Double Standard यानि दोगला_पन , मनुष्य की अपनी मजबूरी है और कुदरत ने भी उसे सोचने ,समझने, के बाद निर्णय के लिये दो मन दिए हैं, जो किसी काम को करने या न करने के लिये लगातार अपना दबाव डालते हैं,पर जब फैंसला ही किसी एक पक्ष में लेना है तो वो मनुष्य या तो उसे दिमाग पर छोड़ता है या भाग्य पर क्योंकि उसे अंदर से इस बात का पूर्ण ज्ञान होता है कि कौन सा कर्म पाप है या कौन सा पूण्य, अथवा कौन सा काम कानून की निगाह में अपराध की श्रेणी में आता है या कौन सा नहीं, फिर भी उस मनुष्य का अपना चरित्र, खून तथा वंशज के गुण अथवा संस्कार का प्रेशर रहना भी स्वभाविक है। कुल मिलाकर मैं अपनी उम्र और तजुर्बे के मिलेजुले ज्ञान के मुताबिक़ यह विचार रखता हूँ कि वो मनुष्य जो भी निर्णय लेता है उसमें उसके संस्कारों का भी पूरा योगदान होता है, जो उसे अपने (मान सकें तो) पूर्व जन्म के अतिरिक्त इस जन्म के वंशजों, स्कूल-गुरुकुल की शिक्षा, संगत का प्रभाव, जिंदगी में जो योग्यता बनाई उसके तजुर्बे से मिले ज्ञान इत्यादि, उसके लिये गए निर्णय में सहायक की भूमिका निभाते है।
Seriously
Tuesday, 2 May 2017
Double Standard
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