अपने की मानसिक वेदना हो,
मन मसोस रह जाता है मन।
अपनों मे छोटा कोई खिन्न जाए,
भारी पड़ जाता है मन।
अपने से छोटा अयोग्य अव्वल हो,
मारना पड़ जाता है मन।
अपने में छोटा योग्य हो जाए,
हर्षित हो जाता है मन।
अपने से छोटा अनपढ़ निर्भर हो,
डिग्रीयां टटोलता है मन।
अपने घर लोटते,पत्नी मुस्काए,,
हरा-भरा हो जाता है मन।
अपना कोई किसी धोखा करे,
उतेजना से भर जाता है मन।
अपने सहपाठी को याद कर,
एहसान से घर कर जाता है मन।
अपनी सहपाठिन को याद कर,
नि साहस में गड़ जाता है मन।
अपना सौंदर्य किसी कि आकर्षित करे,
आखें चुराता है मन।
अपने आप से घ्रणा करे कोई,
खट्टा-सा हो जाता है मन।
अपने मित्र के किसी काम ना आ सके, मन में रह जाता है मन।
अपने से गुब्बार निकाल,उद्धेग दूर कर भड़ास निकालता है मन।
अपनों प्रति दुर्भावना छिपी हो,
ख़ुद को चोर कहलाता है मन।
अपना कोई दिल तोड़े
कच्चा सा हो जाता है मन।
अपना कहीं मन न लगे,असहाय सा हो, उखड़ जाता है मन।
अपनी इस कविता को कोई 'लाइक' ना करें, 'गंभीर'-का रूठ जाता है मन।
Gurmeet Singh Gambhir II
Monday, 23 May 2016
मन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment