Wednesday, 29 August 2012

जिद्दी




अपनी मांग मनवाने के लिए जिद्द करें / जरूर करें /
 दूसरों से ही नहीं स्वयं से भी जिद्द करें /
अच्छा बनना है तो बुरा न बनने की जिद्द करें /
अच्छा बनने की जिद्द करें /
हर सकारात्मक जिद्द एक संकल्प ही तो है /
 नकारत्मक भावों को मिटाने की जिद्द करें /
 अनुशासनहीनता दूर करनें की जिद्द करें /
 किसी अच्छे कार्यों को पूरा की जिद्दी बन जाएँ /
 अन्याय और शोषण को मिटाने के लिए अपनी जिद्द कभी न छोड़े /
झूठी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए जिद्द करने की अपेक्षा गलत मूल्यों और परंम्पराओं को मिटाने की जिद्द करना अच्छा है /
आप अपने अच्छे स्वास्थ्य , सुख - सम्रद्धि और दीर्घायु के प्रति जिद्द्दी होकर दीर्घायु पाने की दिशा में बढें/

Tuesday, 21 August 2012

जपु जी साहिब।(1-26) (हिन्दी अर्थ अनुवाद)


सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।

अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।




हुकमी होवनि आकार, हुकमु न कहिआ जाई।।
हुकमी होवनि जीअ, हुकमि मिलै वडिआई।।



पद अर्थ : अकाल पुरख (परमात्मा) के हुक्म अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (परन्तु यह) हुक्म बताया नहीं जा सकता कि कैसा है। परमात्मा के हुक्म अनुसार ही सारे जीव जन्म लेते हैं तथा हुक्म अनुसार ही (परमात्मा के दर पर) शोभा मिलती है।



हुकमी उतमु नीचु, हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि।।

इकना हुकमी बखसीस, इकि हुकमी सदा भवाईअहि।।



परमात्मा के हुक्म से कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता है) कोई बुरा। उसके हुक्म में ही (अपने किये हुये कर्मों के) लिखे अनुसार दुख तथा सुख भोगते हैं। हुक्म में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, तथा उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरन के चक्र में घुमाये जाते हैं ।






गावै को ताणु हौवै किसै ताणु ।।
गावै को दाति जाणै नीसाणु ।।

जिस किसी मनुष्य में सामर्थ्य होती है वह परमात्मा के बल का गायन करता है (भाव, उसका गुण-कीर्तन करता है, उसके उन कार्यों का कथन करता है जिनसे उसकी अपार शक्ति प्रकट हो) । कोई मनुष्य उसके द्वारा दिये गये पदार्थों का ही गुण-गान करता है (क्योंकि इन देय-पदार्थों को वह परमात्मा की कृपा का) निशान समझता है।







परमात्मा के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा बन जाता है,कोई बुरा।
उसके हुक्म में ही अपने किये हुये कर्मों के लिखे अनुसार दु:ख तथा सुख भोगे जाते हैं ।
हुक्म में ही कई मनुष्यों पर अकाल पुरख (परमात्मा) के दर से कृपा होती है।
उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरन के चक्र मे घुमाये जाते हैं ।



गुरमखि नादं, गुरमुखि वेदं, गुरमुखि रहिआ समाई।।
गुरु ईसरु, गुरु गोरखु बरमा, गुरु पारबती माई।।


 ज्ञान गुरू द्वारा प्राप्त होता है।गुरू द्वारा ही यह विश्वास पैदा होता है कि वह हरि सर्वत्र व्यापक है।
गुरू ही हमारे लिये शिव है, गुरू ही हमारे लिये गोरख तथा ब्रहमा है तथा गुरू ही हमारे लिये माई पार्वती है।...

जे हउ जाणा, आखा नाही, कहणा कथनु न जाई।।
गुरा, इक देहि बुझाई।।
सभना जीआ का इकु दाता, सो मै विसरि न जाई।।५।।

वैसे परमात्मा के इस हुक्म को यदि मैं समझ भी लूँ तो भी उस का वर्णन नहीं कर सकता। अकाल पुरख (परमात्मा) के हुक्म का कथन नहीं किया जा सकता। मेरी तो हे सतगुरू ! तेरे आगे प्रार्थना है कि मुझे एक समझ दे कि जो सब जीवों को देह पदार्थ देने वाला एक परमात्मा है, मैं उसको भुला न दूँ ।५।

भाव : प्रेम को मन में बसा कर जो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, उसके हृदय में सदा सुख तथा शांति का निवास होता है। परन्तु यह याद , यह बन्दगी गुरू से मिलती है। गुरू ही यह दृढ़ कराता है कि प्रभु सर्वत्र बस रहा है, गुरू द्वारा ही जीव की प्रभु से दूरी समाप्त होती है। तब तो गुरू से ही बंदगी की दाति मांगें ।

तीरथि नावा, जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।।
जेती सिरठि उपाइ वेखा, विणु करमा कि मालै लइ।।

मैं तीरथ पर जाकर तब स्नान करूँ यदि ऐसा करने से उस परमात्मा को खुश कर सकूँ, परन्तु यदि इस तरह परमात्मा खुश नहीं होता, तब मैं तीर्थ पर स्नान करके क्या अर्जित करूँगा ?
परमात्मा की पैदा की हुई जितनी भी दुनिया मैं देखता हूँ, इस में परमात्मा की कृपा के बिना किसी को कुछ नहीं मिलता, कोई कुछ नहीं ले सकता।




मति विचि रतन जवाहर माणिक, जे इक गुर की सिख सुणी।।
गुरा, इक देहि बुझाई।।
सभना जीआ का इकु दाता, सो मै विसरि न जाई।।६।।



यदि सतिगुरू की एक शिक्षा सुन ली जाये, तो मनुष्य की बुद्धि के अंदर रत्न, जवाहरात तथा मोती उत्पन्न हो जाते हैं, भाव, परमात्मा के गुण पैदा हो जाते हैं।
हे सतिगुरू ! मेरी तेरे आगे प्रार्थना है कि मुझे एक यह समझ दे, जिस से मुझे वह परमात्मा न भूल जाये, जो सारे जीवों को देह पदार्थ देने वाला है।६।



भाव : तीर्थ पर स्नान भी प्रभु की प्रसन्नता तथा प्यार की प्राप्ति का साधन नहीं है। जिस
पर कृपा हो, वह गुरू के रास्ते पर चल कर प्रभु की याद से जुड़ें । बस ! उसी मनुष्य की बुद्धि मे परिवर्तन होता है।





जे जुग चारे आरजा , होर दसूणी होइ ||
नवां खंडा विचि जाणीऐ, नालि चलै सभु कोइ||

यदि किसी मनुष्य की आयु चार युगों जितनी हो जाए , केवल इतनी ही नहीं बल्कि यदि इससे भी दस गुणा अधिक आयु हो जाए, यदि वह सारे संसार में भी प्रगट हो जाए तथा प्रत्येक मनुष्य उसके पीछे लग कर चलें 
पर यदि वह बंदगी के गुण से हीन है, तो प्रभु की क्रपा का पात्र नहीं बन सकता /


चंगा नाउ रखाइ कै जसु कीरति जगि लेइ।।
जे तिसु नदरि न आवई त वात न पुछै के।।
कीटा अंदरि कीटु, करि दोसी दोसु धरे।

अर्थ : अगर मनुष्य अच्छा यश कमाकर सारे संसार में शोभा भी प्राप्त कर ले, परन्तु यदि परमात्मा की कृपा- दृष्टि में नहीं आ सकता, तो वह उस मनुष्य जैसा है जिसकी कोई बात नहीं पूछता । भाव, इतने मान- सम्मान वाला होते हुए भी असल में निराक्षय ही है । बल्कि ऐसा मनुष्य परमात्मा के सामने एक मामूली सा कीड़ा है। परमात्मा उस को दोषी निर्धारित करके उस पर 'नाम' भूलने का दोष लगाता है ।७।





नानक निरगुणि गुणु करे गुणवंतिआ गुणु दे।।
तेहा कोइ न सुझई, जि तिसु गुणु कोइ करे।।७।



हे नानक ! वह परमात्मा गुणहीन मनुष्य में गुण पैदा कर देता है तथा गुणी मनुष्यों को भी गुण देने की कृपा वही करता है। ऐसा अन्य कोई नहीं दिखाई देता, जो निर्गुण जीव को कोई गुण दे सकता हो । प्रभु की कृपा दृष्टि ही उसको ऊँचा कर सकती है, लम्बी उमर तथा जगत की शोभा सहायता नहीं करती।७।


भाव : प्राणायाम की सहायता से दीर्घ आयु कर जगत में चाहे मनुष्य का मान-आदर बन जाये, पर यदि वह बंदगी के गुण से हीन है, तो प्रभु की कृपा का पात्र नहीं बना। प्रभु की दृष्टि मं तो वह नाम हीन जीव एक छोटा-सा कीड़ा है। यह बंदगी वाला गुण जीव को प्रभु की कृपा से ही मिल सकता है।


सुणिऐ, सिध पीर सुरि नाथ || सुणिऐ, धरति धवल आकाश || 



सुणिऐ, दीप लोअ पाताल|| सुणिऐ, पोहि न सकै काल || 


नानक, भगता सदा विगासु|| सुणिऐ, दुख पाप का नासु||८||


हे नानक ! अकाल पुरख (परमात्मा) के नाम में ध्यान लगाने वाले भगत जनों के ह्रदय में सदा प्रफुलता बनी रहती है , क्योंकि उसका गुण कीर्तन सुनने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है/ यह नाम ह्रदय में बसाने की ही बरकत है कि साधारण मनुष्य सिद्धों, पीरों, देवताओं तथा नाथों की पदवी प्राप्ति कर लेते हैं/ तथा उनको यह ज्ञान हो जाता है कि धरती, आकाश, का आसरा वह प्रभु है जो सारे दीपों, लोकों तथा पातालों में व्यापक है/८/ 



भाव : गुण कीर्तन में जुड़कर साधारण मनुष्य भी उच्च आत्मिक पद पर पंहुच जाते हैं / उनको प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि प्रभु सारे खंड ब्रम्न्द्द में व्यापक है त्तथा धरती आकाश का आश्रय है/ इस प्रकार सर्वत्र प्रभु का दीदार होने से उनको मौत का डर भी प्रभावित नहीं करती /



सुणिऐ, इसरू बरमा इंदु|| सुणिऐ, मुखि सालाहण मन्दु||
सुणिऐ, जोग जुगति तनि भेद|| सुणिऐ, सासत सिमिर्त वेद||
नानक ! भागता सदा विगासु || सुणिऐ, दूख पाप का नासु||

हे नानक ! 'नाम' से प्रेम करने वाले भक्त जनों के ह्रदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है/ क्योंकि परमात्मा का गुण- कीर्तन सुनने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है/ परमात्मा के 'नाम' से ध्यान जोड़ने के परिणाम स्वरूप साधारण मनुष्य शिव, ब्रह्मा तथा इंद्र की पदवी पर पहुँच जाता है, बुरा मनुष्य भी मुहं से परमात्मा की बड़ाई (गुण-कीर्तन) करने लग जाता है/ साधारण बुद्धि वाले को भी शरीर की गुप्त बातें भाव, आँख, कान, जीभ आदि इन्द्रियों के कार्य व्यापार तथा उनकी विकारों की तरफ़ दौड़-भाग के भेद का पता लग जाता है, प्रभु मिलाप की युक्ति की समझ आ जाती है, शास्त्रों, स्मृतियों तथा वेदों का ज्ञान हो जाता है / 
भाव , धार्मिक पुस्तकों  का वास्तविक उच्च लक्षय तब समझ आ जाता है जब हम इस नाम में ध्यान जोड़ते हैं, नहीं तो केवल शब्दों को ही पढ लेते हैं/ उस असली भावना में नहीं पहुँचते जिस भावना में पहुँच कर उन धार्मिक पुस्तकों का उच्चारण किया होता है / 

सुणिऐ, इसरू बरमा इंदु|| सुणिऐ, मुखि सालाहण मन्दु||
सुणिऐ, जोग जुगति तनि भेद|| सुणिऐ, सासत सिमिर्त वेद||
नानक ! भागता सदा विगासु || सुणिऐ, दूख पाप का नासु||९||

अर्थ : हे नानक ! 'नाम' से प्रेम करने वाले भक्त जनों के ह्रदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है/ क्योंकि परमात्मा का गुण- कीर्तन सुनने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है/ परमात्मा के 'नाम' से ध्यान जोड़ने के परिणाम स्वरूप साधारण मनुष्य शिव, ब्रह्मा तथा इंद्र की पदवी पर पहुँच जाता है, बुरा मनुष्य भी मुहं से परमात्मा की बड़ाई (गुण-कीर्तन) करने लग जाता है/ साधारण बुद्धि वाले को भी शरीर की गुप्त बातें भाव, आँख, कान, जीभ आदि इन्द्रियों के कार्य व्यापार तथा उनकी विकारों की तरफ़ दौड़-भाग के भेद का पता लग जाता है, प्रभु मिलाप की युक्ति की समझ आ जाती है, शास्त्रों, स्मृतियों तथा वेदों का ज्ञान हो जाता है / 
भाव , धार्मिक पुस्तकों  का वास्तविक उच्च लक्षय तब समझ आ जाता है जब हम इस नाम में ध्यान जोड़ते हैं, नहीं तो केवल शब्दों को ही पढ लेते हैं/ उस असली भावना में नहीं पहुँचते जिस भावना में पहुँच कर उन धार्मिक पुस्तकों का उच्चारण किया होता है / 

भावजैसे जैसे ध्यान 'नाम' से जुड़ता है, जो मनुष्य पहले विकारी था, वह भी विकार छोड़कर गुण-कीर्तन करने का स्वभाव बना लेता है/ इस तरह यह समझ आ जाती है कि कुमार्ग पर चलने वाली ग्यानिन्द्रियाँ कैसे प्रभु से दुरी का साधन बनती जाती हैं तथा इस दुरी को मिटाने का कौन सा तरीका है/ 'नाम' में ध्यान जुडने से ही धर्म पुस्तकों का ज्ञान मनुष्य के मन को प्रकाशित  करता है/९||


सुणिऐ, सतु संतोखु गिआनु।। सुणिऐ, अठसठि का इसनानु।।
सुणिऐ, पढ़ि पढ़ि पावहि मानु।। सुणिऐ, लागै सहजि धिआनु।
 नानक, भगता सदा विगासु।। सुणिऐ, दूख पाप का नासु।।१०।।

हे नानक ! परमात्मा के नाम में ध्यान जोड़ने वाले भक्त जनों के हृदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है, क्योंकि परमात्मा का
गुण-कीर्तन सुन ने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है। 
प्रभु के नाम में जुड़ने से हृदय मे् दान देने के स्वभाव संतोष तथा प्रकाश प्रकट हो जाता है, मानों अड़सठ तीर्थों का स्नान ही 
हो जाता है भाव, अड़सठ तीर्थों के स्नान नाम जपने मे् ही आ जाते हैं । जो सत्कार मनुष्य विद्मा पढ़ कर प्राप्त करते हैं, वह भक्त जनों को परमात्मा के नाम मे् जुड़ कर ही मिल जाता है। नाम सुन ने में अडोलता मे चित्तवृति टिक जाती है।१०।

नाम में ध्यान जोड़ने से ही मन विशाल होता है, ज़रुरतमंदों की सेवा तथा सतोष वाला जीवन बनता है। नाम में डुबकी ही अड़सठ तीर्थों का स्नान है, जगत के किसी मान-सम्मान की प्रवाह नही रह जाती, मन सहज-अवस्था में, अडोलता मे
 मग्न रहता है।


सुणिऐ, सरा गुणा के गाह || सुणिऐ, सेख पीर पातसाह ||
सुणिऐ, अंधे पावहि राहु|| सुणिऐ, हाथ होवै असगाहु||
नानक, भगता सदा वीगासु|| सुणिऐ, दूख पाप का नासु ||११ ||

हे नानक ! परमात्मा के नाम में ध्यान जोड़ने वाले भक्त जनों के हृदय में सदा प्रफुल्लता बनी रहती है, क्योंकि परमात्मा का

गुण-कीर्तन सुन ने से मनुष्य के दुखों तथा पापों का नाश हो जाता है। 
परमात्मा के नाम में ध्यान जोड़ने से साधारण मनुष्य अनन्त गुणों की सूझ वाले हो जाते हैं, शेख, पीर तथा पातशाहों की पदवी प्राप्त कर लेते हैं/ यह नाम सुनने की ही बरकत है कि अन्धे ज्ञान हीन मनुष्य भी परमात्मा के मिलन का रास्ता खोज लेते हैं/ अकाल पुरख परमात्मा के नाम से जुड़ने के परिणाम स्वरूप इस गहरे संसार-समुन्द्र की असलियत समझ में आ जाती है /११/

जैसे-जैसे ध्यान नाम में जुडता है, मनुष्य दैवी गुणों के समुन्द्र में डुबकी लगाता है/ संसार अथाह समुन्द्र है, जहाँ परमात्मा से बिछुड़ा हुआ जीव अन्धों की तरह हाथ पैर मारता है/ परन्तु नाम में जुड़ने से जीव जीवन का सहि मार्ग खोजता है /११/ 


मंने की गति कही न जाइ|| जे को कहै, पिछै पछुताइ||
कागदि कलम न लिखणहारु|| मंने का, बहि करनि विचारु||
ऐसा नामु निरंजनु होइ|| जे को मंनि जाणै मनि कोइ ||१२||


उस मनुष्य की उच्च आत्मिक अवस्था बताई नहीं जा सकती, जिस ने परमात्मा के नाम को मान लिया है, भाव, जिसकी लग्न नाम में लग गई है/ यदि कोई मनुष्य ब्यान करे तो भी वह बाद में पछताता (पश्चाताप ) है कि मैंने अभी कम यत्न किया है/ 
मनुष्य मिलकर

 'नाम' में विशवास रखने वाले की आत्मिक अवस्था का अंदाजा लगाते हैं परन्तु कागज पर कलम से कोई मनुष्य लिखने में समर्थ नहीं है/
परमात्मा का नाम बहुत ऊँचा है, तथा माया के प्रभाव से परे है / इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है परन्तु यह भाव तभी समझ में आती है जब कोई मनुष्य अपने अंदर लग्न लगा कर देखे |१२||





प्रभु माया के प्रभाव से बहुत उच्चा है / उस के नाम में ध्यान जोड़कर जिस  मनुष्य के मन में उसकी लग्न लग जाती है उस की भी आत्मा माया की मार से ऊपर हो जाती है 
जिस मनुष्य की प्रभु से लग्न लग जाए, उसकी आत्मिक उच्चता ण कोई ब्यान कर सकता है न कोई लिख सकता है/


मनै, सुरति होवै मनि बुधि।। मनै, सगल भवण की सुधि।।
मनै मुहि चोटा ना खाइ।। मनै जम कै साथि न जाइ।।
ऐसा नामु निरंजनु होइ।। जे को मनि जाणै मनि कोइ।।१३।।

यदि मनुष्य के मन में प्रभु के नाम कि लग्न लग जाये, तो उसकी चितवृति ऊँची हो जाति है, उस के मन में जागृति आ जाती है, भाव, माया में सोया मन जागृत हो जाता है, सारे भवनों की उसे सुझ हो जाती है कि हर स्थान पर प्रभु व्यापक है।
वह मनुष्य संसार के विकारों की चोटें मुँह पर नहीं खाता, भाव, सांसारिक विकार उसको दबा नहीं सकते तथा यमों के साथ नहीं जाता, भाव, वह जन्म-मरण के चक्र से बच जाता है।
परमात्मा का नाम जो माया के नाम से परे है , इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है पर यह बअत तब समझ आती है, यदि कोई मनुष्य अपने मन में हरि-नाम की लग्न पैदा कर के। १३।
प्रभु चरणों की प्रीती मनुष्य के मन में प्रकाश पैदा कर देती है, सारे संसार में उसको परमात्मा ही दिखाई देता है। उसको विकारों की चोतें नहीं पड़ती तथा न ही उसको मौत डरा सकती है।  


मनै, मारगि ठाक न पाइ || मनै, पति सिउ परगटु जाइ ||
मनै, मगु न चलै पंथु || मनै, धरम सेती सनबंधु ||
ऐसा नामु निरंजनु होइ || जे को मंनि जाणै मनि कोइ ||१४||
जपु जी साहिब|

यदि मनुष्य का मन नाम में लग जाए तो जिंदगी की राह में विकारों आदि की कोई रुकावट नहीं पड़ती | वह संसार में यश कमा कर सम्मान के साथ जाता है
उस मनुष्य का धर्म के साथ सीधा संबंध बन जाता है| वह फिर दुनिया के भिन्न-भिन्न धर्मों के बताए रास्तों पर नहीं चलता |
भाव, उसके अंदर यह विचार नहीं आता कि यह रास्ता अच्छा है और यह रास्ता बुरा है|
परमात्मा का नाम जो माया के प्रभाव से परे है, इतना ऊँचा है कि इस में जुड़ने वाला भी उच्च आत्मिक अवस्था वाला हो जाता है, परन्तु यह बात तब भी समझ में आती है जब कोई मनुष्य अपने मन में हरि नाम की लग्न पैदा कर के|१४|

याद की बरकत से जैसे जैसे मनुष्य का प्यार परमात्मा से बनता है, इस सिमरन रूप 'धर्म' के साथ उसका इतना गहरा सम्बन्ध बन जाता है कि कोई रुकावट उसको इस सही निशाने से हटा नहीं सकती| अन्य पग-डंडियो भी उसे कुमार्ग पर नहीं ले जा सकतीं|


पंच परवाण, पंच परधानु।। पंच, पावहि दरगहि मानु।।

पंचे, सोह्हि दरि राजानु।। पंचा का गुरु एकु धिआनु।।



जिन मनुष्यों की चितवृति नाम में जुड़ी रहती है तथा जिन के अंदर प्रभु के लिये लग्न बनी रहती है, वही मनुष्य यहाँ जगत में मान-सत्कार प्राप्त करते हैं तथा प्रमुख (सबके आगे रहने वाले) बने रहते हैं, परमात्मा के दरबार में भी वह पंच जन ही आदर प्राप्त करते हैं । राज दरबार में भी वह पंच जन ही सुशोभित होते हैं । इन पँच जनों की चितवृति का लक्षय केवल एक गुरु ही है अर्थात इनका ध्यान गुरु-शब्द में ही रहता है, गुरु- शब्द में जुड़े रहना ही इन का असल लक्षय है।


जे को कहै, करै विचारू || करते कै करणै, नाही सुमारु ||

गुरू-शब्द में जुड़े रहने का यह परिणाम नहीं निकल सकता किकोई मनुष्य प्रभु की बनाई सृष्टि का अंत पा सके / 
परमात्मा की कुदरत का कोई लेखा ही नहीं है, अर्थात अंत नहीं पाया जा सकता, चाहे कोई कथन करके देख ले तथा विचार कर ले / परमात्मा तथा उसकी कुदरत का अंत ढूँढना मनुष्य के जीवन का मनोरथ (लक्ष्य ) हो ही नहीं सकता/ Cont...


धौलु धरमु, दइया का पूतु।। संतोखु थापि रखिआ जिनि सूति।।

जे को बुझै होवै सचिआरु।। धवलै उपरि केता भारु।।

धरती होरु, परै होरु होरु।। तिस ते भारू, तलै कवणु जोरू।।







परमात्मा का धर्म रुपी दृढ़ नियम ही बैल है, जो सृष्टी को कायम रख रहा है। यह धर्म का पुत्र है, अर्थात परमात्मा ने अपनी कृपा से सृष्टी को टिकाये रखने के लिये 'धर्म' रुप नियम बना दिया है। इस धर्म ने अपनी मर्यादा के अनुसार संतोष को जन्म दिया है। 

यदि कोई मनुष्य इस ऊपर बताये विचार को समझ ले तो वह इस योग्य हो जाता है कि उसके अंदर परमात्मा का प्रकाश हो जाये। नहीं तो विचार तो करो कि बैल पर धरती का कितना असीम भार है, वह बेचारा इतने भार को उठा कैसे सकता है ? 

दुसरी विचार और है कि यदि धरती के नीचे बैल है, उस बैल को सहारा देने के लिये नीचे और धरती होगी, उस धरती के नीचे एक अन्य बैल, उस के नीचे धरती के नीचे और बैल, फिर और बैल, इसी तरह अन्तिम बैल के भार को सहारने के लिये उस के नीचे कौन सा सहारा होगा ?


जीअ जाति रंगा के नाव। । सभना लिखिआ वुडी कलाम। । 
एहु लेखा लिखि जाणै कोइ। । लेखा लिखिआ केता होइ। । 
केता ताणु, सुआलिहु रुपु। । केती दाति, जाणै कौणु कूतु। । 
कीता पसाउ, एको कवाउ। । तिस ते होए लख दरीआउ। ।

सृष्टी मैं कई जातिओं के, कई प्रकार के तथा कई नामों के जीव हैं इन सब ने लगातार चलती कलम से परमात्मा की कुदरत का लेखा लिखा है, परन्तु कोई विरला मनुष्य यह लेखा लिखना जानता है, अर्थात, परमात्मा की कुदरत का अन्त कोई भी जीव नहीं पा सकता । यदि लेखा लिखा भी जाये तो यह अंदाजा नहीं लग सकता कि लेखा कितना बड़ा हो जाये । परमात्मा का बल असीम है, असीम सुंदर रुप है, उसकी देन असीम है - इसका कौन अंदाजा लगा सकता है ? परमात्मा ने अपने हुक्म से सारा संसार बना दिया, उस हुक्म से ही जिन्दगी के लाखों दरिया बन गये ।




कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||
जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१६ |
|



मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 
हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 
है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है
|
१६||



  •  भाग्यशाली हैं वे मनुष्य, जिन्होनें गुरू के बताए रास्ते को अपने जीवन का लक्ष्य माना है | जिन्होंने नाम की चित्व्रती जोड़ी है तथा जिन्होंने परमात्मा के साथ प्यार का रिश्ता जोड़ा है | इस रास्ते पर चलते प्रभु की रजा में रहना अच्घ्छा लगता है | यह नाम सिमरन रूप 'धर्म' उनके जीवन का सहारा बनता है, जिसे वे संतोष वाला जीवन बिताते हैं|


  • असंख जप असंख भाउ।। 
    असंख पूजा असंख तपताउ।।

    परमात्मा की रचना में असंख्य जीव जप करते हैं, अन्नंत जीव दूसरों से प्यार का व्यवहार कर रहे हैं । 

    कई जीव पूजा कर रहे हैं तथा असंख्य ही जीव तप साधना कर रहे हैं ।


    असंख गरंथ मुखि वेद पाठ।। 
    असंख जोग मनि रहहि उदास।।


    अन्नत जीव वेदों तथा अन्य धार्मिक पुस्तकों का पाठ मुँह से करते हैं । योग-साधना करने वाले असंख्य मनुष्य अपने मन में माया की तरफ से उदासीन रहते हैं ।

    असंख भगत, गुण गिआन वीचारु ||
    असंख सती, असंख दातार ||


    परमात्मा की कुदरत में असंख भक्त हैं, जो परमात्मा के गुणों तथा ज्ञान का विचार कर रहे हैं, अनेक ही दानी तथा दाता हैं |
    असंख सुर, मुह भखासार || 
    असंख मोनि, लिव लाइ तार ||

    परमात्मा की रचना में अनन्त शूरवीर हैं, जो अपने मुख से अर्थात सामने होकर शास्तों के वार सहते हैं, अनेक मौनव्रती हैं, जो लगातार विरती जोड़ के बैठे हुए हैं/


    कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||

    जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१७||

    मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 
    हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 
    है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |१७ ||




    भाव : प्रभु की सारी कुदरत का अंत खोजना तो एक तरफ रहा, जगत में यदि आप केवल उन लोगों की ही गिनती करनी शुरू करें जो जप, तप, पूजा, धार्मिक पुस्तकों का पाठ, योग, समाधि आदि कार्य करते चले आ रहे हैं, तो यह लेखा समाप्त होने योग्य नहीं है|

    असंख मूरख अंध घोर ||
    असंख चोर हरामखोर ||
    असंख अमर करि जाहि जोर ||


    निरंकार कि बनाई हुई स्रष्टि में अनेक ही महा मूर्ख हैं, अनेक ही चोर हैं, जो पराया माल चुरा चुरा कर व्यवहार में ला रहे हैं तथा अनेक ही ऐसे मनुष्य हैं जो दूसरों पर हुक्म चलाते तथा जबरदस्ती करते हुए अन्त में इस संसार से चले जाते हैं |

    असंख मूरख अंध घोर ||
    असंख चोर हरामखोर ||
    असंख अमर करि जाहि जोर ||

    निरंकार कि बनाई हुई स्रष्टि में अनेक ही महा मूर्ख हैं, अनेक ही चोर हैं, जो पराया माल चुरा चुरा कर व्यवहार में ला रहे हैं तथा अनेक ही ऐसे मनुष्य हैं जो दूसरों पर हुक्म चलाते तथा जबरदस्ती करते हुए अन्त में इस संसार से चले जाते हैं |
    अनेक ही झूठ बोलने के स्वभाव वाले मनुष्य झूठ में ही व्यस्त हैं तथा अनेक ही खोटी बुद्धि वाले मनुष्य मल अर्थात अखाघ ही खाये जा रहे हैं /

    असंख कुड़िआर, कूड़े फिराहि||
    असंख मलेछ, मलु भाखि खाहि ||

    असंख निंदक, सिरि करहि भारु ||
    नानकु निचु कहै विचारू ||

    अनेक ही निंदक (निंदा करने वाले) अपने सिर पर निंदा का भार उठा रहे हैं | 
    हे निरंकार ! अनेक अन्य जीव कुकर्मों में फसे हुए होंगे, मेरी क्या ताकत है कि तेरी कुदरत का पूर्ण विचार कर सकूँ | नानक बेचारा (तुच्छ-सा ) तो विचार पेश करता है | 


    वारिया न जावा एक वार ||
    जो तुधु भावै साई भली कार ||
    तू सदा सलामति निरंकार ||१८||

    हे परमात्मा ! मैं तो तुम पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ , अर्थात मैं तेरी अन्नत कुदरत का पूर्ण विचार करने योग्य नहीं हूँ | 

    हे निरंकार ! तुन सदा स्थिर रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वही कार्य भला है, अर्थात, तेरी रजा में रहना ठीक है, तेरी प्रशंसा करते हुए तेरी रजा में रहें, हम जीवों के लिये यही ठीक है|१८|


    परमात्मा कि सारी कुदरत का अन्त ढुंढना तो एक तरफ़, यदि आप संसार के केवल चोर, जुआरी, ठग, निंदक आदि लोगों का ही हिसाब लगाने बैठें तो इनका भी कोई अन्त नहीं है/ जब से जगत बना है , अनन्त जीव विकार ग्रस्त ही दिखाई देते हैं /

    असंख नाव, असंख थाव ||
    अगंम अगंम असंख लोअ ||
    असंख कहहि, सिरि भारु होइ ||

    कुदरत के अनेक जीवों तथा अनन्त पदार्थों के असंख्य ही नाम हैं तथा असंख्य ही उनकर स्थान तथा ठिकाने हैं | कुदरत में असंख्य ही भवन हैं जहां तक मनुष्य की पहुँच ही नहीं हो सकती, परन्तु जो मनुष्य कुदरत का लेखा जोखा करने के लिये शब्द 'असंख्य' भी कहते हैं, उनके सिर पर भी भार होता है अर्थात, वे भी भूल करते हैं कि 'असंख्य' शब्द भी पर्याप्त नहीं है |

    अखरी नामु अखरी सालाह || अखरी गिआनु गीत गुण गाह ||
    अखरी, लिखणु बोलणु बाणि || अखरा सिरि, सँजोगु वखाणि ||
    जिनि एहि लिखे, तिसु सिरि नाहि || जिव फुरमाए, तिव पाहि || 

    परमात्मा की कुदरत का लेखा करने के लिये शब्द 'असंख्य' तो क्या, कोई भी शब्द पर्याप्त नहीं है परन्तु परमात्मा का नाम भी अक्षरों द्वारा ही लिया जा सकता है, उस का गुण-कीर्तन भी अक्षरों द्वारा ही किया जा सकता है | 
    परमात्मा का ज्ञान भी अक्षरों द्वारा ही विचारा जा सकता है | अक्षरों द्वारा ही उसके गीत तथा गुणों से परिचित हो सकते हैं | वाणी का लिखना और बोलना भी अक्षरों द्वारा ही दात्लाया जा सकता है | इसीलिए शब्द 'असंख्य' का प्रयोग किया गया है, वैसे जिस परमात्मा ने जीवों के संयोग के यह अक्षर लोखे हैं उस के सिर पर कोई लेख नहीं है अर्थात कोई मनुष्य उस परमात्मा का लेखा नहीं कर सकता | जैसे जैसे वह परमात्मा हुक्म करता है, वैसे वैसे ही जीव अपने संयोग भोगते हैं |


    जेता किता, तेता नाऊ ||
    विणु नावै, नाही को थाऊ ||

    यह सारा संसार जो परमात्मा का बनाया हुआ है, यह उसका सवरूप है |
    कोई स्थान परमात्मा के स्वरूप सर खाली नहीं है , अर्थात जो स्थान या पदार्थ देखें, वही परमात्मा का स्वरूप दिखाई देता है, सर्ष्टि का कण कण परमात्मा का स्वरूप है |


    कुदरति कवण, कहा वीचारु || वारिआ न जावा एक वार ||

    जो तुधु भावै साईं भली कार || तू सदा सलामति निरंकार ||१९ ||



    मेरी क्या ताकत है कि परमात्मा की कुदरत का विचार कर सकूँ ? 

    हे परमात्मा ! मैं तो तुझ पर एक बार भी कुर्बान होने योग्य नहीं हूँ |अर्थात, मेरी हस्ती बहुत ही तुच्छ है| 

    है निरंकार ! तू सदा अटल रहने वाला है |जो तुझे अच्छा लगता है वाही कार्य भला है अर्थात, तेरी रजा में ही रहना ठीक है |


    भाव : कितनी धरतियों तथा कितने जीवों की प्रभु ने रचना की है ?
    मनुष्यों की किसी भी भाषा में ऐसा कोई शब्द नहीं ही है जो यह रहस्य बता सके |
    भाषा तो परमात्मा की एक दें है, परन्तु यह मिली है गुण-कीर्तन करने के लिये | यह नहीं हो सकता कि इसके द्वारा मनुष्य प्रभु का अन्त पा सके | देखो ! अनन्त है उसकी कुदरत तथा इस में जिधर देखो वह आप ही आप मौजूद है | कौन अंदाजा लगा सकता है कि वह कितना बड़ा है तथा उसकी रचना कितनी है ?


    भरिए हथु पेरू तनु देह || पाणी धौतै, उतरसु खेह ||
    मूत पलीती कपडु होइ || दे साबुनु, लइऐ ओहु धोइ ||


    भरिऐ मति पापै कै संगि || ओहु धोपै, नावै के रंगि ||

    यदि हाथ पैर या शरीर मैला ही जाये, तो पानी से धोने पर यह मेल उतर जाती है |यदि कोई कपड़ा मूत्र से गंदा हो जाये, तो साबुन लगा कर उसको धो लिया जाता है | यदि मनुष्य कि बुद्धि पापों से मलिन हो जाए, तो वह पाप, परमात्मा के नाम से प्रेम करने पर ही धोया जा सकता है |

    पुंनी पापी , आखाणु नाहि || करि करि करणा, लिखि लै जाहु||
    आपे बिजि, आपे ही खाहु || नानक, हुक्मी आवहु जाहु ||२० ||

    हे नानक ! 'पुण्यवान' तथा 'पापी' केवल नाम ही नहीं है, अर्थात केवल कहने मात्र को नहीं है, सचमुच ही तू जैसे काम करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर बना क्र साथ ले जाएगा | जो कुछ तू आप बोयेगा, उसका फल आप ही खायेगा | अपने बोये अनुसार परमात्मा के हुक्म में जन्म-मरण के चक्र में पड़ा रहेगा |२०|

    माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है तथा इसकी बुद्धि मलिन हो जाती है | यह मैल इसको शुद्ध-स्वरूप परमात्मा से प्रथक (अलग ) रखती है तथा जिव दुखी रहता है | नाम-सिमरन ही एक साधन है जिस से मन कि मैल धुल सकती है | सिमरन तो विकारों कि मैल धोकर मन को प्रभु से जोडने के लिये है, प्रभु तथा उसकी रचना का अन्त पाने के लिये जिव को समर्थ नहीं बना सकता है |

    "तीरथु तपु दइआ दतु दानु || जे को पावै तिल का मानू ||

    तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया करनी, दिये हुये दान-- इन कर्मों के बदले यदि किसी मनुष्य को कोई प्रशंसा मिलती भी जाए तो थोड़ी मात्र ही मिलती है |

    सुणिया, मंनिआ, मनि कीता भाऊ || अंतरगति तीरथि, मलि नाऊ ||

    जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम से ध्यान जोड़ा है, यानि मन 'नाम' में खर्च किया है तथा जिस ने अपने मन में परमात्मा का प्रेम उत्पन्न किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने आंतरिक तीर्थ में मल-मल कर स्नान कर किया है| अर्थात उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल पुरुख में जुड़ कर अच्छी तरह अपने मन कि मैल उतार ली है |

    सभि गुण तेरे, मै नाही कोइ || विणु गुण कीते, भगति न कोइ ||
    सुअसत आथि बाणी बरमाऊ || सटी सुहाणु सदा मनि चाऊ ||


    हे परमात्मा ! यदि तू आप अपने गुण मुझ में पैदा न करे तो मुझ से तेरी भक्ति नहीं हो सकती / मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है की मैं तेरे गुण गा सकूँ, यह तेरा बड़प्पन है / 

    हे निरंकार ! तेरी सदा जय हो ! तू आप ही माया, है, तू आप ही बाणी है, तू आप ही बरह्मा है / =अर्थात इस सृष्टि को बनाने वाला माया बाणी , या ब्रह्मा तुझ से भिन्न अस्तित्व वाले नहीं हैं जो लोगों ने मान रखे हैं / तू सदा स्थिरहै, सुंदर है, तेरे मन में प्रफुलता है तू ही जगत की रचना करने वाला है, तुझे ही पता है की तुने कब जगत बनाया /

    कवणु सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवणु वारु ||
    कवणि सि रुती, माहू कवणु, जितु होआ आकारु ||



    कौन-सा वह समय तथा वक्त था, कौन-सी तिथि थी, कौन-सा दिन था, कौन-सी वह ऋतु थी तथा कौन-सा महीना था जब यह संसार बना ?
    वेल  न पाईआ पंडती, जि होवै लेखु पुराणु ||
    वखतु न पाइओ कादीया, जि लिखनि लेखु कुराणु || 

    कब यह संसार बना ? 
    उस समय का पंडितों को भी ज्ञान नहीं हुआ, नहीं तो इस विषय पर भी एक पुराण लिखा होता /
    उस समय काजिओं को भी खबर नहीं लग सकी , नहीं तो वह वे लेख लिख देते, जैसे उन्होंने आयतें एकत्र करके कुरआन लिख था /-

    "थिति वारु न जोगी जाणै, रुति माहु न कोई ||

    जा करता सिरठी कउ साजैं, आपै जाणै सोई ||"

    जब संसार बना था तब कौन-सी तिथि थी ? कौन-सा दिन था ?यह बात कोई योगी नहीं जानता /कोई 

    मनुष्य नहीं बता सकता कि 

    तब कौन-सी ऋतु थी, कौन-सा महीना था /



    जो सर्जन कर्ता इस जगत को पैदा कर्ता है, वह आप ही जानता है कि जगत की रचना कब हुई 

    किव करि आखा किव सालाही, किउ वरनी किव जाणा ||


    नानक, आखणि सभु को आखै, इक दू इकु सिआणा ||


    मैं किस तरह बताऊँ, परमात्मा क बड़प्पन ? कैसे करूँ परमात्मा की सिफत सालाह (गुण -कीर्तन) ?

    किस तरह वर्णन करूँ ? कैसे समझ सकूँ ?



    हे नानक ! प्रत्येक जीव अपने आप को दूसरों से अक्लमंद समझ कर परमात्मा का बड़प्पन बताने क 

    यत्न करत है परन्तु बता नहीं सकता /-

    वडा साहिबु वडी नाई, कीता जा क होवै ||
    नानक, जे को आपौ जाणै, अगै गइआ न  सोहै ||२१|
    |

    परमात्मा सबसे बड़ा है,उस क बड़प्पन ऊँचा है /जो कुछ जगत में हो रहा है, सब उसी क किया हो रहा है /
    हे नानक ! यदि कोइ मनुष्य अपनी बुद्दि के बल पर प्रभु के बड़प्पन का अंत पाने क यत्न करे , वह परमात्मा के दर पर जाकर आदर प्राप्त नहीं करता /२१/


    पाताला पाताल लख, आगासा आगास ||
     ओड़क ओड़क भालि थके, वेद कहनि इक वात ||

    सारे वेद एक जुबान होकर कहते हैं ---"पातालों के नीचे और लाखों पाताल हैं |आकाश के उपर और लाखों आकाश हैं|अनन्त ऋषि मुनि इन कि अंतिम सीमाओं को ढूँढ-ढूंढ कर थक गये हैं ,पर ढूँढ नहीं सके |

    सहस अठारह कहनि कतेबा, असुलू इकु धातु ||
    लेखा होइ त लिखीऐ, लेखै होइ विणासु ||

    "कुल अठारह हजार आलम हैं जिन का मूल एक परमात्मा है" 
     "कतेब" (मुसलमान तथा ईसाई धर्म आदि कि चार धर्म पुस्तकें) कहती हैं |
    पर सत्य तो यह है कि शब्द 'हजारों' तथा 'लाखों' भी कुदरत की गिनती में प्रयुक्त नहीं किये जा सकते, परमात्मा की कुदरत का लेखा तभी लिखा जा सकता है जब लेखा हो ही सके | यह लेखा तो हो ही नही सकता | लेखा करते करते तो लेखे का ही अन्त हो जाता है | गिनती तथा अक्षर ही समाप्त हो जाते हैं |
    "नानक,  वडा आखीऐ, आप जाणै आपु ||२२||




    हे नानक ! जिस परमात्मा को सारे जगत में बड़ा कहा जा रहा है, वह आप ही अपने आप को जानता है |

    भाव : प्रभु कि कुदरत का ब्यान करते हुए "हजारों" या "लाखों" कि संख्या का प्रयोग नहीं किया जा सकता / इतनी अनन्त कुदरत है कि इस का लेख करते हुए गिनती कि संख्या भी समाप्त हो जाती है /


    "सालाही सालाहि, एती सुरति न पाइआ ||

    नदीया अतै वाह, पवहि समुंदि, न जाणीअहि ||


    सराहने-योग्य परमात्मा के बड़प्पन के बारे में कह कह कर किसी मनुष्य में इतनी समझ प्राप्त नहीं की कि परमात्मा कितना बड़ा है, गुण-कीर्तन कने वाले मनुष्य उस परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं |

    नदियाँ तथा नाले समुन्द्र में गिरते हैं, पर फिर अलग से वह पहचाने नहीं जा सकते, बीच में ही लीन हो जाते हैं तथा समुन्द्र की थाह नहीं प्राप्त कर सकते |

    " समुंद साह सुलतान, गिरहा सेती मालू धनु ||
    कीड़ी तुलि न होवनी, जे तिसु मानहु न वीसरहि ||"


    समुन्द्रों के बादशाह तथा सुलतान, जिन के खजानों में पहाड़ों जितने धन पदार्थों के ढेर हों, प्रभु का गुण- कीर्तन करने वालों की नज़रों में एक चींटी के बराबर भी नहीं होते, यदि हे परमात्मा ! उस चींटी के मन में से तू न निकल जाए |२३|

    भाव : बंदगी करने वाले का अंत नहीं पाया जा सकता, परन्तु इस का मतलब यह नहीं की परमात्मा की सिफत-सालाह करने का कोई फायदा नहीं | प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों, बादशाहों की भी परवाह नहीं करता | प्रभु का नाम के सामने अनन्त धन भी तुच्छ लगता है 


    अंतु न सिफती, कहणि न अंतु ||अंतु न करणै, देणि न अंतु ||
    अंतु न वेखणि, सुणणि न अंतु ||अंतु न जापै, किआ मनि मंतु ||

    परमात्मा के गुणों कि कोई सीमा नहीं है, गिनने से भी गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता / 
    परमात्मा कि रचना तथा देन का अंत नहीं पाया जा सकता /
    देखने तथा सुनने से भी उसके गुणों का पार नहीं पाया जा सकता /
    उस परमात्मा के मन में कौन-सा विचार है --इस बात का भी अंत नहीं पाया जा सकता /

    "अंतु न जापे कीता आकारु || अंतु न जापे पारावारु ||"


    परमात्मा ने यह जगत जो दिखाई दे रहा है, बनाया है परन्तु इस का अंत, इसका पारावार कोई दिखाई नहीं देता |


    अंत कारणि केते बिललाहि || ता के अंत न पाए जाहि ||



    कई मनुष्य परमात्मा का अन्त (सीमा) ढूँढने के लिए व्याकुल रहते हैं, पर उसका अन्त ढूँढा नहीं जा सकता |

    एहु अंतु न जाणै कोइ ||बहुता कहीऐ बहुता होइ ||

    परमात्मा के गुणों की सीमा का अंत जिसकी खोज अनंत जीव करते हैं, कोई मनुष्य नहीं पा सकता | जैसे-जैसे यह बात कहते जाएँ कि वह बड़ा है, वैसे-वैसे वह और बड़ा, और बड़ा प्रतीत होने लगता है |



    "वडा साहिबु, ऊचा थाउ || ऊचे उपरि ऊचा नाउ ||
    एवडु ऊचा होवै कोइ || तिसु ऊचे कउ जाणै सोइ ||"

    परमात्मा बड़ा है . उसका टिकाना ऊँचा है | उसका नाम भी ऊँचा है| यदि कोई और उस जितना बड़ा हो, वह ही उस ऊँचे परमात्मा को समझ सकता है कि वह कितना बड़ा है |


    " जेवडु आपि जाणै आपि आपि ||
    नानक, नदरी करमी दाति ||२४||"

    परमात्मा आप ही जानता है कि वह स्वयं कितना बड़ा है |
    हे नानक ! प्रत्येक देन कर्पा-दृष्टि रखने वाले परमात्मा की कर्पा से मिलती है |२४|


    गुरू नानक, जपु जी साहिब|


    .
     है|
    बहुता करमु, लिखिआ न जाइ || वडा दाता, तिलु न तमाइ ||"


    परमात्मा बहुत पदार्थ देने वाला है, उसको जरा भी लालच नहीं है |
    उसकी कर्पा इतनी बड़ी है कि लिखी नहीं जा सकती |


    केते मंगहि जोध अपार ||
    केतिआ गणत नही वीचारु ||
    केते, खपि तुटहि वेकार ||"

    अनन्त शूरवीर तथा कई अन्य ऐसे, जिनकी गिनती तथा विचार नहीं हो सकता |
    कई परमात्मा के दर पर मांग रहे हैं | कई जीव उस द्वारा दिये पदार्थों का उपयोग कर के विकारों में ही खप खप कर नष्ट होते हैं |


    केते लै लै मुकरु पाहि || केते मूर्ख, खाही खाहि ||

    अनन्त जीव परमात्मा के दर से पदार्थ प्राप्त करके जुबान से फिर जाते हैं, अर्थात कभी आभार में यह भी नहीं कहते कि सब पदार्थ प्रभु आप दे रहा है | अनेक मुर्ख पदार्थ लेकर खाये ही जाते हैं, परन्तु दातार प्रभु को याद नहीं रखते |

    केतिआ, दूख भूख सद मार || एहि भि दाति तेरी, दातार ||


    अनेक जीवों के भाग्य में सदा मार, क्लेश तथा भूख ही लिखी है | पर हे दातार ! प्रभु ! यह भी तेरी कर्पा ही है क्योंकि इन दुखों कष्टों के कारण ही मनुष्य को रजा में चलने कि समझ आती है |

    बंदि खलासी, भाणै होइ || होरु आखि न सकै कोइ ||


    माया के मोह रूप बंधन से छुटकारा परमात्मा की रज़ा में चलने से ही होता है | रज़ा के बिना कोई अन्य तरीका कोई मनुष्य नहीं बता सकता | अर्थात कोई मनुष्य नहीं बता सकता कि रज़ा में चले बिना मोह से छुटकारे का कोई अन्य साधन भी हो सकता है |



    "जे को खाइकु आखणि पाइ|| ओहु जाणै, जेतीआ मुहि खाइ||" 


    यदि कोई मूर्ख माया के मोह से छुटकारे का अन्य कोई साधन बताने का यत्न करे, तो वही जानता है जितनी चोटें वह इस मूर्खता के कारण अपने मुँह की खाता है अर्थात 'कुड़' (असत्य) से बचने के लिये एक ही तरीका है कि मनुष्य रज़ा में चले | पर यदि कोई मूर्ख कोई अन्य तरीका ढूँढता है तो इस 'कुड़' से बचने की बजाये अधिक दुखी होता है |

    आपै जाणै, आपे देइ || आखाहि सि भि कई केइ ||



    अनेक मनुष्य कहते हैं कि परमात्मा स्वयं ही जीवों कि आवश्यकताओं बखूबी जानता है तथा स्वयं ही देह-पदार्थों को देता है |


    जिस नो बखसे सिफति सालाह || नानक, पातिसाही पातासाहु ||२५|| 

    हे नानक ! जिस मनुष्य को परमात्मा अपनी सिफत-सालाह प्रदान करता है (देता है) वह बादशाह का बादशाह बन जाता है | यह गुण-कीर्तन ही सबसे बड़ी देन है |२५|

    प्रभु कितना बड़ा है--यह बात बतानी तो दूर रही, उसकी कर्पा ही इतनी बड़ी हैं कि लिखी नहीं जा सकती | संसार में जो बड़े बड़े दीखते हैं, ये सब उस प्रभु के दर से ही मांगते हैं | वह तो इतना बड़ा है कि जीवों के मांगे बिना इनकी आवश्यकताएं जानकर अपने आप ही दातें दिये जाता है |
    परन्तु जीव कि मूर्खता देखो ! देह पदार्थों का उपयोग करते हुए भी दातार प्रभु को भूल कर विकारों में पड़ जाता है तथा कई दूखों , कलेशों को सहेज लेता है | यह दूख कलेश भि प्रभु की देन है क्योंकि इन दुखों कलशों के कारण मनुष्य को रजा में चलने की समझ आती है तथा यह प्रभु का गुण-कीर्तन करने लग जाता है | यह सिफत-सालाह (गुण-कीर्तन ) सब से ऊँची देन है |

    अमुल गुण, अमुलु वापार || अमूल वापारीए, अमुल भंडार ||
    अमुल आवाहि, अमुल लै जाहि || अमुल भाइ, अमुला समाहि || 

    परमात्मा के गुण अनमोल है | भाव गुणों का मूल्य नहीं आँका जा सकता, इन गुणों का व्यापार करना भी अनमोल है | उन मनुष्यों का भी मूल्य नहीं आँका जा सकता जो परमात्मा गुणों का व्यापार करते हैं | गुणों के खजाने भी अमूल्य हैं | उन मनुष्यों का मूल्य नहीं आँका जा सकता जो इस व्यापार के लिये जगत में आते हैं | वे भी भाग्यशाली हैं, जो यह सौदा खरीद कर ले जाते हैं | जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम में हैं तथा जो मनुष्य उस परमात्मा में लीन हैं, वे भी अनमोल हैं |


    अमुलु धरमु, अमुलु दिबाणु || अमुलु तुलु, अमूल परमाणु ||
    अमुलु बखसीस, अमुलु निसाणु || अमुलु करमु, अमुलु फुरमाणु ||


    परमात्मा के कानून तथा राज-दरबार अनमोल है |वह तराजू अमूल्य है तथा बाट अमूल्य हैं, जिस से जीवों के अच्छे बुरे कर्मों को तोलता है | उस कि कर्पा तथा कर्पा-निशान भी अनमोल हैं | परमात्मा कि कर्पा तथा हुक्म भी मूल्य से परे हैं, किसी का भी अंदाजा नहीं लग सकता |



    अमुलो अमुलु आखिया न जाइ|| आखि आखि रहे लिव लाइ ||


    परमात्मा सभी अंदाजों से परे  है, उस का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता | जो मनुष्य ध्यान जोड़-जोड़ कर परमात्मा का अंदाज़ा लगाते हैं, वह अन्त को रह जाते हैं |

    आखहि, वेद पाठ पुराण || आखहि पढ़े करहि वखिआण ||
    आखहि बरमे, आखहि इंद्|| आखहि, गोपी तै गोविंद ||

    वेदों में मन्त्र तथा पुराण परमात्मा का अंदाज़ा लगाते हैं | विद्वान मनुष्य भी, जो अन्य लोगों को उपदेश देते हैं, परमात्मा पर ब्यान देते हैं| कई ब्रह्मा, कई इंद्र, गोपिआं तथा कई क्र्ष्ण परमात्मा का अंदाजा लगाते हैं | 

    आखहि ईसर, आखहि सिध ||आखहि, केते कीते बुध ||
    आखहि दानव, आखहि  देव ||आखहि, सुरि नर मुनि जन सेव || 
    कई शिव तथा सिद्ध, परमात्मा द्वारा पैदा किये हुए अनन्त बुद्ध, राक्षस तथा देवता गण, देव- स्वभाव मनुष्य, मुनि-जन और सेवक परमात्मा का अंदाजा लगाते हैं |

    केते आखहि, आखणि पाहि || केते, कहि कहि, उठि उठि जाहि ||
    एते कीते, होरि करेहि || ता, आखि न सकहि केई केइ ||

    अनन्त जीव परमात्मा का अंदाज़ा लगा रहे है तथा अनन्त ही जीव लगाने का का यत्न कर रहे हैं, अनन्त जीव अंदाज़ा लगा कर इस संसार से जा रहे हैं | संसार में इतने अनन्त जीव पैदा किये हुए हैं जो ब्यान कर रहे हैं, पर हे हरि ! यदि तू और भी अनन्त जीव पैदा कर दे, तो भी कोई जीव तेरा अंदाज़ा नहीं लगा सकता |

    जेवडु भावै, तेवडु होइ || नानक, जाणै साचा सोइ ||

    जे को आखै बोलु विगाड़ु || ता लिखिऐ सिरि गावारा गावारु ||२६||

    हे नानक ! परमात्मा जितना चाहता है, उतना  ही बड़ा हो जाता है यानि अपनी कुदरत बड़ा लेता है | वह सदा अटल रहने वाला हरि आप ही जानता है कि वह कितना बड़ा है | यदि कोई बड़बोला मनुष्य बताने लगे कि परमात्मा कितना बड़ा है तो वह मनुष्य  महामूर्ख गिना जाता है ||२६|

    भाव संसार में अनन्त विद्वान हो चुके हैं तथा पैदा होते रहेंगे | पर, न अभी तक कोई मनुष्य लेखा कर सका है तथा न ही आगे कोई कर सकेगा कि प्रभु में कितने गुण हैं तथा वह कितनी कर्पा जीवों पर कर रहा है | अनन्त हैं उसके गुण तथा असीम है उसकी देन | इस भेद को प्रभु के बिना कोई अन्य नहीं जानता | यह काम मनुष्य कि ताकत से बहुत परे का है | उस मनुष्य को को नीच जानो, जो प्रभु के गुणों तथा देन कि सीमा ढूँढ सकने का दावा करता है |




क्षी गुरू नानक देव जी की रचना जपु जी साहिब का अर्थ भाव |


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