Sunday, 12 August 2012

इंसान और लाश [कविता]

वो गरीब था। बहुत बेचारा था उस  की गरीबी यह थी कि उस की माँ मर गई। माँ के साथ बाप भी।
बाप जिंदा ही मर गया, कियोंकि उसने दुसरा ब्याह करवा लिया। माँ आई पर सौतेली।
सौतेली माँ क्या माँ का दर्द बन सकती है ?
नहीं ! नहीं ! वो गरीब सारी  उमर  माँ के प्यार को तरसता रहा,कुर्लाता रहा,मिन्नतें डालता रहा पर माँ नहीं मिली पर पिता का प्यार भी लूट गया।
सारे ज़माने के दर्द मिले पर माँ नहीं मिली।  माँ जैसा महरम कोई नहीं बन सकता। गरीब बेचारा सारी उमर उस माँ के लिये तरसता रहा, सिसकता रहा, इस तड़प के साथ उसकी ज़ान चली गई।
उसकी मौत की जिम्मेवार सौतेली माँ उसकी अर्थी ऊपर रो रही थी। माँ का पयार न मिला उसकी लाश को, माँ के आंसू धो रही थी।
यह समाजदारी है? रिश्तेदारी है ? या इन्सान व उसकी लाश का फर्क है।
इन्सान, जिसको सब धितकारते हैं । लाश ! जिस को सब सत्कारते है।
एक दरिंदा भी मर कर महान आत्मा ही कहलाता है। लोग क्षर्दांज़ली कुछ इस तरह देते है। कि यह गरीब माँ होते हुए भी माँ वाला नहीं बना।

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