ੴ
१ओंकार सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ।।
अर्थ : अकाल पुरखु (परमात्मा) एक है, जिसका नाम 'अस्त्तिव वाला' है, जो सृष्टि का कर्ता है, जो सब में व्यापक है, भय से रहित है, बैर रहित है, जिसका स्वरुप काल से परे है, भाव, जिसका शरीर नाश रहित है) जो योनीयों में नहीं आता, जिसका प्रकाश अपने आप से ही हुआ है, तथा जो सच्चे गुरू की कृपा से मिलता है।
मूल मंत्र। जपु जी साहिब। टीका : प्रो. साहिब सिंह जी
आदि सचु, जुगादि सचु ||
है भी सचु, नानक, होसी भी सचु ||
हे नानक ! अकाल पुरख (परमात्मा ) मूल (प्रारंभ से) अस्तित्व वाला है, यूगों के आदि से मौजूद है/ इस समय भी मौजूद है तथा आगे आने वाले आने समय में भी अस्तित्व में मौजूद रहेगा/१/जपु जी सहिब/
नोट : यह शलोक मंगलाचरण के रूप में है/ इस में गुरू नानक देव जी ने अपने इष्ट के स्वरुप का वर्णन किया है, जिसका जप-सिमरन करने का उपदेश इस सारी वाणीः 'जपु' जी में किया जाता है/
इस से आगे वाणीः 'जपु' जी का विषय शूरू होता है
१ओंकार सतिनाम करता पुरखु निरभउ निरवैरु
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ।।
अर्थ : अकाल पुरखु (परमात्मा) एक है, जिसका नाम 'अस्त्तिव वाला' है, जो सृष्टि का कर्ता है, जो सब में व्यापक है, भय से रहित है, बैर रहित है, जिसका स्वरुप काल से परे है, भाव, जिसका शरीर नाश रहित है) जो योनीयों में नहीं आता, जिसका प्रकाश अपने आप से ही हुआ है, तथा जो सच्चे गुरू की कृपा से मिलता है।
मूल मंत्र। जपु जी साहिब। टीका : प्रो. साहिब सिंह जी
आदि सचु, जुगादि सचु ||
है भी सचु, नानक, होसी भी सचु ||
हे नानक ! अकाल पुरख (परमात्मा ) मूल (प्रारंभ से) अस्तित्व वाला है, यूगों के आदि से मौजूद है/ इस समय भी मौजूद है तथा आगे आने वाले आने समय में भी अस्तित्व में मौजूद रहेगा/१/जपु जी सहिब/
नोट : यह शलोक मंगलाचरण के रूप में है/ इस में गुरू नानक देव जी ने अपने इष्ट के स्वरुप का वर्णन किया है, जिसका जप-सिमरन करने का उपदेश इस सारी वाणीः 'जपु' जी में किया जाता है/
इस से आगे वाणीः 'जपु' जी का विषय शूरू होता है
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।
अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।
सोचै सोचि न होवई जे सोची लख वार।।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।
अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।
भुखिआ भुख न उतरी, जे बंना पुरीआ भार।।
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि।।
अर्थभाव: यदि मैं सारे भवनों के पदार्थों के ढेर भी सम्भाल लूँ, तो भी तृष्णा के अधीन रहने से तृष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि मुझ में हज़ारों तथा लाखों चतुराइयाँ हों , तो भी उनमें से एक भी चतुराई साथ नहीं देती।
चुपै चुप न होवई जे लाइ रहा लिवतार।।
अर्थ: यदि मैं लाख बार भी स्नान आदि से शरीर की पवित्रता रखूँ तो भी इस तरह पवित्रता रखने से मन की पवित्रता नहीं रह सकती । यदि मैं शरीर की एक-तार समाधि लगाये रखूँ, तो भी इस तरह चुप रहकर के मन में शांति नहीं हो सकती।
भुखिआ भुख न उतरी, जे बंना पुरीआ भार।।
सहस सिआणपा लख होहि त इक न चलै नालि।।
अर्थभाव: यदि मैं सारे भवनों के पदार्थों के ढेर भी सम्भाल लूँ, तो भी तृष्णा के अधीन रहने से तृष्णा दूर नहीं हो सकती। यदि मुझ में हज़ारों तथा लाखों चतुराइयाँ हों , तो भी उनमें से एक भी चतुराई साथ नहीं देती।
किव सचिआरा होईऐ, किव कूड़ै तुटै पालि।।
हूकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि।।१।।
अर्थ: हम अकाल पुरुख (परमात्मा) के प्रकाश के, योग्य कैसे बन सकते हैं ? तथा हमारे अन्दर का झूठ (असत्य) का पर्दा कैसे टूट सकता है ?
रज़ा के स्वामी परमात्मा के हुक्म में चलना--यही एक विधि है। हे नानक ! यही विधि प्रारम्भ से ही, जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।१।
भाव: प्रभु से जीव का अन्तर मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उस की रज़ा में चले। यह नियम प्रारम्भ से ही परमात्मा की तरफ़ से जीव के लिये ज़रुरी है। पिता के कहे अनुसार पुत्र चलता रहे तो प्यार, न चले तो अन्तर पैदा होता चला जाता है।
हूकमि रजाई चलणा, नानक लिखिआ नालि।।१।।
अर्थ: हम अकाल पुरुख (परमात्मा) के प्रकाश के, योग्य कैसे बन सकते हैं ? तथा हमारे अन्दर का झूठ (असत्य) का पर्दा कैसे टूट सकता है ?
रज़ा के स्वामी परमात्मा के हुक्म में चलना--यही एक विधि है। हे नानक ! यही विधि प्रारम्भ से ही, जब से जगत बना है, लिखी चली आ रही है।१।
भाव: प्रभु से जीव का अन्तर मिटाने का एक ही तरीका है कि जीव उस की रज़ा में चले। यह नियम प्रारम्भ से ही परमात्मा की तरफ़ से जीव के लिये ज़रुरी है। पिता के कहे अनुसार पुत्र चलता रहे तो प्यार, न चले तो अन्तर पैदा होता चला जाता है।
हुकमी होवनि आकार, हुकमु न कहिआ जाई।।
हुकमी होवनि जीअ, हुकमि मिलै वडिआई।।
हुकमी होवनि जीअ, हुकमि मिलै वडिआई।।
पद अर्थ : अकाल पुरख (परमात्मा) के हुक्म अनुसार सारे शरीर बनते हैं, (परन्तु यह) हुक्म बताया नहीं जा सकता कि कैसा है। परमात्मा के हुक्म अनुसार ही सारे जीव जन्म लेते हैं तथा हुक्म अनुसार ही (परमात्मा के दर पर) शोभा मिलती है।
हुकमी उतमु नीचु, हुकमि लिखि दुख सुख पाईअहि।।
इकना हुकमी बखसीस, इकि हुकमी सदा भवाईअहि।।
परमात्मा के हुक्म से कोई मनुष्य अच्छा (बन जाता है) कोई बुरा। उसके हुक्म में ही (अपने किये हुये कर्मों के) लिखे अनुसार दुख तथा सुख भोगते हैं। हुक्म में ही कई मनुष्यों पर (अकाल पुरख के दर से) कृपा होती है, तथा उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरन के चक्र में घुमाये जाते हैं ।
हुक्मै अंदर सभु को, बाहरि हुक्म न कोइ||
नानक हुक्मै जे बुझै, त हउमै कहै न कोइ||
प्रत्येक जीव परमात्मा के हुक्म में ही है, कोई जीव हुक्म से बाहर ( भाव, हुक्म से बेमुख ) नहीं हो सकता/ हे नानक ! यदि कोई मनुष्य परमात्मा के हुक्म को समझ ले तो फिर वह स्वार्थ की बातें नहीं करता (भाव, फिर वह स्वार्थी जीवन को छोड़ देता है)/२/
भाव : प्रभु के हुक्म का सही स्वरुप ब्यान नहीं किया जा सकता, परन्तु जो मनुष्य इस हुक्म में चलता है, वह उदार हो जाता है (संकीर्ण-मन नहीं रहता )/
जपु जी साहिब / टीका : प्रो. साहिब सिंह जी (डी. लिट.)
गावै को ताणु हौवै किसै ताणु ।।
गावै को दाति जाणै नीसाणु ।।
गावै को दाति जाणै नीसाणु ।।
जिस किसी मनुष्य में सामर्थ्य होती है वह परमात्मा के बल का गायन करता है (भाव, उसका गुण-कीर्तन करता है, उसके उन कार्यों का कथन करता है जिनसे उसकी अपार शक्ति प्रकट हो) । कोई मनुष्य उसके द्वारा दिये गये पदार्थों का ही गुण-गान करता है (क्योंकि इन देय-पदार्थों को वह परमात्मा की कृपा का) निशान समझता है।
गावै को, जापै दिसै दूरि।।
गावै को, वेखै हादरा हदूरि।।
कोई मनुश्य कहता है.'अकाल पुरख (प्रभु) दूर प्रतीत होता है, दूर दिखता है',
पर कोई कहता है, '(कि नहीं पास है) सब स्थानों पर उपस्थित है, (सब को) देख रहा है।'
गावै को, वेखै हादरा हदूरि।।
कोई मनुश्य कहता है.'अकाल पुरख (प्रभु) दूर प्रतीत होता है, दूर दिखता है',
पर कोई कहता है, '(कि नहीं पास है) सब स्थानों पर उपस्थित है, (सब को) देख रहा है।'
कथना कथी न आवै तोटि।।
कथि कथि कथी, कोटी कोटि कोटि।।
करोड़ों ही जीवों ने अन्नत बार (अकाल पुरख के हुक्म का) वर्णन किया है, पर हुक्म करने में कमी नहीं आ सकी (भाव, वर्णन कर कर के हुक्म का अन्त नहीं हो सका, हुक्म का सही स्वरुप नहीं खोज़ा जा सका).
कथि कथि कथी, कोटी कोटि कोटि।।
करोड़ों ही जीवों ने अन्नत बार (अकाल पुरख के हुक्म का) वर्णन किया है, पर हुक्म करने में कमी नहीं आ सकी (भाव, वर्णन कर कर के हुक्म का अन्त नहीं हो सका, हुक्म का सही स्वरुप नहीं खोज़ा जा सका).
परमात्मा के हुक्म में कोई मनुष्य अच्छा बन जाता है,कोई बुरा।
उसके हुक्म में ही अपने किये हुये कर्मों के लिखे अनुसार दु:ख तथा सुख भोगे जाते हैं ।
हुक्म में ही कई मनुष्यों पर अकाल पुरख (परमात्मा) के दर से कृपा होती है।
उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरन के चक्र मे घुमाये जाते हैं ।
गुरमखि नादं, गुरमुखि वेदं, गुरमुखि रहिआ समाई।।
गुरु ईसरु, गुरु गोरखु बरमा, गुरु पारबती माई।।
उसके हुक्म में ही अपने किये हुये कर्मों के लिखे अनुसार दु:ख तथा सुख भोगे जाते हैं ।
हुक्म में ही कई मनुष्यों पर अकाल पुरख (परमात्मा) के दर से कृपा होती है।
उसके हुक्म में ही कई मनुष्य नित्य जन्म-मरन के चक्र मे घुमाये जाते हैं ।
गुरमखि नादं, गुरमुखि वेदं, गुरमुखि रहिआ समाई।।
गुरु ईसरु, गुरु गोरखु बरमा, गुरु पारबती माई।।
गुरू ही हमारे लिये शिव है, गुरू ही हमारे लिये गोरख तथा ब्रहमा है तथा गुरू ही हमारे लिये माई पार्वती है।...
जे हउ जाणा, आखा नाही, कहणा कथनु न जाई।।
गुरा, इक देहि बुझाई।।
सभना जीआ का इकु दाता, सो मै विसरि न जाई।।५।।
वैसे परमात्मा के इस हुक्म को यदि मैं समझ भी लूँ तो भी उस का वर्णन नहीं कर सकता। अकाल पुरख (परमात्मा) के हुक्म का कथन नहीं किया जा सकता। मेरी तो हे सतगुरू ! तेरे आगे प्रार्थना है कि मुझे एक समझ दे कि जो सब जीवों को देह पदार्थ देने वाला एक परमात्मा है, मैं उसको भुला न दूँ ।५।
भाव : प्रेम को मन में बसा कर जो मनुष्य प्रभु की याद में जुड़ता है, उसके हृदय में सदा सुख तथा शांति का निवास होता है। परन्तु यह याद , यह बन्दगी गुरू से मिलती है। गुरू ही यह दृढ़ कराता है कि प्रभु सर्वत्र बस रहा है, गुरू द्वारा ही जीव की प्रभु से दूरी समाप्त होती है। तब तो गुरू से ही बंदगी की दाति मांगें ।
तीरथि नावा, जे तिसु भावा, विणु भाणे कि नाइ करी।।
जेती सिरठि उपाइ वेखा, विणु करमा कि मालै लइ।।
ਜਪੁ ਜੀ ਸਾਹਿਬ/
जपु जी साहिब/Cont..
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