अपनी मांग मनवाने के लिए जिद्द करें / जरूर करें /
दूसरों से ही नहीं स्वयं से भी जिद्द करें /
अच्छा बनना है तो बुरा न बनने की जिद्द करें /
अच्छा बनने की जिद्द करें /
हर सकारात्मक जिद्द एक संकल्प ही तो है /
नकारत्मक भावों को मिटाने की जिद्द करें /
अनुशासनहीनता दूर करनें की जिद्द करें /
किसी अच्छे कार्यों को पूरा की जिद्दी बन जाएँ /
अन्याय और शोषण को मिटाने के लिए अपनी जिद्द कभी न छोड़े /
झूठी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए जिद्द करने की अपेक्षा गलत मूल्यों और परंम्पराओं को मिटाने की जिद्द करना अच्छा है /
आप अपने अच्छे स्वास्थ्य , सुख - सम्रद्धि और दीर्घायु के प्रति जिद्द्दी होकर दीर्घायु पाने की दिशा में बढें/
भरिए हथु पेरू तनु देह || पाणी धौतै, उतरसु खेह ||
मूत पलीती कपडु होइ || दे साबुनु, लइऐ ओहु धोइ ||
भरिऐ मति पापै कै संगि || ओहु धोपै, नावै के रंगि ||
यदि हाथ पैर या शरीर मैला ही जाये, तो पानी से धोने पर यह मेल उतर जाती है |यदि कोई कपड़ा मूत्र से गंदा हो जाये, तो साबुन लगा कर उसको धो लिया जाता है | यदि मनुष्य कि बुद्धि पापों से मलिन हो जाए, तो वह पाप, परमात्मा के नाम से प्रेम करने पर ही धोया जा सकता है |
पुंनी पापी , आखाणु नाहि || करि करि करणा, लिखि लै जाहु||
हे नानक ! 'पुण्यवान' तथा 'पापी' केवल नाम ही नहीं है, अर्थात केवल कहने मात्र को नहीं है, सचमुच ही तू जैसे काम करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर बना क्र साथ ले जाएगा | जो कुछ तू आप बोयेगा, उसका फल आप ही खायेगा | अपने बोये अनुसार परमात्मा के हुक्म में जन्म-मरण के चक्र में पड़ा रहेगा |२०|
माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है तथा इसकी बुद्धि मलिन हो जाती है | यह मैल इसको शुद्ध-स्वरूप परमात्मा से प्रथक (अलग ) रखती है तथा जिव दुखी रहता है | नाम-सिमरन ही एक साधन है जिस से मन कि मैल धुल सकती है | सिमरन तो विकारों कि मैल धोकर मन को प्रभु से जोडने के लिये है, प्रभु तथा उसकी रचना का अन्त पाने के लिये जिव को समर्थ नहीं बना सकता है |
"तीरथु तपु दइआ दतु दानु || जे को पावै तिल का मानू ||
तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया करनी, दिये हुये दान-- इन कर्मों के बदले यदि किसी मनुष्य को कोई प्रशंसा मिलती भी जाए तो थोड़ी मात्र ही मिलती है |
सुणिया, मंनिआ, मनि कीता भाऊ || अंतरगति तीरथि, मलि नाऊ ||
जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम से ध्यान जोड़ा है, यानि मन 'नाम' में खर्च किया है तथा जिस ने अपने मन में परमात्मा का प्रेम उत्पन्न किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने आंतरिक तीर्थ में मल-मल कर स्नान कर किया है| अर्थात उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल पुरुख में जुड़ कर अच्छी तरह अपने मन कि मैल उतार ली है |
सभि गुण तेरे, मै नाही कोइ || विणु गुण कीते, भगति न कोइ ||
सुअसत आथि बाणी बरमाऊ || सटी सुहाणु सदा मनि चाऊ ||
हे परमात्मा ! यदि तू आप अपने गुण मुझ में पैदा न करे तो मुझ से तेरी भक्ति नहीं हो सकती / मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है की मैं तेरे गुण गा सकूँ, यह तेरा बड़प्पन है /
हे निरंकार ! तेरी सदा जय हो ! तू आप ही माया, है, तू आप ही बाणी है, तू आप ही बरह्मा है / =अर्थात इस सृष्टि को बनाने वाला माया बाणी , या ब्रह्मा तुझ से भिन्न अस्तित्व वाले नहीं हैं जो लोगों ने मान रखे हैं / तू सदा स्थिरहै, सुंदर है, तेरे मन में प्रफुलता है तू ही जगत की रचना करने वाला है, तुझे ही पता है की तुने कब जगत बनाया /
कवणु सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवणु वारु ||
कवणि सि रुती, माहू कवणु, जितु होआ आकारु ||
कौन-सा वह समय तथा वक्त था, कौन-सी तिथि थी, कौन-सा दिन था, कौन-सी वह ऋतु थी तथा कौन-सा महीना था जब यह संसार बना ?
वेल न पाईआ पंडती, जि होवै लेखु पुराणु ||
वखतु न पाइओ कादीया, जि लिखनि लेखु कुराणु ||
कब यह संसार बना ?
उस समय का पंडितों को भी ज्ञान नहीं हुआ, नहीं तो इस विषय पर भी एक पुराण लिखा होता /
उस समय काजिओं को भी खबर नहीं लग सकी , नहीं तो वह वे लेख लिख देते, जैसे उन्होंने आयतें एकत्र करके कुरआन लिख था /-
"थिति वारु न जोगी जाणै, रुति माहु न कोई ||
जा करता सिरठी कउ साजैं, आपै जाणै सोई ||"
जब संसार बना था तब कौन-सी तिथि थी ? कौन-सा दिन था ?यह बात कोई योगी नहीं जानता /कोई
मनुष्य नहीं बता सकता कि
तब कौन-सी ऋतु थी, कौन-सा महीना था /
जो सर्जन कर्ता इस जगत को पैदा कर्ता है, वह आप ही जानता है कि जगत की रचना कब हुई
किव करि आखा किव सालाही, किउ वरनी किव जाणा ||
नानक, आखणि सभु को आखै, इक दू इकु सिआणा ||
मैं किस तरह बताऊँ, परमात्मा क बड़प्पन ? कैसे करूँ परमात्मा की सिफत सालाह (गुण -कीर्तन) ?
किस तरह वर्णन करूँ ? कैसे समझ सकूँ ?
हे नानक ! प्रत्येक जीव अपने आप को दूसरों से अक्लमंद समझ कर परमात्मा का बड़प्पन बताने क
यत्न करत है परन्तु बता नहीं सकता /-
वडा साहिबु वडी नाई, कीता जा क होवै ||
नानक, जे को आपौ जाणै, अगै गइआ न सोहै ||२१||
परमात्मा सबसे बड़ा है,उस क बड़प्पन ऊँचा है /जो कुछ जगत में हो रहा है, सब उसी क किया हो रहा है /
हे नानक ! यदि कोइ मनुष्य अपनी बुद्दि के बल पर प्रभु के बड़प्पन का अंत पाने क यत्न करे , वह परमात्मा के दर पर जाकर आदर प्राप्त नहीं करता /२१/
पाताला पाताल लख, आगासा आगास ||
ओड़क ओड़क भालि थके, वेद कहनि इक वात ||
सारे वेद एक जुबान होकर कहते हैं ---"पातालों के नीचे और लाखों पाताल हैं |आकाश के उपर और लाखों आकाश हैं|अनन्त ऋषि मुनि इन कि अंतिम सीमाओं को ढूँढ-ढूंढ कर थक गये हैं ,पर ढूँढ नहीं सके |
सहस अठारह कहनि कतेबा, असुलू इकु धातु ||
लेखा होइ त लिखीऐ, लेखै होइ विणासु ||
"कुल अठारह हजार आलम हैं जिन का मूल एक परमात्मा है"
"कतेब" (मुसलमान तथा ईसाई धर्म आदि कि चार धर्म पुस्तकें) कहती हैं |
पर सत्य तो यह है कि शब्द 'हजारों' तथा 'लाखों' भी कुदरत की गिनती में प्रयुक्त नहीं किये जा सकते, परमात्मा की कुदरत का लेखा तभी लिखा जा सकता है जब लेखा हो ही सके | यह लेखा तो हो ही नही सकता | लेखा करते करते तो लेखे का ही अन्त हो जाता है | गिनती तथा अक्षर ही समाप्त हो जाते हैं |
"नानक, वडा आखीऐ, आप जाणै आपु ||२२||
हे नानक ! जिस परमात्मा को सारे जगत में बड़ा कहा जा रहा है, वह आप ही अपने आप को जानता है |
भाव : प्रभु कि कुदरत का ब्यान करते हुए "हजारों" या "लाखों" कि संख्या का प्रयोग नहीं किया जा सकता / इतनी अनन्त कुदरत है कि इस का लेख करते हुए गिनती कि संख्या भी समाप्त हो जाती है /
"सालाही सालाहि, एती सुरति न पाइआ ||
नदीया अतै वाह, पवहि समुंदि, न जाणीअहि ||
सराहने-योग्य परमात्मा के बड़प्पन के बारे में कह कह कर किसी मनुष्य में इतनी समझ प्राप्त नहीं की कि परमात्मा कितना बड़ा है, गुण-कीर्तन कने वाले मनुष्य उस परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं |
नदियाँ तथा नाले समुन्द्र में गिरते हैं, पर फिर अलग से वह पहचाने नहीं जा सकते, बीच में ही लीन हो जाते हैं तथा समुन्द्र की थाह नहीं प्राप्त कर सकते |
" समुंद साह सुलतान, गिरहा सेती मालू धनु ||
कीड़ी तुलि न होवनी, जे तिसु मानहु न वीसरहि ||"
समुन्द्रों के बादशाह तथा सुलतान, जिन के खजानों में पहाड़ों जितने धन पदार्थों के ढेर हों, प्रभु का गुण- कीर्तन करने वालों की नज़रों में एक चींटी के बराबर भी नहीं होते, यदि हे परमात्मा ! उस चींटी के मन में से तू न निकल जाए |२३|
भाव : बंदगी करने वाले का अंत नहीं पाया जा सकता, परन्तु इस का मतलब यह नहीं की परमात्मा की सिफत-सालाह करने का कोई फायदा नहीं | प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों, बादशाहों की भी परवाह नहीं करता | प्रभु का नाम के सामने अनन्त धन भी तुच्छ लगता है
अंतु न सिफती, कहणि न अंतु ||अंतु न करणै, देणि न अंतु ||
परमात्मा के गुणों कि कोई सीमा नहीं है, गिनने से भी गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता /
हे नानक ! 'पुण्यवान' तथा 'पापी' केवल नाम ही नहीं है, अर्थात केवल कहने मात्र को नहीं है, सचमुच ही तू जैसे काम करेगा वैसे ही संस्कार अपने अंदर बना क्र साथ ले जाएगा | जो कुछ तू आप बोयेगा, उसका फल आप ही खायेगा | अपने बोये अनुसार परमात्मा के हुक्म में जन्म-मरण के चक्र में पड़ा रहेगा |२०|
माया के प्रभाव के कारण मनुष्य विकारों में पड़ जाता है तथा इसकी बुद्धि मलिन हो जाती है | यह मैल इसको शुद्ध-स्वरूप परमात्मा से प्रथक (अलग ) रखती है तथा जिव दुखी रहता है | नाम-सिमरन ही एक साधन है जिस से मन कि मैल धुल सकती है | सिमरन तो विकारों कि मैल धोकर मन को प्रभु से जोडने के लिये है, प्रभु तथा उसकी रचना का अन्त पाने के लिये जिव को समर्थ नहीं बना सकता है |
"तीरथु तपु दइआ दतु दानु || जे को पावै तिल का मानू ||
तीर्थ-यात्रा, तप-साधना, जीवों पर दया करनी, दिये हुये दान-- इन कर्मों के बदले यदि किसी मनुष्य को कोई प्रशंसा मिलती भी जाए तो थोड़ी मात्र ही मिलती है |
सुणिया, मंनिआ, मनि कीता भाऊ || अंतरगति तीरथि, मलि नाऊ ||
जिस मनुष्य ने परमात्मा के नाम से ध्यान जोड़ा है, यानि मन 'नाम' में खर्च किया है तथा जिस ने अपने मन में परमात्मा का प्रेम उत्पन्न किया है, उस मनुष्य ने (मानों) अपने आंतरिक तीर्थ में मल-मल कर स्नान कर किया है| अर्थात उस मनुष्य ने अपने अंदर बस रहे अकाल पुरुख में जुड़ कर अच्छी तरह अपने मन कि मैल उतार ली है |
सभि गुण तेरे, मै नाही कोइ || विणु गुण कीते, भगति न कोइ ||
सुअसत आथि बाणी बरमाऊ || सटी सुहाणु सदा मनि चाऊ ||
सभि गुण तेरे, मै नाही कोइ || विणु गुण कीते, भगति न कोइ ||
सुअसत आथि बाणी बरमाऊ || सटी सुहाणु सदा मनि चाऊ ||
हे परमात्मा ! यदि तू आप अपने गुण मुझ में पैदा न करे तो मुझ से तेरी भक्ति नहीं हो सकती / मेरी कोई सामर्थ्य नहीं है की मैं तेरे गुण गा सकूँ, यह तेरा बड़प्पन है /
हे निरंकार ! तेरी सदा जय हो ! तू आप ही माया, है, तू आप ही बाणी है, तू आप ही बरह्मा है / =अर्थात इस सृष्टि को बनाने वाला माया बाणी , या ब्रह्मा तुझ से भिन्न अस्तित्व वाले नहीं हैं जो लोगों ने मान रखे हैं / तू सदा स्थिरहै, सुंदर है, तेरे मन में प्रफुलता है तू ही जगत की रचना करने वाला है, तुझे ही पता है की तुने कब जगत बनाया /
कवणु सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवणु वारु ||
कवणि सि रुती, माहू कवणु, जितु होआ आकारु ||
कौन-सा वह समय तथा वक्त था, कौन-सी तिथि थी, कौन-सा दिन था, कौन-सी वह ऋतु थी तथा कौन-सा महीना था जब यह संसार बना ?
कवणु सु वेला, वखतु कवणु, कवण थिति, कवणु वारु ||
कवणि सि रुती, माहू कवणु, जितु होआ आकारु ||
कौन-सा वह समय तथा वक्त था, कौन-सी तिथि थी, कौन-सा दिन था, कौन-सी वह ऋतु थी तथा कौन-सा महीना था जब यह संसार बना ?
वेल न पाईआ पंडती, जि होवै लेखु पुराणु ||
वखतु न पाइओ कादीया, जि लिखनि लेखु कुराणु ||
वखतु न पाइओ कादीया, जि लिखनि लेखु कुराणु ||
कब यह संसार बना ?
उस समय का पंडितों को भी ज्ञान नहीं हुआ, नहीं तो इस विषय पर भी एक पुराण लिखा होता /
उस समय काजिओं को भी खबर नहीं लग सकी , नहीं तो वह वे लेख लिख देते, जैसे उन्होंने आयतें एकत्र करके कुरआन लिख था /-
"थिति वारु न जोगी जाणै, रुति माहु न कोई ||
जा करता सिरठी कउ साजैं, आपै जाणै सोई ||"
जब संसार बना था तब कौन-सी तिथि थी ? कौन-सा दिन था ?यह बात कोई योगी नहीं जानता /कोई
मनुष्य नहीं बता सकता कि
तब कौन-सी ऋतु थी, कौन-सा महीना था /
जो सर्जन कर्ता इस जगत को पैदा कर्ता है, वह आप ही जानता है कि जगत की रचना कब हुई
किव करि आखा किव सालाही, किउ वरनी किव जाणा ||
नानक, आखणि सभु को आखै, इक दू इकु सिआणा ||
मैं किस तरह बताऊँ, परमात्मा क बड़प्पन ? कैसे करूँ परमात्मा की सिफत सालाह (गुण -कीर्तन) ?
किस तरह वर्णन करूँ ? कैसे समझ सकूँ ?
हे नानक ! प्रत्येक जीव अपने आप को दूसरों से अक्लमंद समझ कर परमात्मा का बड़प्पन बताने क
यत्न करत है परन्तु बता नहीं सकता /-
वडा साहिबु वडी नाई, कीता जा क होवै ||
नानक, जे को आपौ जाणै, अगै गइआ न सोहै ||२१||
परमात्मा सबसे बड़ा है,उस क बड़प्पन ऊँचा है /जो कुछ जगत में हो रहा है, सब उसी क किया हो रहा है /
हे नानक ! यदि कोइ मनुष्य अपनी बुद्दि के बल पर प्रभु के बड़प्पन का अंत पाने क यत्न करे , वह परमात्मा के दर पर जाकर आदर प्राप्त नहीं करता /२१/
पाताला पाताल लख, आगासा आगास ||
ओड़क ओड़क भालि थके, वेद कहनि इक वात ||
सारे वेद एक जुबान होकर कहते हैं ---"पातालों के नीचे और लाखों पाताल हैं |आकाश के उपर और लाखों आकाश हैं|अनन्त ऋषि मुनि इन कि अंतिम सीमाओं को ढूँढ-ढूंढ कर थक गये हैं ,पर ढूँढ नहीं सके |
सहस अठारह कहनि कतेबा, असुलू इकु धातु ||
लेखा होइ त लिखीऐ, लेखै होइ विणासु ||
"कुल अठारह हजार आलम हैं जिन का मूल एक परमात्मा है"
"कतेब" (मुसलमान तथा ईसाई धर्म आदि कि चार धर्म पुस्तकें) कहती हैं |
पर सत्य तो यह है कि शब्द 'हजारों' तथा 'लाखों' भी कुदरत की गिनती में प्रयुक्त नहीं किये जा सकते, परमात्मा की कुदरत का लेखा तभी लिखा जा सकता है जब लेखा हो ही सके | यह लेखा तो हो ही नही सकता | लेखा करते करते तो लेखे का ही अन्त हो जाता है | गिनती तथा अक्षर ही समाप्त हो जाते हैं |
"नानक, वडा आखीऐ, आप जाणै आपु ||२२||
हे नानक ! जिस परमात्मा को सारे जगत में बड़ा कहा जा रहा है, वह आप ही अपने आप को जानता है |
भाव : प्रभु कि कुदरत का ब्यान करते हुए "हजारों" या "लाखों" कि संख्या का प्रयोग नहीं किया जा सकता / इतनी अनन्त कुदरत है कि इस का लेख करते हुए गिनती कि संख्या भी समाप्त हो जाती है /
"सालाही सालाहि, एती सुरति न पाइआ ||
नदीया अतै वाह, पवहि समुंदि, न जाणीअहि ||
सराहने-योग्य परमात्मा के बड़प्पन के बारे में कह कह कर किसी मनुष्य में इतनी समझ प्राप्त नहीं की कि परमात्मा कितना बड़ा है, गुण-कीर्तन कने वाले मनुष्य उस परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं |
नदियाँ तथा नाले समुन्द्र में गिरते हैं, पर फिर अलग से वह पहचाने नहीं जा सकते, बीच में ही लीन हो जाते हैं तथा समुन्द्र की थाह नहीं प्राप्त कर सकते |
" समुंद साह सुलतान, गिरहा सेती मालू धनु ||
कीड़ी तुलि न होवनी, जे तिसु मानहु न वीसरहि ||"
भाव : बंदगी करने वाले का अंत नहीं पाया जा सकता, परन्तु इस का मतलब यह नहीं की परमात्मा की सिफत-सालाह करने का कोई फायदा नहीं | प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों, बादशाहों की भी परवाह नहीं करता | प्रभु का नाम के सामने अनन्त धन भी तुच्छ लगता है
" समुंद साह सुलतान, गिरहा सेती मालू धनु ||
कीड़ी तुलि न होवनी, जे तिसु मानहु न वीसरहि ||"
समुन्द्रों के बादशाह तथा सुलतान, जिन के खजानों में पहाड़ों जितने धन पदार्थों के ढेर हों, प्रभु का गुण- कीर्तन करने वालों की नज़रों में एक चींटी के बराबर भी नहीं होते, यदि हे परमात्मा ! उस चींटी के मन में से तू न निकल जाए |२३|
भाव : बंदगी करने वाले का अंत नहीं पाया जा सकता, परन्तु इस का मतलब यह नहीं की परमात्मा की सिफत-सालाह करने का कोई फायदा नहीं | प्रभु की भक्ति की बरकत से मनुष्य शाहों, बादशाहों की भी परवाह नहीं करता | प्रभु का नाम के सामने अनन्त धन भी तुच्छ लगता है