मुझे ख़ुशी इस बात की है कि इस जमाने में भी आप जैसे नोजवान हैं जो धर्म जैसे विषय में रूचि लेते हैं वर्ना अब तो अधिआमक बातें किताबों में ही रह गई हैं । जो थोडा बहुत पूजा पाठ है, वह या तो माता पिता की आज्ञा का पालन है या एक खानापूर्ति ।
धर्म कोई भी हो बुरा नहीं और ना ही किसी पीर पैगम्बर गुरु ने दूसरे धर्म की निदा की है। हाँ उनमें धर्म की आड़ में किये जा रहे कर्म काण्ड को जरूर उजागर किया है। जो सही भी है ।
आज का तर्कवान मनुष्य जो कि पढ़ा लिखा है वो इन बातों को बहुत जल्दी पकड़ता है । यदि हम बड़े लोग उनका उत्तर न दे पाएं तो वो दिशाहीन हो जाता है ।
और इसी बात का फायदा वो इंसान लेता है जो स्वार्थ से मजबूर हो । वह स्वार्थ पैसे का, शोहरत का या किसी मज़बूरी वश भी हो सकता है ।
हम धर्म में सबसे बड़ा पुन्न दान समझते हैं पर कोई इसकी रोटी खाता है। धर्म कर्म जितना जिसके नज़दीक होगा उतना वह श्रदा से हीन होगा । जिसमें पहला नाम पुजारी का आता है चाहे व् पंडित है, ग्रन्थि है या मुस्लिम में क्या कहते हैं या फादर । इनसे भी ऊपर हैं वे लोग जिनको इनका दखरेख का जिम्मा हम लोग देते हैं ।
इन लोगो को ख़ुशी नही होती कि हमें धर्म की असल परिभाषा, किर्या, इत्यादि की जानकारी हो ।
धर्म की परिभाषा मेरे एक मित्र ने बहुत अच्छे तरीके से समझाने की कोशिश की है । विस्तार में यही कहना है कि धर्म की रीत केवल पूजा पाठ का कर्म ही नहीं है । वो हमें अच्छे आचरण सब की भलाई, निडर रहना, दूसरे को भी भय नहीं दिखाना अपने से कमजोर आदमी यानि आर्थिक तौर पर मदद करना । बहुत से गुण हैं जो आप लोग भली भांत समझते हैं।
और बुराइयां जैसे क्रोध, पराई औरत, धन पर नज़र न रखना, लालच से दूर, धन पदार्थों का या पदवी का अहंकार न करना इत्यादि ।
सही कहा आपने, जितना कोई समझाने की करे करे गे उल्टा ही। वो सब के साथ है। भला मूर्ति पूजा का विरोध करने वाले की भी कोई मूर्ति बनाता है । हमारे यहां तो श्राद्ध मना करने वाले का लोग श्राद्ध कर देते है । हमें जागर्ति लानी होगी मिलकर ।
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