Wednesday, 3 May 2017

मेरी पर्सनल डायरी

आज की बात मैं अपने से करता हूँ। 53 वर्ष की उम्र है मेरी। न जाने कितने संघर्ष थे मेरी जिंदगी के, जो भी थे, खैर, वो विषय नहीं है मेरा, जैसे भी थे पर सच मानिए, पैसे की दौड़ में मैं कभी नहीं रहा, जो मिला, सन्तुष्टि रखी दिल में, सौभाग्य से हमसफ़र भी ऐसा ही मिला ,और औलाद भी वैसे ही।
दोनो ने घर परिवार के खर्चे की जिम्मेवारी एक दूसरे को थोपनी चाही,कि फिजूल न हो, इसी लंबी लड़ाई में आखिर बेटे को समय रहते भाग दौड़ सौंप दी और अपने किशोर अवस्था के लिखने-पड़ने के शोंक के बस में 50 की ही उम्र में काम काज से रिटायर्ड मेन्ट ले ली और अपने आप को इसी लाइन में निस्वार्थ भावना से सौंप दिया कि यही मेरी सेवा यही मेरा दान, यही मेरी पाठ-पूजा है।

इसी बीच कई लोग सगे संबधी, मित्र सहित मिले। मेरे निर्णय को गलत कहना चाहा, पर मुझे अपने असूलों से बंधे रहना था। साथ देनी वाली मेरी मिसेज़ थी, तो डरना क्या। बिल्कुल यही सब कुछ मेरी माँ ने भी किया था। पिता तो मेरी 11 साल की उम्र में ही नहीं रहे थे । उन्हें भी सलाह दी गई थी कि अभी जैहदाद बांट देने से खजल खुआर होवोगी, पर उन्होंने भी नहीं माना कि मैं जैसे तैसे सब बहुओं से मिलजुल कर गुज़ारा कर लुंगी,पर अपने परिवार को किरायों या व्यापार के लिए कैपिटल मनी के लिए इधर उधर धक्के नहीं खाने दूंगी।
ठीक वैसे ही मेरे तथा मेरी वाइफ के विचार हैं, कि जब है, तो बच्चों से छुपा क्यों ? जो है आज भी इनका, कल भी इनका। जब ऐसे वैसे दिन आए भी, तो जिस इष्ट को माना है, जिसके हुकुम में रहने को कहने वाले गुरु ने दुख-सुख में रहने को बराबर कर मानने की सलाह दी है, तो भरोसा भी होना चाहिए। यदि कर्मो में सुख लिखा है, तो कोई और मिटा भी नहीं सकता। बस इस पर निश्चय होना चाहिए।
मेरी मिसेज़ ने मेरे साथ 30 साल रहते हुए, आप मानोगे नहीं, मुश्किल के समय तीन-तीन बार घर के जेवर बेचे होंगे, पर परमात्मा की अपार कृपा से फिर बने।
मकान, जो मां-बाप के मूलधन को मिलाकर मिला था, उसके में घाटे के आसार तो वाकई इसीलिए नहीं थे, क्योंकि उनके पैसे, जो मेहनत के थे,बरकत के थे, में नुकसान होने की गुंजाइश तो रत्ती भर नहीं होती ।

विषय यह था कि आजकल ये बहुत रिवाज़ सा चल पड़ा है कि पेरेंट्स अपने बच्चों को उनकी पढ़ाई महंगी से महंगी, कम्पीटिशन  सोच कराते हैं कि उनके सगे संबधी या पड़ोसी के बच्चे अपने बच्चों से स्मार्ट कैसे! जिनमें बढ़िया से बढ़िया महंगा स्कूल, महंगी फीस, महंगी वर्दी, बड़े नम्बर्स, बड़ा ग्रेड है, जो 95% से लेकर 98% तक पहुंच गया है। इसी प्रतियोगिता की होड़ का नतीजा बच्चे के खराब स्वास्थ्य, मानसिक शोषण से हिंसक होने और उसके जीवन को एक मशीनी रॉबर्ट बना देती है, उसका इस जीवन मे आने के आध्यात्मिक मकसद को तो छोड़ो, वो अपने पर्सनल निर्णय, जज़्बात को तक नहीं समझ पाता, क्योंकि उसके पास इतना समय ही नहीं, जो स्वंय को दे सके।  उसे अपनी पढ़ाई के सब्जेक्ट तक अपनी मर्ज़ी से लेने तक की आज़ादी नहीं, जिसका कारण उनके पेरेंट्स का दबाव है, जो वो आप अपनी जिंदगी में बन या कर नहीं पाए या बन भी गए हैं तो उस पद से पाए हुए धन को डबल करने की उपेक्षा, अपने बच्चों से करते हैं
इससे आखिर क्या होता है कि वही बच्चा भी पुनः इसी दौड़ में शामिल हो अपनी अगली जरनेशन को इसी दौड़ में धकेल देता है और चल पड़ती है आगे से आगे की कहानी।
न मां-बाप को अपने जीवन के लक्ष्य का पता है, न उनके बच्चों को।

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