)।

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