Sunday, 12 March 2017

जीव-आत्मा पति और शरीर-स्त्री का मिलन

एक उद्धरण (Quote) है "मेरी आत्मा मेरे शरीर में है" के बारे में एक विचार:-
"मेरी आत्मा मेरे शरीर में है" कहने के बजाय यह कहना अधिक उचित होगा कि मेरी आत्मा को अर्थात मेरी यह काया या शरीर, भौतिक संसार में रहने के लिये एक साधन मिला है। मेरे अंदर आत्मा नहीं बल्कि मैं स्वंय आत्मा हूँ। आम बोलचाल में इसको हम "आत्मा" कहते हैं।
गुरबाणी में अधिकतर  इसके लिये लफ्ज़ "आत्म" (Self) इस्तेमाल किया गया है। आत्म का अर्थ अपना आप या स्वंय। इस आत्मा या आत्म के लिये गुरबाणी में 'हंस' या 'जीव' शब्द लिये गये हैं, तथा 'शरीर' के लिए 'सरीर', 'काया', 'देह' का इस्तेमाल है।

गुरु जी का फ़रमान है : --
"काइआ हंसि संजोग मेलि मिलाइआ।।"
"तिन ही कीआ विजोग् जिनि उपाइआ।।"
शरीर तथा आत्मा का मेल होने से, इसको 'जन्म लेना'  तथा बिछुड़ने पर 'मौत' कह देते हैं। (जोकि असल मौत नहीं, शरीर से आत्मा का बिछूड़ना है।

गुरु जी ने शरीर तथा आत्मा के आपसी परस्पर वार्तालाप के जरिये बहुत सुंदर नक्शा खींच कर हमारे सामने रखा है,
जिसके भावार्थ इस प्रकार हैं:--

"हे भाई! यह जीव-आत्मा असल में विकृत योगी है, यह शरीर, जब स्त्री का साथी बन जाता है, तो काया स्त्री से लिपट जाती है, इसको अपने मोह में फंसाती रहती है, इससे माया के रंग-रस का आनंद लेती है।
अपने किये कर्मों के संयोग से यह जीव-आत्मा और शरीर का मिलन से, दुनिया के भोग-विलास होते हैं।1।

जो कुछ जीव आत्मा रूपी पति तथा शरीर रूपी स्त्री को कहता है,  वो तुरंत मानती है। जीव आत्मा पति, अपने शरीर रूपी पत्नी को श्रंगार-सवार कर रखता है। आपस में दिन-रात मिल बैठ कर रहते हैं।  जीव-आत्मा पति  शरीर रूपी स्त्री को कई प्रकार के प्रोहत्सान देता रहता है।2।

शरीर-स्त्री जो कुछ मांगती है, उसे प्राप्त करने के लिये जीवात्मा पति कई प्रकार की दौड़-भाग करता फिरता है।जो कुछ भी मिलता है, वो अपनी शरीर-स्त्री को लाकर दिखाता है। पर इस दौड़-भाग से उसको "नाम-पदार्थ नहीं मिलता। नाम पदार्थ के बिना शरीर-स्त्री की माया रूपी भूख-प्यास  बनी रहती है।3।

शरीर-स्त्री जीवात्मा पति के आगे दोनों हाथ जोड़ बेंती करती रहती है कि
हे प्रिय आत्मा! मुझे छोड़कर कहीं दूसरे देश न चले जाना। मेरे ही इस घर में बसे रहना। इसी घर में ही कोई रोज़ी-रोटी का काम कर रहते रहना, जिससे मेरी भूख-प्यास मिटती रहेगी। अर्थात मेरी सभी इच्छाएं पूर्ण होती रहेंगी।4।

आरंभ से ही सदैव लोग शास्त्रों द्वारा लिखे धार्मिक कर्म करते आएं है। हरि-नाम के स्वाद के बिना किसी भी कर्म से रत्ती-भर भी सुख नहीं मिला। जब भी किसी को प्रभु की कृपा होती है, तो ये जीव-आत्मा व शरीर मिलकर "नाम" की बरक़त से आत्मिक-आंनद मनाते हैं।5।

माया-ग्रस्त शरीर की संगत में जीव-आत्मा, चंचल-चतुर होकर दुनिया के इस खेल को खेल रही है  जिस नाम पदार्थ की ख़ातिर हम इस दुनिया में आए हैं, वो पदार्थ गुरु द्वारा ही मिलता है।6।

शरीर, जीव-आत्मा को कहती रहती है:-
"हे मेरे सुख-दुख में साथ रहने वाले जीव-आत्मा रूपी पति! तूं मेरे साथ सदैव रहता रह, तेरे बिना मेरा कोई मूल्य (औचित्य) नहीं हूं। मेरे साथ वचन इक़रार कर कि मैं तुझे छोड़ कर नहीं जाऊँगा।"7।

जब भी स्त्री रूपी शरीर ने पति रूपी जीव-आत्मा से बेनती की, पति रूपी जीव-आत्मा ने कहा कि मैं तो उस परम-आत्मा के हुक्म का गुलाम हूँ, वो बहुत बड़ा मालिक है
ਹੇ ਭਾਈ! (ਜਦੋਂ ਭੀ ਕਾਇਆਂ-ਇਸਤ੍ਰੀ ਨੇ ਇਹ ਤਰਲਾ ਲਿਆ, ਤਦੋਂ ਹੀ) ਜੀਵਾਤਮਾ-ਪਤੀ ਨੇ ਆਖਿਆ—ਮੈਂ ਤਾਂ (ਉਸ ਪਰਮਾਤਮਾ ਦੇ) ਹੁਕਮ ਵਿਚ ਤੁਰਨ ਵਾਲਾ ਗ਼ੁਲਾਮ ਹਾਂ । ਉਹ , उसको किसी का डर नहीं, वो किसी का मोहताज़ नहीं है। वो जितना समय मुझे तेरे साथ रखेगा,मैं उतना समय ही रह सकता हूँ। जब कहेगा, मैं उठकर चला जाऊँगा।8।
जब भी जीव-आत्मा यह सच्चे वचन शरीर रूपी स्त्री को कहता है, वो चंचल स्त्री अक्ल की कच्ची, कुछ भी नहीं समझती। वो फिर-फिर जीव-आत्मा का साथ मांगती है, तथा जिव-आत्मा पति उसकी बात को मज़ाक या व्यर्थ समझकर टाल देती है ।9।
जब पति-परमात्मा की तरफ से हुक्म आता है, जब वो आमंत्रण पत्र भेजता है, वो न ही अपनी स्त्री से पूछता है, न ही सलाह करता है, वो अपने शरीर,काया, मिटटी से छूट कर  उठ चल देता है ।

नानक कहते हैं, देख! यह है "मोह का झूठा प्रसार"।10।

No comments:

Post a Comment